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- सत्ताओं की सियासत
पता नहीं कब से, कलेजे का पूरा जोर लगाकर हम चिल्लाते रहे हैं : आवाज दो, हम एक हैं, लेकिन हम एक नहीं हुए! वे कोई आवाज नहीं लगाते, जुलूस नहीं निकालते, लेकिन समय पडऩे पर इस तरह एक होते हैं कि समय भी हक्का-बक्का रह जाता है। श्रीलंका के अपराधी, अपदस्थ, अपमानित व भगोड़े राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे तब अपना देश छोड़ भागे जब सारा देश जल रहा था और उनकी बनाई सारी व्यवस्था ध्वस्त पड़ी थी। यह वैसा दौर था जिसमें कोई देशभक्त देश छोडक़र भाग नहीं सकता। उसका भागना ही प्रमाणित करता है कि वह और कुछ भी हो, देशभक्त तो नहीं है। देशभक्त होगा तो अपने मन-प्राणों का पूरा बल जोडक़र हालात को संभालने की कोशिश करेगा और इस कोशिश में होम होना ही बदा हो तो वही स्वीकार करेगा, लेकिन गोटाबाया की देशभक्ति ने उसे भागने का रास्ता दिखाया। भागने से पहले वह गायब हो गया था, क्योंकि श्रीलंका की सडक़ों पर, सरकारी इमारतों पर, राष्ट्रपति भवन पर नागरिकों का कब्जा हो गया था। नागरिक यानी 'लोक' जिनसे श्रीलंका का ही नहीं, सारी दुनिया का लोकतंत्र बनता है। लोकतंत्र की शोकांतिका यह है कि वह बनता लोक से है, चलता तंत्र से है। चलाने वाले वेतनभोगी बड़े-छोटे हर कर्मचारी को अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि वे हैं तो राष्ट्र है। इसलिए जब कभी लोक अपनी हैसियत बताने सामने आता है, तंत्र के होश उड़ जाते हैं।
By: divyahimachal