सम्पादकीय

दल-बदल की सियासत: आखिर कितने 'भरोसेमंद' हैं ये नए नवेले सियासी चेहरे?

Gulabi Jagat
20 May 2022 2:00 PM GMT
दल-बदल की सियासत: आखिर कितने भरोसेमंद हैं ये नए नवेले सियासी चेहरे?
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दल-बदल की सियासत
अतुल सिन्हा।
वक्त के साथ सियासत की हवा बदली है, सोच बदली है और विचारधारा शून्य हुई है। पार्टियां ब्रांड बन गई हैं। ठीक कॉरपोरेट संस्कृति की तरह जिस तरह युवाओं में बेहतर पद और पैसे के लालच में नौकरियां या कंपनी बदलने की होड़ है, वैसे ही राजनीति में भी ऐसे युवाओं को जल्दी कामयाबी और शोहरत पाने की लालसा पागल बना रही है। जाहिर है देश में भाजपा की हवा है, सत्ता की चमक दमक है, कहने को मजबूत हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा है। और तो और संघ परिवार के साथ-साथ उसके तमाम छोटे बड़े संगठनों की ताकत भी है। भीड़ बहुत है और उसमें खो जाने का खतरा भी है, लेकिन बड़ी बड़ी कंपनियों में भी तो भीड़ होती है, लेकिन वहां ट्रेनी की नौकरी पा लेना भी एक उपलब्धि मानी जाती है। माता पिता गर्व से कहते हैं कि उनके बच्चे तो फलां मल्टीनेशनल कंपनी में हैं, लाखों का पैकेज है, वगैरह-वगैरह।
जितिन प्रसाद या ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं को तो चलिए सियासत विरासत में मिली है, वो ये सारे दांव पेंच बचपन से देखते आए हैं और विचारधारा के साथ साथ महत्वाकांक्षा का गणित भी समझते हैं, लेकिन अगर कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर या हार्दिक पटेल जैसे युवाओं की बात करें तो वे एक स्वत:स्फूर्त आंदोलन से बने चेहरे हैं, जिसमें तात्कालिक तौर पर कोई जातिगत या किसी खास तबके या समाज के मुद्दे हावी रहे। उन्हें नेता बनाने में भीड़ या तात्कालिक मुद्दों की गरमाहट से उपजी ऊर्जा के साथ-साथ मीडिया या सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही। सत्ता के खिलाफ जोशीले भाषण देने और एक दौर में भीड़ को बांधने की उनकी क्षमता ने उन्हें ऐसा चेहरा बना दिया, जिसपर तमाम सियासी पार्टियों की नज़र गई और वे उन्हें अपने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिशों में लगे रहे। उसी तरह नवजोत सिंह सिद्धू ठहाके लगाते लगाते खुद ठहाके के पात्र बनते रहे, अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए पार्टियां बदलते रहे लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व की आंख पर पट्टी पड़ी रही। इन बड़बोले नेताओं ने कांग्रेस का कितना नुकसान किया है अगर इसे अब नहीं तो भला कब समझा जाएगा।
दरअसल कांग्रेस युवा नेतृत्व की तलाश करते-करते अपने घर के परंपरागत युवाओं को संभालने के बजाय इन नए मोहरों पर उसी गणित के तहत भरोसा करने लगी, जो आम तौर पर तात्कालिक फायदे के लिए लगाए जाते हैं। लेकिन ये गणित कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए लगातार नुकसान का सौदा साबित होता रहा है। आखिर क्यों कांग्रेस के उन पुराने दिग्गजों को ग्रुप 23 बनाने की जरूरत पड़ गई, आखिर क्यों वे बार-बार सोनिया गांधी को चिट्ठियां लिखकर अपना दर्द साझा करते रहे और आखिर क्यों वे न तो कांग्रेस से अलग हो पाते हैं और न ही कांग्रेस के मौजूदा ढांचे में खुद को फिट कर पाते हैं? सवाल पार्टी में अहमियत का नहीं बल्कि सवाल पार्टी की विचारधारा और भाजपा से लड़ने की खोखली रणनीति का है। उस ढुलमुल रवैये का है जो आपको किसी जमीनी संघर्ष से लगातार दूर कर रहा है और जनता से आपकी दूरी को बढ़ा रहा है।
