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Kumar प्रशांत
by Lagatar News
बिहार फिर केंद्र में है. दिल्ली में बिहार को संदेह की गहरी नजरों से देखा जा रहा है और उसी दिल्ली में, उसी बिहार को संभावनाओं की सावधान नजरों से भी देखा जा रहा है. बिहार जब भी दिल्ली का केंद्र बनता है, खतरे का एक चौखटा बन जाता है. नीतीश-तेजस्वी के समीकरण ने वैसा ही एक चौखटा रच दिया है. क्या यहां से हमारी राजनीति को नया मोड़ लेने जा रही है ? खोजने वाले इस समीकरण में वह सारा अर्थ खोज रहे हैं, जो वहां है ही नहीं. दरअसल वहां कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है. अर्थहीन राजनीतिक माहौल में अर्थ की तलाश या तो कोई मूर्ख कर सकता है या फिर कोई उद्भट ज्ञानी! सामान्यत: हम सब इन दोनों श्रेणियों में नहीं आते हैं, लेकिन अर्थवान राजनीति के पुरोधा लोकनायक जयप्रकाश ने कभी इस राजनीति के लिए कहा था 'यह राजनीति तो गिर रही है, अभी और भी गिरेगी, टूटेगी-फूटेगी, छिन्न-भिन्न हो जाएगी और तब उसके मलबे से एक नयी राजनीति का उदय होगा, जो दरअसल राजनीति होगी ही नहीं; वह होगी लोकनीति!'
हर सत्ताधारी की मुख्य प्रेरणा अपनी सत्ता का संरक्षण ही होती है और हर राजनीतिज्ञ अपने से ऊपर वाले पायदान का आकांक्षी होता है. आपमें ये दोनों वृत्तियां न हों तो इस खेल में आपके बने रहने का कोई औचित्य नहीं है. इसलिए जो लोग नीतीश कुमार पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने अपनी गद्दी बचाने के लिए यह किया है, या कि जो यह रहस्य खोल रहे हैं कि नीतीश राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखते हैं, वे फटा ढोल पीटने की व्यर्थ कोशिश कर रहे हैं. क्या वे ऐसा कहना चाह रहे हैँ कि सत्ता की राजनीति में नीतीश कुमार को उद्धव ठाकरे बन कर रहना चाहिए था कि आप कुर्सी पर बैठे रहें और सारा खेत कोई और चर जाए? अगर नहीं तो नीतीश को यह श्रेय देना ही होगा कि वे अल्पमत की अपनी सरकार चलाते हुए भी वे इतने सजग थे कि उनका खेत चरने की कोशिश हो, इससे पहले ही उन्होंने फसल काट ली. भारतीय जनता पार्टी का सारा रोना तो यही है न कि वह काट पाती इससे पहले नीतीश ने कैसे फसल काट ली? अपनी हर राजनीतिक अनैतिकता व बेईमानी को सफल रणनीति घोषित करने वाली पार्टी सदमे में है कि उसे उसके ही खेल में किसने कैसे मात दे दी!
फलता के छूंछे क्रोध में यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा पालते हैं, या कि सुशील- 'छोटे मोदी'- ने कटाक्ष किया कि वे तो उप-राष्ट्रपति बनना चाहते थे! तो क्या छोटे मोदी ने पटना से दिल्ली का सफर बिना राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के किया है? महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हुई या नहीं हो पा रही है, यह अलग बात हुई, लेकिन दौड़ तो उनकी भी वही है न! याद कीजिए तो याद आएगा कि बड़े मोदी ने तो गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए, गांधीनगर में एक नकली लाल किला बनवाया था और स्वतंत्रता दिवस पर, उस नकली लाल किला की नकली प्राचीर से राज्य को – राष्ट्र को – नकली प्रधानमंत्री के रूप में संबोधित कर अपनी कुंठा व अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की घोषणा की थी. तब भारतीय जनता पार्टी में से भर्त्सना की कोई आवाज नहीं उठी थी, बल्कि बाद में हमने देखा कि सारी पार्टी नकली प्रधानमंत्री के सामने नतमस्तक हो गई. जो नहीं हुए, वे भू-लुंठित नजर आए. नीतीश कुमार लगातार कह रहे हैं कि उनकी कुछ बनने की महत्वाकांक्षा नहीं है. हम चाहें तो कहें कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को छिपा रहे हैं, लेकिन कोई ऐसा कैसे कह सकता है कि ऐसी महत्वाकांक्षा रखना अनैतिक है? राजनीति महत्वाकांक्षा के ऐसे ही ईंधन से चलती है.
अब बिहार बोल रहा है. उसने दो बातें साफ-साफ कही हैं : पहली यह कि नीतीश-तेजस्वी का गठबंधन रातोरात नहीं बना है. इसकी लंबी, बारीक प्रक्रिया चली है और सब कुछ तय करने के बाद ही भाजपा के पैरों तले से जमीन खिसकाई गई है. मतलब साफ है कि यह गठबंधन जब तक बना व टिका रहेगा, भाजपा के लिए सस्ता-सुंदर व टिकाऊ गठबंधन बनाना मुश्किल होगा. दूसरी बात जो नीतीश कुमार ने कही, वह आगे की तस्वीर बनाती है. 'जो 2014 में आए थे, वे 2024 में रह सकेंगे क्या ?' यह आवाज पहली बार उठी है. 2014 में, दिल्ली पहुंचने के बाद 'हम तो यहां से जाएंगे ही नहीं, 'हम तो अगले 20-30 सालों तक राज करेंगे'की इतनी धूल उड़ाई गई कि विपक्ष इनके जाने की बात करना ही भूल गया था. नीतीश ने फिर से वह बात जिंदा कर दी है.
बोलते राहुल गांधी भी रहे हैं, अशोक गहलोत व भूपेश बघेल भी, लेकिन उनकी आवाज में वह गूंज नहीं थी जो अब बिहार से पैदा हो रही है; और जिसकी अनुगूंज पूरे देश में सुनाई दे रही है. यह गूंज मोदी-शाह के दांव से उनको ही मात देने की गूंज भर नहीं है, बल्कि लंबी चुप्पी के टूटने की गूंज है.
Rani Sahu
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