सम्पादकीय

तुष्टिकरण की सियासत

Rani Sahu
8 Sep 2021 7:05 PM GMT
तुष्टिकरण की सियासत
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चुनाव का मौसम एक बार फिर आ गया है। कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं

चुनाव का मौसम एक बार फिर आ गया है। कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। माहौल अभी से गरमाने लगा है। सबसे पहले फरवरी, 2022 में पंजाब में चुनाव होंगे। हालांकि देश के सबसे बड़े राज्य-उप्र-में मार्च-अप्रैल में चुनाव संभावित हैं, लेकिन यह राज्य ही सबसे अधिक तपने लगा है। सांप्रदायिकता की लपटें उठने लगी हैं, हालांकि धर्म के नाम पर वोट मांगना या राजनीति करना असंवैधानिक है, लेकिन संविधान की परवाह कौन करता है? संविधान की प्रस्तावना में 1975-76 में 'पंथनिरपेक्ष (सेक्यूलर) शब्द जोड़ा गया था, लेकिन देश में धर्म के बिना कोई चुनाव या सियासत संभव ही नहीं है। बल्कि स्वीकार्य नहीं है। 'धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा हिंदू बनाम मुसलमान है। बहरहाल अभी तो औपचारिक चुनाव प्रचार भी शुरू नहीं हुआ है कि सियासत सांप्रदायिक होने लगी है। धर्मनिरपेक्षता विकृत अर्थों में है। बसपा अध्यक्ष मायावती ने हिंदू-ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने के निर्देश दिए थे, जिसकी शुरुआत अयोध्या से की गई। चेतना और सोच में भगवान श्रीराम जरूर रहे होंगे! अलबत्ता मायावती की पार्टी 'तिलक, तराजू और तलवार वालों को 'जूते मारने का हुंकार भरती रही है। बसपा अयोध्या में राम मंदिर या उससे जुड़े आंदोलन की पैरोकार कभी नहीं रही। मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने राम मंदिर के कारसेवकों पर गोलियां चलवाई थीं, जिसमें 16 मासूम लोगों की मौत हो गई थी। मुलायम सिंह के साथ ही गठबंधन कर बसपा सुप्रीमो कांशीराम ने उप्र में सरकार बनाई थी। कांशीराम ही मायावती के 'राजनीतिक गुरु थे। मायावती को लगता है कि ब्राह्मण समुदाय का एक वर्ग भाजपा से नाराज़ है, लिहाजा 2007 की तरह वह बसपा को समर्थन दे सकता है! चुनावी हंडिया दूसरी बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती। लखनऊ में एक समारोह के दौरान बसपा के राज्यसभा सांसद एवं पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने 'बहिनजी को प्रथम पूज्य, विघ्नहर्ता प्रभु श्री गणेश जी की प्रतिमा भेंट की और श्रीमती मिश्र ने महादेव शिव का त्रिशूल सौंपा। माहौल में शंखनाद बजाया जाता रहा और 'हर-हर महादेव का उद्घोष गूंजता रहा। बीच-बीच में शिव-भक्त, महापराक्रमी परशुराम जी की भी 'जय बोली गई। बैठक बसपा की बजाय भाजपा या विशुद्ध पुजारियों अथवा महंत-पंडों की प्रतीत हो रही थी। हमें ऐसे धर्म-कर्म पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन राजनीतिक ढोंग के जरिए लोगों को भरमाने या उनके चुनावी तुष्टिकरण पर सख्त ऐतराज़ है। यह सब कुछ संविधान-विरोधी है।

सवाल है कि क्या इन कोशिशों और नारेबाजी से हिंदुत्व का नया उभार होगा या वह ज्यादा ताकतवर बनेगा? हिंदुओं और ब्राह्मणों का विस्तार होगा और उनकी दुनियावी समस्याओं, तकलीफों और अभावों का निराकरण हो सकेगा? बसपा जनादेश लेने के बदले जनता को क्या मुहैया कराने का वायदा कर रही है? दूसरी तरफ एमआईएम के नेता ओवैसी 'अयोध्या को 'फैज़ाबाद कहने पर ही तुले हैं, क्योंकि उसमें इस्लामी व्यंजना निहित है। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के बावजूद ओवैसी का अब भी मानना है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद थी, जिसे 'शहीद किया गया। ओवैसी ने संसद में रहते हुए और चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों की अशिक्षा, अज्ञानता, गरीबी, संकीर्णता और मुख्य धारा में बेहद कम मौजूदगी आदि पर कभी भी चिंता और सरोकार नहीं जताए। इन हालात से उबारने की कभी कोशिश तक नहीं की। वह सिर्फ मुस्लिम जमात को, अपने और पार्टी के पक्ष में, सियासी तौर पर लामबंद होने के आह्वान ही करते रहे हैं। ओवैसी की दलीलें भी ज्यादातर कट्टरपंथी होती हैं, बेशक वह 'धर्मनिरपेक्षता का ढोंंग करते रहें। झारखंड के विधानसभा परिसर में नमाज के लिए एक अलग कमरा आवंटित करना या हनुमान चालीसा के लिए भी कमरा देने जैसी मांगें 'धर्मनिरपेक्षता नहीं हैं, बल्कि 'धर्मांध सियासत है। क्या संविधान इसकी इज़ाज़त देता है? हम इसे 'कट्टरवादी मूर्खता ही मानते हैं। यह हमारे देश की शर्मनाक विडंबना ही है कि चुनावी जनादेश बेरोजग़ारी या रोजग़ार, कारोबार, अर्थव्यवस्था, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, बुनियादी ढांचे सरीखे मुद्दों पर न कभी मांगे गए हैं और न ही जनता ने दिए हैं। 'खोखले आश्वासनों का एक पुलिंदा घोषणा-पत्र के नाम पर छाप कर बांट दिया जाता है। इस पर कभी चुनाव नहीं हुआ कि वायदे कितने पूरे किए गए। चुनाव धर्म-जाति के तुष्टिकरण पर ही होते रहे हैं। जनता कसूरवार है, जिसने तुष्टिकरण के आधार पर नेता चुने हैं। सवाल है कि हमारा लोकतंत्र कब परिपक्व होगा?

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