सम्पादकीय

राष्ट्रीय वर्चस्व की राजनीति

Gulabi Jagat
9 Aug 2022 4:31 AM GMT
राष्ट्रीय वर्चस्व की राजनीति
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राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति
By: divyahimachal
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की चुनावी, राष्ट्रीय राजनीति को कोई गंभीर चुनौती नहीं है। राष्ट्रीय राजनीति में उनका वर्चस्व आज भाी बरकरार है, बेशक कोई कितना भी चीखता रहे! उपराष्ट्रपति चुनाव का परिणाम भी एकतरफा रहा। राष्ट्रपति चुनाव की तरह बीजद, वाईएसआर कांग्रेस, अकाली दल, बसपा और कुछ छोटे दलों ने उपराष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा-एनडीए उम्मीदवार जगदीप धनखड़ का समर्थन किया। उन्हें लबालब वोट दिए। ये दल न तो भाजपा के राजनीतिक सहयोगी हैं और न ही एनडीए के घटक हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में बिखरे और असमंजस वाले विपक्ष के बजाय वे प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के साथ खड़े रहे हैं। राज्यसभा में किसी गंभीर और संवेदनशील बिल को पारित कराने में भी इन दलों ने सत्तारूढ़ पक्ष को समर्थन दिया है। उच्च सदन में भाजपा का अभी पूर्ण बहुमत नहीं है। हालांकि क्षेत्रीय और स्थानीय राजनीति में भाजपा, खासकर ओडिशा और आंध्रप्रदेश में, बीजद और वाईएसआर कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी पार्टी रही है, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति का आकलन अलग दृष्टिकोण के साथ किया जाता रहा है। उपराष्ट्रपति चुनाव से एक बार फिर साबित हो गया कि विपक्ष में तालमेल के बजाय बिखराव ज्यादा है। महागठबंधन की कल्पना तो 'दिवास्वप्न' है। विपक्षी दल राजनीतिक मानस के आधार पर अलग-अलग बंटे हैं।
उपराष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का बहिष्कार समझ के परे रहा। ममता ने यह निर्णय इसलिए लिया, क्योंकि कांग्रेस की पुरानी, अप्रासंगिक नेता मार्गरेट अल्वा की उम्मीदवारी तय करते हुए उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया। यह राजनीति और समीकरण ममता भी जानती थीं कि उपराष्ट्रपति चुनाव में भी विपक्षी चुनौती महज 'प्रतीकात्मक' थी। देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए चुनाव का बहिष्कार एक गंभीर राजनीतिक अपराध है। सिर्फ सांसदों को ही वोट देने थे, लिहाजा तृणमूल के 34 सांसदों का बहिष्कार बेमानी रहा। कमोबेश दलों और नेताओं को अपने संवैधानिक और संसदीय कत्र्तव्य-बोध का एहसास होना चाहिए। परोक्ष रूप से तृणमूल ने उपराष्ट्रपति के निर्वाचन का बहिष्कार किया। बहरहाल सवाल और संदेह विपक्षी लामबंदी पर किए जा रहे हैं। 2024 के आम चुनाव में करीब 20 महीने शेष हैं। विपक्ष को जोडऩे और प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती पेश करने के, हालांकि, कोई भी प्रयास नहीं किए गए हैं। यदि ममता बनर्जी और के. चंद्रशेखर राव की उछल-कूद को ही प्रयास माना जाए, तो वे धूल में लाठी भांजने के समान हैं। सबसे गौरतलब और चिंतित यथार्थ यह है कि आज भी विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत और पार्टी कांग्रेस ही है। ममता, चंद्रशेखर राव, स्टालिन सरीखे विपक्षी नेताओं की आवाज़ अपने प्रभाव के राज्यों के बाहर रूंधने लगती है। उनके आह्वान गूंगे-बहरे साबित होने लगते हैं। नतीजतन राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा का वर्चस्व बार-बार चुनौतीहीन लगता है। हकीकत भी यही है, बेशक सत्तारूढ़ पक्ष के सामने ढेरों समस्याओं के सवाल मौजूद हैं।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का निर्वाचन भी प्रधानमंत्री मोदी का 'मास्टर स्ट्रोक' सा है। पहली बार कोई ओबीसी नेता इस पद पर चुना गया है। यह चयन देश के करीब 44 फीसदी समुदाय को प्रत्यक्ष तौर पर संबोधित करता है। किसान-जाट सरीखे तबके उल्लास में हैं। वैसे भी ये तबके भाजपा के विरोधी नहीं थे, लेकिन अब उन्हें ज्यादा करीब लाया जा सकेगा। कमोबेश राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उप्र, दिल्ली आदि राज्यों में यह समुदाय कई सीटों और क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका में है। राजस्थान में 2023 में चुनाव होने हैं, जहां 13 फीसदी से ज्यादा वोट जाटों-किसानों के हैं। खुद प्रधानमंत्री ओबीसी हैं, कैबिनेट में कई चेहरे इसी समुदाय के हैं, लिहाजा धनखड़ के पदासीन होने से भाजपा इस समुदाय से समर्थन मांग सकती है। यह स्वाभाविक भी है। उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति भी होते हैं। राज्यसभा में हंगामाखेज सांसदों के साथ नए सभापति का व्यवहार क्या रहता है और वह उच्च सदन की गरिमा और कार्यशीलता को कैसे पटरी पर ला सकते हैं, यह भी स्पष्ट होने लगेगा। धनखड़ 11 अगस्त को उपराष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे और सदन को संचालित करने की शुरुआत भी इसी सत्र में कर सकते हैं। दरअसल अब अग्नि-परीक्षा विपक्ष की है। वे किसानों-जाटों के पैरोकार बनकर भी मोदी सरकार को नहीं घेर सकते। उनकी एकता पहले से ही सवालिया है, लिहाजा हमें तो 2024 की राह भी भाजपा के लिए 'कारपेटी' लगनी शुरू हो गई है।
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