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रियासतों ने भारतीय संघ में शामिल होने को लेकर कठोर शर्तें रखी थीं
रियासतों ने भारतीय संघ में शामिल होने को लेकर कठोर शर्तें रखी थीं. संविधान सभा की वार्ता समिति ने इस पूरी प्रक्रिया में अत्यधिक परिपक्वता का परिचय दिया. कैबिनेट मिशन योजना की बातों (मसलन आज़ाद भारत में रियासतों का स्वरुप क्या होगा? व्यवस्था किस तरह की होगी? यदि रियासतें स्वतंत्र रहना चाहेंगी, तब भारत से उनके रिश्तों का स्वरुप क्या होगा?) को मूर्तरूप देने के लिए रियासतों के प्रतिनिधियों और रियासतों के नरेशों के मंडल से वार्ता के लिए संविधान सभा ने 21 दिसंबर 1946 को वार्ता समिति का गठन किया. इसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जवाहर लाल नेहरु, वल्लभ भाई पटेल, बी. पट्टाभि सीतारमैया, शंकर देव और एन. गोपालस्वामी आयंगर शामिल थे.
संविधान सभा में यह बहस भी हुई कि इस सभा में दलितों और आदिवासियों के प्रतिनिधि भी होना चाहिए क्योंकि कई रियासतों में बहुत से दलित और आदिवासी हैं. लेकिन इस मांग को खारिज कर दिया गया, क्योंकि संविधान सभा रियासतों से जुड़े मसले को बेहद संवेदनशील ढंग से सुलझाना चाहती थी. समिति को बड़ा बना कर या वार्ता में दलित-आदिवासियों सरीखे विषय लाने से मूल उद्देश्य प्रभावित हो सकता था. पंडित नेहरु ने कहा भी था कि "यह समिति उन तमाम सवालों को हल करने के लिए नहीं है, जो रियासतों और हिन्दुस्तान के दूसरे हिस्सों में एक से हैं". फ़रवरी-मार्च 1947 में संविधान सभा और रियासतों के प्रतिनिधियों के बीच सघन वार्ताएं हुईं.
रियासतों की कठोर शर्तें
140 रियासतों के नरेशों के मंडल ने कैबिनेट मिशन की योजना को आधार बना कर 29 जनवरी 1947 को प्रस्ताव पारित किया कि "संवैधानिक वार्तालाप में शामिल होने को उनका अंतिम निर्णय न माना जाए. रियासतें अंतिम निर्णय संविधान के अंतिम चित्र को देखकर ही लेंगी. रियासतें उन सभी विषयों और अधिकार को अपने पास रखेंगी, जो भारतीय संघ को नहीं सौंपे जाएंगे. ऐसे विषयों (रक्षा, संचार और विदेश मामले) को छोड़कर सभी मामलों में रियासतों को स्वायत्तता रहेगी. इनके अलावा भारतीय संघ को कोई और शक्तियां देने का प्रश्न नहीं उठता है. ब्रिटिश सरकार से रियासतों की संधि रही है. इनके तहत रियासतों ने जो भी अधिकार ब्रिटिश सम्राट की सरकार को दिए थे, वे सभी अधिकार और सर्वोच्चता रियासतों को वापस मिल जाएंगे.
रियासतें अपना संविधान बनाएंगी, उनकी अपनी सीमा रेखा होगी और परंपरा के मुताबिक उत्तराधिकारी चुनने की व्यवस्था में भारतीय संघ कोई दखल नहीं देगा. इस प्रस्ताव में उल्लेख था कि भारत के स्वतंत्र होते ही ब्रिटिश सम्राट की सरकार और रियासतों के बीच की संधि समाप्त हो जाएगी और इसके बाद रियासतों को भारत की सरकार के साथ संघीय व्यवस्था में शामिल होकर या कोई राजनीतिक व्यवस्था बनाना होगी". नरेशों के मंडल के इस प्रस्ताव से साफ़ नज़र आता है कि रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने के लिए तैयार करना आसान आसान काम नहीं होने वाला था. इसके बावजूद संविधान सभा की समिति ने बेहद संवेदनशील ढंग से स्थिति का सामना किया.
