सम्पादकीय

राजनीति की नई सत्ताशाही

Rani Sahu
25 Aug 2021 6:29 PM GMT
राजनीति की नई सत्ताशाही
x
नारायण राणे-उद्धव ठाकरे मल्ल-युद्ध का पहला दौर बराबरी पर छूट चुका है, और दोनों सेनाएं अपने-अपने घाव सहलाते हुए अपने तंबुओं में लौट गई हैं

कमर वहीद नकवी। नारायण राणे-उद्धव ठाकरे मल्ल-युद्ध का पहला दौर बराबरी पर छूट चुका है, और दोनों सेनाएं अपने-अपने घाव सहलाते हुए अपने तंबुओं में लौट गई हैं, मगर यह हमारे यहां चल रही राजनीति का एक और विद्रूप उदाहरण है। जी, आपने बिल्कुल सही पढ़ा। मैंने राजनीति ही लिखा है। पिछले पचास बरसों से लोकतंत्र की तमाम मर्यादाओं को लांघते-तोड़ते, बेशर्मियों के नित नए मानक स्थापित करते हुए अब हम उस मुकाम पर आ पहुंचे हैं, जहां अनीति हमारी नई शिरोमणि है और नीति की बात करना या मर्यादा के भीतर रहना परले दर्जे की मूर्खता! यह अनीति अब हमें जीवन के लगभग हरेक क्षेत्र में बेलगाम दिख रही है, रोजमर्रा की राजनीति हो, अपने प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध सत्ता का दुरुपयोग हो, जन-विरोध के हर स्वर को किसी भी सीमा तक प्रताड़ित करना हो, झूठे नैरेटिव हों, मीडिया हो और हमारा सामाजिक विमर्श हो, अब मर्यादा की कोई रेखा हमें वह सब करने से नहीं रोकती, जो हमें कतई नहीं करना चाहिए।

