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- राजनीति : राजाजी की...
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उसे 2020 के दशक की शुरुआत में ऐसे विपक्ष की कहीं अधिक जरूरत है।
वर्ष 1957 में जब भारतीय राजनीति में कांग्रेस का उसी तरह से आधिपत्य था, जैसा आज भारतीय जनता पार्टी का है, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने एक पार्टी के अत्यधिक प्रभुत्व के कारण लोकतंत्र को होने वाले खतरों पर एक शानदार लेख लिखा था। स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गज राजाजी कभी गांधी और नेहरू के करीबी सहयोगी थे; केंद्र और राज्य में उच्च राजनीतिक पदों की जिम्मेदारी संभाल चुके थे; मगर अपनी पुरानी पार्टी और पुराने साथियों के नेतृत्व में देश जिस दिशा में जा रहा था, उसे देखकर उनका तेजी से मोहभंग होने लगा। उन्होंने अगस्त, 1957 में इस पर एक पत्रिका में आलेख लिखा था, जो कि इत्तफाक से स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रकाशित हुआ था।
राजाजी ने लेख की शुरुआत कुछ इस तरह से की थीः 'संसदीय लोकतंत्र का सफल संचालन दो कारकों पर निर्भर करता है; पहला, सरकार के उद्देश्यों को लेकर सभी वर्गों के नागरिकों में व्यापक सहमति; दूसरा, दो दलीय प्रणाली का अस्तित्व, जिसमें प्रत्येक बड़े राजनीतिक समूह के पास सतत प्रभावी नेतृत्व हो और जब देश के अधिकांश मतदाता चाहें, तो वह सरकार की जिम्मेदारी संभाल सके।' राजाजी ने लिखा, 'यदि एक पार्टी हमेशा सत्ता में रहे, तो असंतोष असंगठित लोगों तथा अपेक्षाकृत महत्वहीन कभी एकजुट न होने वाले समूहों में रिसता रहेगा और सरकार अनिवार्य रूप से अधिनायकवादी बन जाएगी।'
तब केंद्र की सत्ता में कांग्रेस को एक दशक पूरे हो चुके थे और तकरीबन हर राज्य में वह लगातार सरकार में थी। कांग्रेस ने जिस आत्मसंतुष्टि और अहंकार के साथ आचरण किया, उसे देखते हुए, राजाजी ने लिखाः 'एक दलीय लोकतंत्र जल्द ही अच्छे-बुरे की पहचान करने की क्षमता खो देता है। वह चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख सकता या सारे पहलुओं पर गौर नहीं कर सकता। भारत की आज यही स्थिति है।'
एक पार्टी का ऐसा प्रभुत्व हो तो, राजाजी ने आगे लिखा, 'अनिवार्य रूप से यह पार्टी संसद से अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है...। नेता पार्टी की बहुसंख्यक राय के अनुरूप फैसले लेने लगेगा। इसे अधिनायकवाद का आंशिक उपशमन माना जा सकता है, लेकिन यदि नेता अपने आप में ताकतवर हो, तो ऐसा नहीं भी हो सकता और ऐसी स्थिति में पार्टी बंद दरवाजों के भीतर भी विभाजित नहीं हो सकती। और तब तानाशाही की यांत्रिकी बिना रुकावट काम करने लगेगी।'
राजाजी की यह टिप्पणी अतीत के कांग्रेस शासित भारत को लक्षित कर की गई थी। यह आज भाजपा शासित भारत में भी प्रासंगिक है। बेशक भाजपा के पास आज केंद्र में पूरा नियंत्रण है, लेकिन आज भी वह कई महत्वपूर्ण राज्यों में सत्ता में नहीं है, जिससे उसकी अधिनायकवादी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगता है। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष कमजोर और बिखरा हुआ है। और जवाहरलाल नेहरू से भी ज्यादा, नरेंद्र मोदी 'अपने आप में एक जबरदस्त ताकत' बनना चाहते हैं।
वह खुद को जिस तरह से महामानव की तरह प्रस्तुत करना चाहते हैं, उसके बारे में 1950 के दशक में कहीं दूर से भी सोचा नहीं जा सकता था। अपने गृहमंत्री की मदद से मोदी ने नेहरू से कहीं अधिक लोकतांत्रिक संस्थाओं को संगठित तरीके से कमतर किया है। छह महीने बाद राजाजी ने भारतीय लोकतंत्र की स्थिति पर दूसरा लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था, वाटेंड: इंडिपेंडेंट थिंकिग ( जरूरत है स्वतंत्र सोच की) इसमें उन्होंने तर्क दिया कि नागरिक जीवन का कोई भी सिद्धांत तब तक संतोषजनक ढंग से काम नहीं कर सकता, जब तक कि उस लोकतंत्र में नागरिक अपने लिए सोचने और न्याय करने की जिम्मेदारी न लें।
हालांकि, जैसा कि दिख रहा था, 'स्वतंत्र सोच और स्वतंत्र निर्णय के बजाय, लोगों में तोते के गुण बढ़ रहे हैं..वे अभिभावकों द्वारा निर्धारित शब्दों को बिना उनके अर्थ और उनके संभावित प्रभावों को जाने दोहराते जा रहे हैं।' ये आलोचनाएं काफी हद तक आज के भारत पर भी लागू होती हैं, क्योंकि आज स्थिति 1950 के दशक में नेहरू और कांग्रेस के लिए अनुपलब्ध संचार और लोगों को प्रभावित करने वाले साधनों की उपलब्धता के कारण और भी बदतर हो गई है।