प्रतिनिधित्व का गणित
कैबिनेट मिशन के सूत्र के मुताबिक, हर 10 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि संविधान सभा से चुना जाना था. भारत की सभी रियासतों की कुल जनसंख्या लगभग 9.3 करोड़ थी, अतः उनके लिए 93 स्थान तय किये गए. लेकिन यह भी देखा गया कि कई रियासतों की जनसंख्या बहुत कम थी. मसलन दांता की जनसंख्या 31 हज़ार, बओनी की 25.2 हज़ार, लोहारू की 27.9 हज़ार, सैलाना की 40.2 हज़ार, खिलचीपुर की 48.6 हज़ार, वांकानेर की 55 हज़ार थी. दस लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि को चुनने की स्थिति में हैदराबाद (1.63 करोड़), मैसूर (73.2 लाख) कश्मीर (40 लाख), ग्वालियर (40 लाख), बड़ौदा (28.5 लाख), त्रावणकोर (60 लाख) समेत केवल 20 रियासतें ही थीं, जहां से 60 संविधान सभा प्रतिनिधि चुने जा रहे थे. ऐसी स्थिति में छोटी रियासतों को मिलाकर 33 समूह बनाये गए.
यह काम संविधान सभा और रियासतों के नरेशों के मंडल द्वारा आपसी सहमति से किया गया. वास्तव में रियासतों के भी दो समूह थे. एक समूह नरेशों का मंडल (चैंबर ऑफ प्रिंसेस) था, जबकि दूसरी तरफ वे रियासतें थीं, जो इस मंडल में शामिल नहीं थी. इसीलिए संविधान सभा की वार्ता समिति ने चैंबर ऑफ प्रिंसेस के साथ ही अन्य रियासतों से भी वार्ता करने की निर्णय लिया था.
11 फ़रवरी 1947 को नरेशों के मंडल और संविधान सभा के सचिवालय ने मिलकर यह सूत्र निकाल लिया कि कौन-कौन सी रियासतों (जिनकी जनसंख्या कम है) के समूह बना कर प्रतिनिधियों का चुनाव किया जा सकता है. तय किया गया कि 7.5 लाख या इससे अधिक की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि चुना जा सकता है. ऐसे में सिक्किम और कूच बिहार की रियासत को मिलाकर (जनसंख्या 7.6 लाख) एक पद दिया गया, त्रिपुरा, मणिपुर और खासी राज्य को एक पद दिया गया. 156 रियासतों को मिलाकर 2.8 करोड़ की जनसंख्या पर 29 पदों का निर्धारण किया गया.
यहां से रियासतों के बीच असहमति सामने आने लगी. 5 फ़रवरी 1947 को स्टेट्स पीपुल्स नेगोशियेटिंग कमिटी की बैठक की रिपोर्ट से पता चलता है कि भोपाल के नवाब की अध्यक्षता वाला नरेशों के मंडल (चैंबर ऑफ प्रिंसेस) में 109 रियासतों का प्रत्यक्ष और 125 रियासतों का अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व था. सात बड़ी रियासतों हैदराबाद, कश्मीर, बड़ौदा, मैसूर, त्रावणकोर, कोचीन और इंदौर इससे बाहर थीं, इन सात रियासतों को ही संविधान सभा में 38 स्थान मिलने थे. ऐसे में यह समझ से बाहर था कि नरेशों का मंडल सभी रियासतों का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता था?
