सम्पादकीय

सियासत का सलीका

Subhi
1 April 2022 3:58 AM GMT
सियासत का सलीका
x
जनतंत्र की खूबसूरती यही है कि उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मिल कर नीतिगत फैसले करते हैं। अगर विपक्ष न हो तो सत्तापक्ष को निरंकुश होते देर नहीं लगती। मगर इस तकाजे को शायद आज के राजनेता भुला चुके हैं।

Written by जनसत्ता: जनतंत्र की खूबसूरती यही है कि उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मिल कर नीतिगत फैसले करते हैं। अगर विपक्ष न हो तो सत्तापक्ष को निरंकुश होते देर नहीं लगती। मगर इस तकाजे को शायद आज के राजनेता भुला चुके हैं। पिछले कुछ सालों में अक्सर सत्ता पक्ष की कोशिश देखी जाती है कि वह विपक्ष को धकिया कर अपने फैसले लागू करा दे। इसी के चलते संसद से लेकर तमाम विधानसभाओं में संघर्ष और विरोध प्रदर्शन की नौबत आए दिन आ जाती है। अब तो स्थिति यह है कि सत्तापक्ष अगर सदन में बहुमत में है तो उसके नेता विपक्षियों को बलपूर्वक और हिंसक तरीके से रोकने का प्रयास करते हैं। वे अपने किसी गलत कदम के विरोध में विपक्ष की बात सुनने को तैयार नहीं होते।

इसके कई उदाहरण हाल में देखने को मिले। पश्चिम बंगाल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्षी नेताओं के बीच हाथापाई इसी का नतीजा थी। पिछले दिनों वहां के रामपुरहाट में हुई हिंसा में आठ लोग जल कर मर गए। उसी के विरोध में विपक्षी दलों ने सदन में जवाब मांगा, तो सत्तापक्ष के नेता हिंसक हो उठे। उस घटना से सबक नहीं लिया गया और दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के हंगामा करने पर उसके नेताओं को सुरक्षाकर्मियों के जरिए धकिया कर बाहर कर दिया गया। यही हाल दिल्ली नगर निगम की बैठक में भी रहा। वहां सत्तापक्ष और विपक्ष के पार्षद इस कदर गुत्थम-गुत्था हुए कि एक दूसरे के कपड़े तक फाड़ डाले।

हालांकि कुछ मौकों पर पहले भी जनप्रतिनिधियों ने सदन में हिंसक व्यवहार किया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियां फेंकने का दृश्य आज भी लोगों की जेहन में बना हुआ है। जम्मू-कश्मीर, बिहार आदि विधानसभाओं में भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। मगर पश्चिम बंगाल और दिल्ली की घटनाओं ने एक बार फिर रेखांकित किया है कि क्या अब लोकतंत्र में विपक्ष की जगह खत्म करने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है।

क्या राजनीति में अब हिंसा के जरिए अपनी बात मनवाने का पर यकीन बढ़ रहा है। क्या अब तर्कपूर्ण और शालीन तरीके से बात कहने के दिन खत्म हो रहे हैं। किसी आरोप या असहमति का जवाब अब मारपीट से ही दिया जाएगा। अगर राजनेताओं को लोकतांत्रिक तरीके में थोड़ा भी यकीन होता, तो शायद दिल्ली के मुख्यमंत्री के एक बयान पर विपक्षी कार्यकर्ता वैसी हरकतें नहीं करते, जो उन्होंने उनके घर के दरवाजे पर जाकर किया।

सार्वजनिक जीवन में जनप्रतिनिधियों का आचरण बहुत मायने रखता है। अगर कोई बड़ा नेता अलोकतांत्रिक आचरण करता है, तो उसका असर पार्टी के नीचे वाले सारे नेताओं पर पड़ता है। वे उसे सही मान कर दोहराना शुरू कर देते हैं। अब सदनों में कैमरे लगे हुए हैं, जिनके जरिए कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण होता है। अगर वहां भी नेता संयम और शालीनता नहीं बरत पा रहे, तो बाहर उनसे क्या उम्मीद की जाए।

उसकी प्रतिक्रिया फिर सड़कों पर उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं में और भद्दे रूप में प्रकट होती है। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप, सहमति-असहमति कोई गलत बात नहीं है, मगर उसे प्रकट करने का अशालीन तरीका शायद ही कोई पसंद करे। अगर किसी को किसी बयान से असहमति है, तो उसका तार्किक ढंग से जवाब देना होता है, न कि हाथापाई करके। असहमतियों पर संयम नेताओं का पहला गुण माना जाता है। राजनीति तो क्या, हिंसा की जीवन में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।


Next Story