इसमें कोई दो राय नहीं कि नारायण राणे की गिरफ्तारी किसी भी तरह जायज नहीं ठहराई जा सकती। बेशक राणे की टिप्पणी बेहद अशोभनीय थी और इसके लिए उनकी आलोचना, निंदा होनी चाहिए। इससे भी ज्यादा गलत यह है कि राणे अपने कहे को बिल्कुल गलत मानने को तैयार नहीं थे। अगर भावावेश में कुछ गलत बोल दिया, तो क्षमा मांग लीजिए, अपने शब्द वापस ले लीजिए। इसमें क्या दिक्कत है? लेकिन राणे इतनी शालीनता भी दिखाने को तैयार नहीं थे। आखिर वह भी उसी शिवसेना संस्कृति की ही तो उपज हैं, जो तमाम कानून-व्यवस्था को अंगूठा दिखाते हुए बाहुबल की राजनीति की जननी रही है। अचंभा इस बात का है कि उद्धव ठाकरे और उनकी शिवसेना इस बात से तो बडे़ उत्तेजित हो गए कि एक केंद्रीय मंत्री ने उनके मुख्यमंत्री के प्रति अभद्र बात कैसे कह दी, लेकिन उन्हें यह क्यों नहीं याद आया कि खुद उद्धव ठाकरे ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को इंगित करके कितनी अशालीन बात की थी?
मामला सिर्फ शब्दों का नहीं है। राजनीतिक गाली-गलौज सुनते-सुनते तो हम काफी पहले से इसके आदी हो चुके हैं, लेकिन बात अब उससे बहुत आगे बढ़ चुकी है। राणे के मामले को हम अगर अब भी खतरे की घंटी नहीं मानेंगे, तो यकीनन हम अपने पूरे राजनीतिक इकोसिस्टम के लिए एक निराशाजनक भविष्य तैयार कर रहे होंगे। सवाल यही है कि राणे ने अभद्र भाषा इस्तेमाल की, तो उनकी तीखी भत्र्सना की जा सकती थी, बीजेपी की घेराबंदी कर दबाव बनाया जा सकता था कि वह राणे को अपने शब्द वापस लेने के मजबूर करे। पर ऐसा न करके ठाकरे सरकार ने राणे को गिरफ्तार कर लिया। यह सत्ता की शक्ति का मनमाना व शर्मनाक दुरुपयोग है। राणे और ठाकरे के बीच मनमुटाव का लंबा इतिहास है। केंद्र में मंत्री बनने के बाद से राणे लगातार उद्धव ठाकरे पर हमलावर थे। जैसे ही मौका मिला, ठाकरे सरकार ने राणे को धर दबोचा। जाहिर है, उद्धव सरकार ने ऐसा करके राणे को तो यह संदेश देने की कोशिश की ही कि वह किसी सीमा तक जा सकती है, साथ ही, केंद्र को भी अपनी त्योरियां दिखाई हैं कि शिवसेना दबने और डरने वाली नहीं है।
केंद्र और महाराष्ट्र सरकार के बीच टकराव का यह पहला मामला नहीं है। हाल के दिनों में लगातार कई मामलों में केंद्र और महाराष्ट्र सरकार के बीच भीषण टकराव हुए, दोनों ही सरकारों ने एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, जिसमें अंतत: राज्य का पुलिस तंत्र और केंद्र की जांच एजेंसियां एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी नजर आईं, वे एक-दूसरे की जांच को फर्जी साबित करने में जुटी रहीं। जाहिर है, इससे पुलिस और जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता ध्वस्त हो गई, लेकिन किसने इसकी परवाह की? हाल के विधानसभा चुनावों से पहले और बाद में लगभग यही कहानी पश्चिम बंगाल में दोहराई गई। राजनीतिक विरोधियों को घेरने, डराने-धमकाने और पाला बदलवाने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों को काम में लगाया गया, तो तृणमूल कांग्रेस के सत्ता पर काबिज होने के बाद पश्चिम बंगाल में बीजेपी समर्थकों के खिलाफ बडे़ पैमाने पर हुई हिंसा सत्ता के बेहिचक दुरुपयोग का उदाहरण है। यह बड़ी चिंता की बात है कि अपने-अपने एजेंडे को लेकर पुलिस और जांच एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल एक 'न्यू नॉर्मल' की तरह स्थापित होता जा रहा है। हम आए दिन देखते हैं कि कैसे कुछ खास मौकों पर कुछ लोगों के खिलाफ जांच की मिसाइलें दगनी शुरू होती हैं। सबको पता है कि ऐसा क्यों होता है?
नई सत्ताशाही का यह 'न्यू नॉर्मल' यहीं आकर थमता नहीं है। हाल के कुछ वर्षों में हम लगातार देख रहे हैं कि कैसे चुटकियां बजाते ही देशद्रोह और यूएपीए मामलों में धड़ाधड़ मुकदमे दर्ज हो रहे हैं। मुकदमे अदालतों में टिक पाएंगे या नहीं, आरोप साबित हो पाएंगे या नहीं, इसकी किसे फिक्र है, क्योंकि अदालत से मामला निपटते-निपटते तो बरसों लगेंगे। एजेंडा अपराध साबित करना है ही नहीं, बल्कि मंशा बस जेल की हवा खिलाना है, जहां तक संभव हो सके। अब हालत यहां तक हो गई है कि अक्सर ऐसी खबरें आने लग गई हैं कि किसी पत्रकार ने किसी स्थानीय भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ किया, तो उसे किसी फर्जी मामले में फंसा दिया गया। राजनीतिक पतन की कहानी सरकारें गिराने-बनाने के खेल से शुरू होकर आपातकाल लगने के पहले और उसके बाद के दौर से होते हुए अब इस पड़ाव पर है। शुरुआती दिनों में सत्ता के लिए भ्रष्टाचार को हमने अनदेखा किया, चुनाव जीतने के लिए माफिया सरगनाओं की मदद ली गई, फिर अपराधी ही चुनाव लड़ने लगे। फिर सांविधानिक संस्थाओं में भर्ती की मर्यादाएं टूटीं, रिटायरमेंट के बाद लॉलीपॉप का खेल हुआ। जब सुप्रीम कोर्ट को चिंता होने लगे कि संसद में जरूरी और पूरी चर्चा के बिना विधेयक पास होते जा रहे हैं, जिनमें तमाम खामियां रह जाती हैं, तो यह क्या बताता है? राजनीति की यह जो नई सत्ताशाही हम अपना रहे हैं, वह धीरे-धीरे सिस्टम की एक-एक तीली को ढीली करती जा रही है। एक बड़े सिस्टम की तीलियां ढीली होने का मतलब आप समझते ही होंगे। जरा सोचिए कि यह सिलसिला अगर यहीं नहीं रुका, तो आगे हमारी मर्यादा की कौन-कौन सी दीवारें ढहेंगी?


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story