यूपी चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी ने बड़े जोर-शोर से 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' का अभियान चलाया, खूब मेहनत की, भीड़ जुटाई लेकिन नताजे आते ही ये सारी कवायद ठंडे बस्ते में चली गई। जनता ने समझ लिया कि वह एक चुनावी हथकंडा था और बुरी तरह फेल हो गया। योगी और मोदी की आंधी में सारी मेहनत हवा हो गई। दूसरी तरफ अखिलेश यादव की पार्टी अपनी इसी कामयाबी से संतुष्ट हो गई कि जनता ने उसे नंबर दो पार्टी तो बनाया अब उनकी जिम्मेदारी महज़ एकाध बयान देकर भाजपा सरकार को नाकाम बताने के सिवा कुछ नहीं है। कांग्रेस और सपा या फिर बसपा जैसी पार्टियां सत्ताधारी पार्टी की ओर से मंदिर-मस्जिद विवाद को बढ़ाने, मुसलमानों को निशाना बनाकर उनके मनोबल को तोड़ने, नफरत का माहौल पैदा करने या किसी न किसी विवादास्पद मुद्दे को उठाने, शहरों के नाम बदलने जैसे तमाम मसलों पर खामोश रहती हैं। देश में आसमान छूती महंगाई या बेरोजगारी के सवाल तक उनके लिए खास मायने नहीं रखते। सड़कों पर उतरने से भी उन्हें डर लगता है या यूं कहें कि उनके भीतर सत्ताधारी पार्टी का आतंक इस कदर भर गया है कि ये पार्टियां सत्ताधारी पार्टी के आगे कहीं न कहीं घुटने टेकने जैसी स्थिति में दिखाई देती हैं।
इस देश में चुनाव एक सतत प्रक्रिया है। आज इस प्रदेश में तो कल किसी और प्रदेश में। सियासी पार्टियों की रणनीति भी उसी आधार पर बनती है और अपना वजूद उन्हीं में तलाशते रहने की कवायद चलती रहती है। अभी पांच राज्य निपटे तो अब इस साल और अगले साल होने वाले 11 राज्यों के चुनाव हैं। गुजरात और हिमाचल तो इसी साल हैं, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड अगले साल। जब सामने इतनी बड़ी रणभूमि है तो फिर बार-बार पांच राज्यों की हार को क्यों याद करें। आगे की रणनीति बनाएं। उदयपुर चिंतन शिविर में अगर कपिल सिब्बल नहीं आए, दो साल पहले अल्पेश छोड़ गए, और अब हार्दिक पटेल या सुनील जाखड़ भी छोड़ गए तो क्या, अभी तक कन्हैया तो बचे ही हैं, जिग्नेश भी अपने दलित अधिकार मंच के साथ कांग्रेस के समर्थक हैं ही। तमाम असंतोष के बाद भी सचिन पायलट भी रुके हुए हैं। लेकिन हवा का क्या है, कब रुख बदल ले।
कांग्रेस 137 साल पुरानी पार्टी है, खत्म तो नहीं होगी। लेकिन अगर विचारधारा और नीतियों के साथ साथ नेतृत्व को लेकर अगर स्पष्टता नहीं रहेगी, सबको जोड़कर रखने और जनता से जुड़कर धारदार संघर्ष का जज्बा नहीं होगा, भाजपा जैसी सबसे मजबूत पार्टी से लड़ने के लिए वह तत्परता या तेजी नहीं होगी, तो ऐसे चिंतन शिविरों का कोई मतलब कहां रह जाएगा। कांग्रेस को कम से कम अब अपने परंपरागत शाही अंदाज़ से बाहर आकर लड़ने और जनता का भरोसा जीतने के लिए 'सबका साथ सबका सम्मान' की नीति पर चलने की जरुरत तो है ही। वरना कॉरपोरेट संस्कृति और सियासी तोल मोल का रास्ता तो अब और प्रोफेशनल तरीके से खुल ही गया है। देश की जनता की भला किसे परवाह है।
Gulabi Jagat

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