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केंद्र की भाजपा सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को छह माह के लिए बढ़ा दिया है
बद्री नारायण
केंद्र की भाजपा सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को छह माह के लिए बढ़ा दिया है। माना जा रहा है कि इससे गरीब सामाजिक समूहों के करीब 80 करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। उत्तर प्रदेश की नव-निर्वाचित सरकार ने भी मंत्रिमंडल की पहली बैठक में इस योजना को तीन माह के लिए बढ़ा दिया है। उल्लेखनीय है कि यह योजना कोरोना महामारी के भयावह आघात झेल रहे गरीब सामाजिक समूहों को राहत देने के लिए शुरू की गई थी। अब माना जा रहा है कि महामारी के नियंत्रित होने के बावजूद देश में रोजगार, अर्थव्यवस्था व समाज अपने सहज लय में नहीं आ पाए हैं। ऐसे में, गरीब कल्याण अन्न योजना का विस्तार लोगों को राहत देगा।
यूं तो राशन वितरण की परियोजनाएं दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में 90 के दशक के आसपास ही शुरू हो गई थीं, लेकिन खाद्य सुरक्षा को कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने एक केंद्रीय पहल के रूप में लागू किया। साल 2014 में जब भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार केंद्र में आई, तो उसने अनेक प्रकार की गरीब कल्याण योजनाएं शुरू कीं और उनका वितरण आधार तल तक हो पाए, इस पर सजग ढंग से काम किया। यही वजह है कि कोरोना-काल में प्रारंभ की गई यह राशन योजना आज विश्व के सबसे बड़े खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के रूप में जानी जाती है।
वैश्विक रूप से देखें, तो चाहे पश्चिमी देश हों या भारत जैसा दक्षिणी एशियाई देश, लगभग सभी जगह जनतंत्र कल्याणकारी योजनाओं के साथ समाहित होकर ही आगे बढ़ता रहा है। किंतु 90 के दशक में नव-उदारवादी व्यवस्था लागू होने के बाद बाजार के आक्रामक विस्तार के कारण कई व्याख्याकार मानने लगे थे कि भारत अपने लोक-कल्याणकारी मॉडल को छोड़ देगा। मगर यह आशंका लगभग निर्मूल हो रही है, क्योंकि केंद्र ने बाजार के विस्तार की परिस्थिति बनाने की दिशा में काम करते हुए भी अपनी कल्याणकारी प्रतिबद्धताओं को नहीं त्यागा। उज्ज्वला योजना, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना, पेंशन योजना, आयुष्मान भारत योजना, मुफ्त राशन योजना, किसान सम्मान निधि जैसी कई योजनाएं शुरू की गई हैं।
कोरोना महामारी ने ऐसी कल्याणकारी योजनाओं की जरूरत और बढ़ा दी है। इन कल्याणकारी योजनाओं ने लाभार्थियों का एक ऐसा बड़ा वर्ग विकसित किया है, ऐसे सामाजिक सहयोग उनमें विकास की आकांक्षा करने की शक्ति बढ़ाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो ये परियोजनाएं 'हाशिये के समाज' को विकास के स्वप्न देखने की शक्ति प्रदान करती हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि राज्य को ऐसी कल्याणकारी योजनाओं से धीरे-धीरे मुक्ति पा लेनी होगी। सामाजिक समूहों में उद्यमिता का विकास कर उन्हें स्वावलंबी बनाने की कोशिश करनी होगी। यह बात ठीक है, और सरकार उद्यमिता विकास एवं स्वरोजगार सृजन के