रियासतों के प्रतिनिधित्व (93 स्थान) का समीकरण क्या होगा? इस विषय पर दो महत्वपूर्ण पहलू उभरे. संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बी. एन. राऊ ने सुझाव दिया कि जनसंख्या आधारित प्रतिनिधित्व के सन्दर्भ में 93 में से 14 स्थान मुसलमानों को, 9 स्थान आदिवासियों को, 9 स्थान अनुसूचित जाति, 3 स्थान भारतीय ईसाइयों और 2 स्थान सिखों को मिलने चाहिए.
रियासतों के प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे हो? बड़ौदा के महाराजा शुरू से ही स्पष्ट थे कि उनकी रियासत (जिसके संविधान सभा में 3 स्थान थे) संविधान सभा में शामिल होगी और इसीलिए 7 फ़रवरी 1947 को ही उन्होंने बड़ौदा रियासत की तरफ से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों (50 सदस्यीय इलेक्टोरल कालेज के लिए हर 50 हज़ार जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि का चुनाव) में चुनाव की योजना प्रस्तुत की. इस प्रश्न पर नरेशों के मंडल ने सुझाव दिया कि कुछ प्रतिनिधि चुनाव के माध्यम से चुने जा सकते हैं और कुछ प्रतिनिधि नरेशों द्वारा मनोनीत हो सकते हैं.
नरेशों के मंडल ने 29 जनवरी 1947 को अपने प्रस्ताव में बताया था कि मंडल की 140 में 71 रियासतों में यथोचित जन प्रतिनिधित्व के साथ विधान परिषद (यानी चुनाव प्रणाली) और 66 में स्थानीय निकाय मौजूद हैं, जबकि शेष में विधान परिषद की स्थापना की प्रक्रिया चल रही है. लेकिन 24 फ़रवरी 1947 को स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस ने एक वक्तव्य के माध्यम से इस दावे को खारिज किया – "जिन 71 रियासतों में विधान परिषद होने की बात कही गयी है, उनमें से ज्यादा से ज्यादा 42 राज्यों में किसी रूप में यह व्यवस्था मौजूद है और शेष 542 में किसी भी तरह की विधान परिषद या समान व्यवस्था नहीं है. उदाहरण के लिए दतिया में विधान परिषद होने की बात कही गयी है, जबकि वहां ऐसी व्यवस्था है ही नहीं".
संविधान सभा का परिपक्व रुख
पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ और नौ फरवरी 1947 को नरेशों के मंडल और संविधान सभा की वार्ता समिति की बेहद अहम बैठकें हुईं. नरेशों के मंडल ने वार्ता को इस विषय पर ले जाने की कोशिश की कि वास्तव में रियासतों को कितनी स्वायत्तता मिलेगी और भारतीय संघ का विस्तार कहां तक होगा? वास्तव में वे 29 जनवरी 1947 के अपने ही प्रस्ताव को केंद्र बनाना चाहते थे. आठ फरवरी की शाम वार्ता टूटने की कगार पर पहुंच गयी. तब पंडित नेहरु ने स्पष्ट किया कि "ये विषय संविधान सभा की वार्ता समिति नहीं बल्कि खुद संविधान सभा ही तय कर सकती है.
उन्होंने यह भी कहा कि निःसंदेह हमारी तरफ से यह रियासतों की इच्छा पर निर्भर है कि वे संविधान सभा में शामिल योजना को स्वीकार करें या न करें! किसी पर भी कोई भी दबाव नहीं डाला जाएगा. संविधान सभा ने इस बात पर कोई निर्णय नहीं लिया है कि राजशाही व्यवस्था रहे या न रहे? संविधान सभा को इस शासन व्यवस्था के बने रहने से कोई आपत्ति नहीं है". इसके बाद एक और दो मार्च 1947 को दूसरी बार दोनों वार्ता समितियों की बैठक हुई. इन दोनों बैठकों के दौरान कूटनीतिक संवादों के जरिये रियासतों के मंडल को यह सन्देश दे दिया गया था कि यदि वे संविधान सभा में शामिल होंगे तो उन्हें अधिकार मिलेंगे, यदि शामिल नहीं होंगे तो उन्हें विशेष अधिकार नहीं मिलेंगे.
