सम्पादकीय

नारों की राजनीति

Rani Sahu
13 Oct 2022 7:06 PM GMT
नारों की राजनीति
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चुनाव की पावन बेला में पार्टियां नए से नए नायाब नारे खोजने में लगी है। हालांकि शहरी मतदाता तो नारों का जमीनी सच जानने लगा है, परंतु पहले नारों से चमत्कार होता रहा है इसलिए इनकी प्रासंगिकता को दरकिनार करना उनके लिए संभव नहीं हो पा रहा है। सत्तर के दशक में 'गरीबी हटाओ' के सहारे कांग्रेस दो दशक तक राज करती रही, वैसे भाजपा शाइनिंग इण्डिया से डर कर नारों से बचती रही है, परंतु इस बार उसे लग रहा है कि वह सत्ता के बहुत करीब है, इसलिए चुनाव में नारों की बघार देकर जनमानस को भरमा दिया जाए तो 272 में वह कामयाब हो सकती है। इसलिए उसने 'अब की बार-मोदी सरकार' का नारा दिया है। 'आप' ने भ्रष्टाचार का एकालाप सुर पकड़ रखा है तथा साथ में बढ़ती महंगाई से भी मतदाता को डराकर अपने फेवर में करने की कोशिश की है। वामपंथ भी महंगाई को ही मुद्दा बना रहा है। मुझे महंगाई वाले मुद्दे से यह गंध आने लगी है कि महंगाई कम करने का नारा देने वाले क्या मतदाताओं के घरों में दोनों वक्त खाने का टिफिन पहुंचाएंगे या राशन पानी बिल्कुल मुफ्त कर देंगे। सपा को नारों की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि उसे अपने बाहुबल पर विश्वास है। ये कोई राजी-खुशी नहीं मानें तो लात-घूंसों से उसकी अक्ल खोल सकते हैं तथा अपने पक्ष में मतदान भी। इधर बिहार और यू.पी. के साथ महाराष्ट्र के क्षेत्रीय दल भी कमोबेश रूप से इसी विचारधारा दस-पांच सीटें समेट लेते हैं। बसपा के पास दलित कार्ड है व जातिवाद के सहारे ही अपनी राजनीतिक वैतरणी पार लगाती रही है। आरजेडी के पास परिवारवाद का नारा है। इस बार तो घरवाले ही एक-दूसरे के विरोध में ताल ठोक रहे हैं। चुनाव में एक ही बात सभी दलों में कॉमन रूप में दिखाई देती है कि सारे अवगुणों के बावजूद हमारे संविधान की मूल आत्मा सेकुलररिज्म का नारा फूंकते रहते हैं।
कोई दल यह नहीं कहता कि फलां जगह जो दंगा हुआ था, वह उसने करवाया था। हां, आरोपों की राजनीति चलती रहती है। वोटों के धु्रवीकरण के लिए दंगा आवश्यकता बन गया है। हालांकि दंगे का नारा कोई दल नहीं देता, लेकिन साम्प्रदायिकता भडक़ा कर ये ही सेकुलर दल अपना-अपना लोकतंत्र मजबूत करते हैं। यही कारण है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र एब्रोड में फूहड़ मजाक के रूप में जाना जाता है। हमें इसकी जरा भी परवाह नहीं है। ये नारों के परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप हैं। लाशों पर राजनीति करना अथवा उसकी आग में अपनी सियासती रोटी सेंकना हमारे यहां यह परम्परा खूब फल-फूल रही है और यही नारों का जमीनी सच है। नारे कितने भी लुभावने हों, लेकिन वे भी चुनावी घोषणा-पत्रों की तरह धूल चाटते रहतेे हैं। कुछ लोग अब यह भी कहने लगे हैं कि नारों से कुछ नहीं होता, वे शायद यह नहीं जानते कि हमारा अस्सी प्रतिशत ग्रामीण मतदाता, निशक्त, निरक्षर और निरापद है और वह इनके भुलावे में आकर अपना मतदान कर देते हैं। वे सोचते हैं रोटी सस्ती होगी, खाद सस्ती होगी और उनका जीवन अमुक दल खुशहाल बना देगा, वे मतदान करते हैं। नारों के मारे भारतीय ग्रामीण मतदाता को कौन समझाए नारों की जमीनी हकीकत को, क्योंकि अपर मिडिल क्लास को तो पॉलिटिक्स की जुगाली से ही फुरसत नहीं है। इसी उपेक्षा भाव से राजनेता जनधन में घपला-घोटाला करके चुनावों में प्रभुत्व बनाए रखते हैं।
By: Divyahimachal

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

Rani Sahu

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