अनेक प्रयासों के जरिये इस दिशा में काम भी कर रही है, लेकिन गरीब कल्याणकारी योजनाएं समाज की जरूरत हैं और राष्ट्र की नैतिक प्रतिबद्धता भी। पूरी दुनिया में चाहे वामपंथी शासन हो या फिर दक्षिणपंथी या लोकतंत्र, अपने-अपने समाज की आवश्यकताओं के हिसाब से सबको 'लोक-कल्याणकारी योजनाओं' के साथ ही चलना पड़ रहा है। ऐसे में, राज्य पर बढ़ते आर्थिक दबाव के बावजूद गरीब कल्याण की योजनाएं गरीब एवं अति गरीब सामाजिक समूहों के लिए एक प्रकार से जीवनधारा की तरह हैं।
यह ठीक है कि ऐसी लोकप्रिय योजनाओं से सत्तासीन दलों के पक्ष में राजनीतिक गोलबंदी होती है। किंतु इसे अगर विकास की राजनीति के संदर्भ में देखें, तो आगामी समय में जिस 'विकास-लक्ष्य' की तरफ देश को बढ़ना है, उसमें राजनीति को विकास केंद्रित होना ही पड़ेगा। राज्य-सत्ता को आर्थिक रूप से गतिशील समूहों, जैसे उद्योग, व्यवसाय, बाजार से जुडे़ लोगों के साथ ही लोकप्रिय गरीब कल्याण योजनाओं पर सतत रूप से कार्य करना होगा। केंद्र सरकार ऐसी ही विकास केंद्रित राजनीति, जिसमें अंत्योदय एवं गरीब कल्याण एक जरूरी तत्व हैं, के पक्ष में खड़ी दिखती है। शायद इसीलिए हालिया विधानसभा चुनावों में 'गरीब कल्याण का कैंपेन' भाजपा के चुनाव-विमर्श का मुख्य तत्व रहा और इसने समाज के गरीब समूहों को राजनीतिक रूप से उसके पक्ष में मोड़ने में मुख्य भूमिका निभाई। हमने देखा कि हिंदुत्व की आम समझ, विकास की आकांक्षा, गरीब कल्याण कार्यक्रमों से उत्पन्न जुड़ाव, सामाजिक इंजीनियरिंग, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि, इन सबने मिलकर विधानसभा चुनावों में भाजपा का राजनीतिक लोकगीत रचा है।
मगर विकास केंद्रित राजनीति की अपनी चुनौतियां भी होती हैं। यह एक ऐसी लाभार्थी चेतना को विकसित करती है, जो सतत सक्रिय एवं विकासमान होती है। राष्ट्र को उस लाभार्थी चेतना को बार-बार बदलती जरूरतों के हिसाब से नई-नई योजनाओं के जरिये प्रतिक्रिया देना होता है। इस चेतना में अग्रगामी एवं प्रतिगामी, दोनों भाव निहित होते हैं। अत: राज्य को सतत रूप से इसका मूल्यांकन और इसे नए ढंग से संबोधित करना ही होता है। दूसरी चुनौती यह है कि विकास की राजनीति में सामाजिक संतुलन को बनाए रखना एक कठिन कार्य है। यह अस्मिता की राजनीति की तरह आसान काम नहीं होता, वरन यह कार्य एक बंधी हुई रस्सी पर चलने की तरह कठिन व जटिल होता है। किंतु सामाजिक परिवर्तन के लिए ऐसे खतरे उठाने ही होते हैं और जो राजनीतिक दल या नेता खतरे उठाते हुए लक्ष्य को साध लेता है, वह लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच जाता है।
विकास की यह राजनीति एक घाट पर बाघ और बकरी के लिए साथ-साथ पानी पीने की परिस्थिति बनाने जैसा कठिन और दुरूह है, जिसकी इच्छा महात्मा गांधी ने की थी। शायद इसीलिए उन्होंने विकास का मूल्यांकन समाज के अंतिम आदमी के संदर्भ में करने के लिए हम सबको प्रेरित किया था। देखना है कि भारतीय जनतंत्र लोक-कल्याणकारी प्रतिबद्धता के साथ अपने रिश्ते को संतुलित रखते हुए कैसे नया भारत बनाने के मिशन को आगे बढ़ा पाता है

Rani Sahu
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