मार्च की बैठक फिर इसी विषय पर केन्द्रित रही कि रियासतें अपने 93 प्रतिनिधि कैसे चुनेंगी? इस पर एक मार्च 1947 को पं. नेहरु का सुझाव था कि कम से कम 50 प्रतिशत जनप्रतिनिधि हों और शेष किसी अन्य चुनाव पद्धति से चुने जा सकते हैं. बाद में पं. नेहरु ने ही कहा कि जनप्रतिनिधि दो तिहाई यानी 93 में से 61 होने चाहिए. रियासतें इसके लिए तैयार नहीं हुईं. लेकिन बहस चलती रही और तय हुआ कि रियासतों के 50 प्रतिशत प्रतिनिधि विधान परिषद या किसी अन्य चुनाव प्रणाली से ही चुन कर संविधान सभा में आयें.
जो प्रक्रिया अपनायी गयी उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान सभा की वार्ता समिति ने टकराव और हिंसा की हर संभावना को समाप्त करने की कोशिश की. शुरू में संविधान की वार्ता समिति ने यह भी मान लिया कि रियासतों में राजशाही जारी रह सकती है और रियासतों को ज्यादा अधिकार दिए जाएंगे. यह बेहद संजीदा और परिपक्व प्रक्रिया इसलिए मानी जाना चाहिए क्योंकि एक तरफ हिन्दू-मुस्लिम टकराव का माहौल और पाकिस्तान निर्माण की हलचल थी, तो दूसरी तरफ आज़ादी की तरफ बढ़ रही भारत की व्यवस्था रियासतों के साथ युद्ध (जो शायद आसान तरीका होता, लेकिन ब्रिटिश सम्राट को अपनी ताकत के इस्तेमाल का मौका दे देता) के जाल में उलझना अदूरदर्शिता होती.
आखिर में 28 अप्रैल 1947 को संविधान सभा में रियासतों के भारत से जुड़ाव का प्रस्ताव संविधान सभा में रख दिया गया. इसमें रियासतों के समूहों को अपने संविधान बनाने और राजशाही व्यवस्था बनाये रखने के अधिकार दिए गए. भारत को एक संघीय ढांचे में ढालने की दिशा में यह बड़ी बाधा थी. लेकिन यह तो शुरुआत थी. एक बार जब रियासतें संविधान सभा में शामिल होने लगीं, तब वाद-विवाद, संवाद और कूटनीतिक वार्ताओं के माध्यम से इन सभी विशेष व्यवस्थाओं को समाप्त करके एक समग्र भारतीय संघ का निर्माण हो गया.
संविधान सभा का स्पष्ट मत था कि रियासतों की राज व्यवस्था भी बदलना ही होगी. रियासतों के नरेश/राजा चाहते थे कि संविधान सभा के लिए अपनी रियासत के प्रतिनिधियों का चुनाव करें, जबकि संविधान सभा चाहती थी कि रियासतों के लोगों को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मिले. इस मसले पर संविधान सभा में के. एम. मुंशी ने कहा था कि संविधान सभा के सदस्य यह समझते हैं कि इस सभा में रियासत के लोगों का प्रतिनिधित्व होना चाहिये न कि रियासतों के स्वेच्छाचारी शासकों का. हमें यह बिलकुल स्पष्ट कर देना चाहिए कि हम नहीं चाहते हैं कि रियासतों के नरेश या शासक यह तय करें कि इस सभा में रियासतों का प्रतिनिधित्व किस प्रकार का हो, क्योंकि हमें भय है कि एक तो स्वैच्छाचारी शासक होने के कारण और दूसरे अंग्रेज साम्राज्यशाही की कठपुतली होने से, जिस थोड़ी सी स्वतंत्रता की हम भारत के संविधान में व्यवस्था करेंगे, उसको भी वे कम करने का प्रयत्न करेंगे".
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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