सम्पादकीय

उत्तर प्रदेश की सियासत : चुनावी दौड़ में कहां है बसपा

Gulabi
29 Jan 2022 4:35 PM GMT
उत्तर प्रदेश की सियासत : चुनावी दौड़ में कहां है बसपा
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उत्तर प्रदेश की सियासत
करीब पांच वर्ष पूर्व अपनी किताब बहनजी के तीसरे और आखिरी संस्करण में मैंने इसके उपशीर्षक द पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ मायावती (मायावती की राजनीतिक जीवनी) को बदलकर द राइज ऐंड फॉल ऑफ मायावती (मायावती का उत्थान और पतन) कर उनके राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी की थी।
वह और उनके सहयोगी इससे नाराज हो गए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई जानकारों ने भी महसूस किया कि मैंने एक ऐसी नेता के राजनीतिक सफर के अंत की घोषणा कर जोखिम उठाया है जिन्होंने अतीत में कई बार हार के जबड़ों से जीत छीनी थी। हालांकि, मैं न केवल राज्य और संसदीय चुनावों में उनकी बार-बार की हार, बल्कि पिछले पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश के तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए आश्वस्त था कि बहनजी और उनकी पार्टी निर्णायक रूप से गिरावट की ओर हैं और उनका पुनरुत्थान किसी चमत्कार से कम नहीं होगा।
यह सच है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो दस सीटें हासिल करने में सफल रही थीं, पिछले लोकसभा चुनाव के लिहाज से यह बड़ी सफलता थी, क्योंकि तब उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी। लेकिन यह संभव हुआ था समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोटों के बसपा उम्मीदवारों को हस्तांतरण से। तब हताशा से घिरी मायावती और यादव परिवार के झगड़े की वजह से संकट में घिरे अखिलेश यादव ने हड़बड़ी में गठबंधन किया था।
नुकसान तो समाजवादी पार्टी को हुआ था, लेकिन बहनजी ने अचानक गठबंधन तोड़ दिया। कहा जाता है कि उन्होंने कथित तौर पर भाजपा के ताकतवर गृह मंत्री अमित शाह के दबाव में ऐसा किया। लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती राजनीतिक रूप से उदासीन रही हैं। वह बेबसी के साथ देखती रहीं कि कैसे 403 सदस्यों वाली मजबूत विधानसभा से उनके 19 विधायकों में से 13 समाजवादी पार्टी में चले गए। एक समय उनके बेहद करीबी राजनीतिक सहयोगी रहे स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और नसीमुद्दीन सिद्धिकी ने तो पहले ही उनका साथ छोड़ दिया था।
पिछले कुछ वर्षों में राज्य की राजनीति में मायावती की आधी-अधूरी भागीदारी, यहां तक कि उत्तर प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं पर उनकी चुप्पी से यही महसूस किया जाता है कि एक समय की मुखर दलित नेता ने या तो अपना प्रभाव खो दिया है या फिर केंद्र और राज्य की सत्ता के आगे समर्पण कर दिया है। एक वयोवृद्ध दलित कार्यकर्ता, जिन्होंने पिछले तीन दशकों में बसपा के लिए प्रचार किया है, बसपा की इस हालत से मायूस होकर कहते हैं, बहनजी हमें हर परिस्थिति से लड़ने के लिए प्रेरित करती थीं, चाहे चुनौती कितनी ही बड़ी क्यों न हो।
मगर पिछले कुछ वर्षों से ऐसा लगता है कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रुचि खो दी है। वह यहां तक कहते हैं कि भाजपा में शामिल हुए पूर्व बसपा सदस्यों में पिछले छह महीने से बेचैनी देखी जा रही थी। उस समय यदि मायावती ने स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता को पार्टी में वापस आने के लिए राजी कर लिया होता, तो यह संदेश जाता कि वह वाकई भाजपा से लड़ना चाहती हैं। मगर उनके बजाय अखिलेश पूर्व बसपा नेताओं को अपने साथ जोड़ने में सफल हो गए। मायावती की ज्यादातर मुश्किलें जमीन पर मौजूद राजनीतिक सच्चाइयों से नाता तोड़ने से उपजी हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह अब जमीनी स्तर के दलित कार्यकर्ताओं के संपर्क में नहीं हैं।
बसपा के उत्थान और पतन के लिए एक तथ्य और जिम्मेदार है, वह है ब्राह्मणों से मिला समर्थन और उसकी वजह से हुआ नुकसान। तथ्य यह है कि इसकी वजह से बसपा से अन्य पिछड़ी जातियां और गैर जाटव दलित दूर होते गए हैं, जिन्हें कांशीराम ने बहुजन समाज के जमीनी कार्यकर्ताओं के रूप में जोड़ा था। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के ऐन समय मायावती की राजनीतिक चमक कांग्रेस की तरह धुंधली और फीकी पड़ गई है। ऐसा लगता है कि बसपा और कांग्रेस में होड़ इस बात की है कि तीसरे स्थान पर कौन रहेगा, क्योंकि यहां अब योगी आदित्यनाथ को सीधी चुनौती अखिलेश यादव के नेतृत्व वाले गठबंधन से मिलती दिख रही है।
अमर उजाला
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