जरा इस पर विचार कीजिए कि कैसे अखबारों में मंत्रियों और सांसदों के प्रधानमंत्री की चापलूसी में लिखे गए लेख प्रकाशित होते हैं। इस पर भी विचार कीजिए कि कैसे अंग्रेजी और खासतौर से हिंदी के टीवी चैनल सरकार की बातों को तोते की तरह दोहराते हैं, मोदी के 'छवि निर्माण' के काम में खुले दिल से जुटे हुए हैं, और इस तरह भारतीय लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं। बहुत सावधानी से तैयार किए जाने वाले उन वीडियो पर भी विचार कीजिए जिनमें प्रधानमंत्री को भगवान की तरह दिखाने की कोशिश होती है, जिनमें वह एथलीट को आशीर्वाद देते नजर आते हैं या किसी प्रोजेक्ट का उद्घाटन कर रहे होते हैं या फिर मोरों के साथ होते हैं।
मई, 1958 में राजाजी ने चेतावनी दीः 'यदि दासता और गुलामी की मानसिकता से की जा रही चापलूसी स्वतंत्र सोच की जगह लेती है और आलोचना की जगह भय और घबराहट ले ले, तो ऐसे माहौल में लोकतंत्र के लिए हानिकारक राजनीतिक बीमारियां जन्म लेने लगेंगी।' उन्होंने लिखा, 'संतुलित लोकतंत्र के स्वतंत्र और आलोचनात्मक माहौल के बिना कैरियरवाद की खरपतवार और कई तरह की बेइमानियां फलने-फूलने लगेंगी।' राजाजी तर्क देते हैं, ऐसी जहरीली खरपतवार को रोकने में विपक्ष स्वाभाविक बचाव का काम करता है। जैसे लक्षण दिखाई दे रहे हैं, उसमें विपक्ष इस बीमारी से तत्काल निजात पाने की दवा है...।
इस दूसरे लेख में, राजाजी ने संक्षेप में विपक्ष की आवश्यकताओं का वर्णन किया है, जिससे भारतीय लोकतंत्र को बहाल करने में मदद मिल सकती है। उन्होंने लिखा, 'हमें एक ऐसे विपक्ष की जरूरत है, जो अलग ढंग से सोचे और इसके लिए सामान्य कल्याण के लक्ष्य पर विचार करने वाले नागरिक समूहों की जरूरत नहीं है, और न ही उनकी, जो तथाकथित वंचितों के अधिक वोट एकत्र करने के लिए उन्हें सत्तारूढ़ दल से अधिक देने की पेशकश करें, हमें एक ऐसे विपक्ष की जरूरत है, जो तर्क करे और इस दृढ़ विश्वास के साथ काम करे कि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अच्छी तरह से शासित हो सकता है, और जिसे मजबूत कारणों से वंचित भी स्वीकार कर सकें।
इसके अगले वर्ष 80 वर्ष की पकी उम्र में राजाजी ने अपनी बातों को व्यावहारिक रूप देते हुए एक नई पार्टी स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की, जिसका लक्ष्य था, अर्थव्यवस्था को लाइसेंस परमिट कोटा राज से मुक्त करना, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना और पश्चिम के लोकतंत्रों से करीबी संबंध बनाना। उल्लेखनीय है कि राजाजी ने कांग्रेस की आर्थिक और विदेश नीतियों का तो विरोध किया, लेकिन धार्मिक सद्भाव और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए नेहरू की प्रतिबद्धता को साझा किया।
स्वतंत्र पार्टी ने कांग्रेस के लिए अनेक बौद्धिक और वैचारिक चुनौतियां पेश कीं। हालांकि न तो वह या कोई और विपक्षी दल कांग्रेस की राजनीतिक सर्वोच्चता को नुकसान पहुंचा सका। अंततः राजाजी ने दुखी होकर टिप्पणी की, कांग्रेस की सफलता के पीछे महंगा चुनाव अभियान और धन का एकाधिकार मुख्य कारण है। इसमें एक बार फिर वर्तमान प्रतिध्वनित होता है, जब सरकारी मशीनरी पर भाजपा का कब्जा है और चुनावी बांड की अपारदर्शिता ( सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्यजनक रूप से जिस पर रोक नहीं लगाई है) से सत्तारूढ़ दल को विपक्ष की तुलना में खासतौर से चुनावों के समय अप्रत्याशित लाभ हो रहा है।
सत्तारूढ़ दल का अहंकार और प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व निर्माण को लेकर उतावलापन ऐसे अहम कारण हैं, जिसकी वजह से लगातार दो चुनावों में बहुमत हासिल करने के बावजूद भाजपा सरकार का प्रदर्शन सभी मोर्चों पर खराब है, अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है, सामाजिक ताना-बाना दरक रहा है और पड़ोसियों तथा दुनिया की नजरों में हम नीचे गिरे हैं। 1950 के दशक के अंत में हमारे देश को एक महत्वपूर्ण और जोरदार विपक्ष की जरूरत थी; और उसे 2020 के दशक की शुरुआत में ऐसे विपक्ष की कहीं अधिक जरूरत है।
सोर्स: अमर उजाला
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