सम्पादकीय

Politics of Freebies : मुफ्त सुविधाएं देने के चलन पर रोक नहीं लगी तो देश के सतत विकास की प्रक्रिया कमजोर ही पड़ेगी

Rani Sahu
2 May 2022 3:27 PM GMT
Politics of Freebies : मुफ्त सुविधाएं देने के चलन पर रोक नहीं लगी तो देश के सतत विकास की प्रक्रिया कमजोर ही पड़ेगी
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मुफ्तखोरी की राजनीति को लेकर तमाम चिंता जताए जाने के बाद भी राजनीतिक दल कोई सबक सीखते नहीं दिख रहे हैैं

डा. सुधीर सिंह।

मुफ्तखोरी की राजनीति को लेकर तमाम चिंता जताए जाने के बाद भी राजनीतिक दल कोई सबक सीखते नहीं दिख रहे हैैं। आगामी विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दल लोकलुभावन घोषणाएं करने में जुट गए हैैं। यह तब है, जब हाल में पांच राज्यों के चुनावों में इसी तरह की घोषणाओं को लेकर विभिन्न स्तरों पर चिंता प्रकट की जा चुकी है और श्रीलंका के हश्र से भी सबक सीखने की बात बार-बार कही जा रही है। यह सही है कि कोरोना कालखंड में केंद्र सरकार ने भी देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया, लेकिन इसकी आवश्यकता को महामारी एवं गरीबी के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। इसी तरह गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए मोदी सरकार की ओर से आवास, शौचालय, स्वच्छ जल आदि जो सुविधाएं मुफ्त उपलब्ध कराई जा रहीं, उसकी जरूरत को भी सही संदर्भ में समझा जाना चाहिए। इन दिनों विभिन्न दलों में चुनाव जीतने के लिए मुफ्त सुविधाएं और वस्तुएं देने की होड़ हानिकारक साबित हो रही है। यह समझा जाना चाहिए कि यह खतरनाक होड़ गरीबी का उन्मूलन करने के बजाय उसे बढ़ावा देने का काम कर रही है।

देश में मुफ्तखोरी की राजनीति की शुरुआत तमिलनाडु में 2011 से हुई। तब राज्य में सरकार बनाने के बाद जयललिता ने लोगों को मुफ्त सुविधाएं और वस्तुएं बांटीं। इन लोकलुभावन मुफ्त उपहारों की बदौलत अन्नाद्रमुक तमिलनाडु की राजनीति की दशकों पुरानी स्थापित परंपरा को तोड़कर 2016 के विधनसभा चुनावों में पुन: सत्ता में लौटी। लगभग उसी समय यानी 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने भी मुफ्त सुविधाएं देने की झड़ी लगा दी और उसे विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक बहुमत मिला। आम आदमी पार्टी ने 200 यूनिट मुफ्त बिजली, पानी, डीटीसी बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा आदि प्रलोभन जनता को दिए। 2020 में हुए विधानसभा चुनावों में भी केजरीवाल सरकार ने इन्हीं लोकलुभावन वादों के बल पर पुन: सत्ता में वापसी की। इसे देखते हुए पंजाब, आंध्र, तेलंगाना और बंगाल आदि राज्य सरकारों ने इस दिशा में कदम बढ़ाए। हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी राजनीतिक दलों ने मुफ्त सुविधाओं के वादों को चुनावी घोषणापत्र में न सिर्फ जगह दी, बल्कि उन्हें प्रमुखता से प्रचारित भी किया।
पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार ने घोषणा कर दी है कि वह जुलाई से सभी परिवारों को 300 यूनिट बिजली मुफ्त देगी। तथ्य यह है कि पंजाब सरकार पर तीन लाख करोड़ रुपये का कर्ज पहले से ही है। सवाल उठता है कि इतनी कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद पंजाब सरकार इन मुफ्त सुविधाओं के लिए आवश्यक संसाधन कहां से लाएगी? यही सवाल अन्य राज्य सरकारों से भी है।
15वें वित्तीय आयोग के सुझावों के आधार पर केंद्र की ओर से राज्यों को अधिकतम संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसके बावजूद राज्यों की आर्थिक हालत नाजुक है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि राज्य सरकारें इन मुफ्त उपहारों पर अपने अधिकतम संसाधन व्यय कर देती हैं, जबकि ये संसाधन उन्हें सड़क, एयरपोर्ट, बंदरगाह, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार आदि महत्वपूर्ण सुविधाओं पर खर्च करने चाहिए। एक तथ्य यह भी है कि राज्य सरकारें लगातार चुनाव जीतने के लालच में कर वसूलने में भी सुस्त हैैं। यह राज्यों के कर्ज-जाल में फंसने का सबसे बड़ा कारण है। पंजाब में आम आदमी पार्टी सरकार एक तरफ तो मुफ्त वादों को निभाने की घोषणा कर रही है, वहीं दूसरी ओर केंद्र से 50,000 करोड़ रुपये की राशि तत्काल इसलिए मांग रही है, क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति नाजुक है।
राजनीतिक दलों का गठन देश के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करने के लिए होता है। उनके रास्ते अलग हो सकते हैं, पर सभी दलों को राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। इसमें कोई संशय नहीं कि यदि राजनीतिक दल पारदर्शी प्रशासन उपलब्ध कराते हैं तो उन्हें मुफ्त सुविधाओं का लालच देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। राजनीतिक दलों को अपनी भूमिका इस तरह निभानी चाहिए, जिससे उनका राजनीतिक प्रभाव बना रहे और देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती भी मिले। लोगों को और यहां तक कि सक्षम लोगों को भी मुफ्त सुविधाएं देने के बढ़ते चलन ने राष्ट्र की मजबूती की सतत प्रक्रिया को कमजोर किया है। सड़क, बंदरगाह, एयरपोर्ट आदि ढांचागत विकास के मामले में हम अमेरिका और चीन से काफी पीछे हैं। मोदी सरकार ने इसको गति देने का काम किया है, पर हमें इसके लिए और संसाधनों की आवश्यकता है। राज्य सरकारें इसमें सहयोग कर सकती हैैं, लेकिन उनमें अधिकांश मुफ्तखोरी की राजनीति में उलझी हैैं। इस संबंध में हमें दक्षिणी अमेरिकी देश वेनेजुएला के उदाहरण से सीख लेनी चाहिए। पिछली सदी के आखिरी दशक में तेल के बढ़ते मूल्यों से इस खनिज संपन्न देश में संपन्नता आई। उस पैसे को उत्पादक चीजों पर खर्च करने के बजाय वहां की सरकार ने जनता को मुफ्त में खाने से लेकर आवागमन आदि की सुविधाएं दीं। कुछ ही वर्षों में तेल के दामों में गिरावट के कारण वहां की अर्थव्यवस्था धड़ाम से नीचे गिरी। आज भी उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह पटरी पर नहीं आई है। वहां अराजकता सरीखी स्थिति है। श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा से भी हम सीख सकते हैं। साफ है राजनीतिक दलों को वित्तीय अनुशासन की आवश्यकता को समझना चाहिए। मुफ्त सुविधाएं देने के बजाय लोगों की क्षमता का विकास करना चाहिए। राष्ट्र के सतत विकास के लिए और भारत को अग्रणी देशों की श्रेणी में लाने के लिए इसकी गहन आवश्यकता है।
Rani Sahu

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