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- सियासत: राजनीतिक विरोध...
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यह सभी दलों और उनके नेतृत्व वर्ग की जिम्मेवारी है। कोई बाहर से आकर स्थिति नहीं बदल सकता।
सार्वजनिक जीवन विशेषकर राजनीति में एक दूसरे के बारे में शब्द प्रयोगों में मर्यादाओं का अतिक्रमण हमारे यहां समय-समय पर कई कारणों से चर्चा में रहता है। अभी मध्य प्रदेश में पूर्व केंद्रीय मंत्री व वरिष्ठ कांग्रेस नेता राजा पटेरिया को पन्ना जिले की पुलिस ने गिरफ्तार किया है। सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल है, जिसमें वह कह रहे हैं कि संविधान को बचाना है, तो मोदी की हत्या करने के लिए तैयार रहना होगा।
हालांकि हंगामे के बाद उन्होंने एक वीडियो जारी कर कहा कि उनका मतलब था प्रधानमंत्री मोदी को चुनाव में हराना, लेकिन उनके बयान को गलत तरीके से पेश किया गया। ठीक उसी दिन उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की वह अपील खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा द्वारा उनके खिलाफ दायर आपराधिक मानहानि के मुकदमे को रद्द करने की मांग की थी। न्यायालय ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर आप सार्वजनिक बहस का स्तर इतना नीचे गिराएंगे, तो आपको परिणाम भुगतने होंगे।
राजनीति में आलोचना और विरोध में सीमाओं के अतिक्रमण के ये दो मामले ही नहीं है। आए दिन इस तरह की घटनाएं सामने आती रहती हैं। कुछ दिन हंगामा होता है और फिर शांत होते-होते किसी न किसी का दूसरा बयान आ जाता है। यहां तक कि लोकतंत्र के मंदिर संसद में भी ऐसी टिप्पणियां आती हैं। अभी लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कांग्रेस के एक सदस्य को चेतावनी दी कि आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं करें, अन्यथा कार्रवाई करनी होगी। प्रश्न है कि इन सबको किस रूप में देखा जाए?
यदि आप प्रधानमंत्री को चुनाव में हराना चाहते हैं, तो आप कह सकते हैं कि राजनीतिक रूप से उनको समाप्त करना होगा, परास्त करना होगा। इसमें बोलते समय अपनी वाणी पर नियंत्रण रखने का पहलू तो है। मगर उपरोक्त प्रसंग में जिस तरह के शब्द प्रयोग किए गए, उसका अर्थ है कि ऐसे लोग राजनीति में अपने विरोधी को प्रतिस्पर्धी न मानकर उनके प्रति अतिवाद की सीमा तक घृणा या जुगुप्सा पालते हैं।
राजनीति में विरोधी पार्टियों व नेताओं से मतभेद, असहमति स्वाभाविक है। विचारधारा के स्तर पर टकराव और संघर्ष भी अस्वाभाविक नहीं है। किंतु शब्द और व्यवहार की मर्यादा ही लोकतांत्रिक समाज की सच्ची पहचान है। इसी तरह उच्च पदों पर आसीन या सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण व्यक्तियों को किसी के बारे में कोई आरोप लगाने के पहले उसके तथ्यों की पूरी छानबीन करनी चाहिए। ऐसा नहीं करने का अर्थ है, एक नेता होने की जिम्मेवारी को आप नहीं समझते या पालन नहीं करते। मनीष सिसोदिया ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाया था कि कोविड 2020 में असम सरकार ने बाजार मूल्य से ज्यादा पर पीपीई कीट आपूर्ति का ठेका मुख्यमंत्री सरमा की पत्नी की बिजनेस पार्टनर फर्म को दिया था। उनकी ओर से पेश दलीलों को ठुकराते हुए न्यायालय ने कहा कि आपने कहा था कि असम में भाजपा के मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार का यह है कच्चा चिट्ठा। इसका क्या मतलब है? आपने आरोप कोविड के दौरान लगाए। यह अहसास किए बगैर कि देश किस दौर से गुजर रहा है। न्यायालय के सामने पूरे तथ्य हैं। कुल मिलाकर न्यायालय यही कह रहा है कि सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे के विरुद्ध प्रतिक्रियाओं, आरोपों आदि का मान्य उच्च स्तर कायम रहना चाहिए।
राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने सांसदों को आगाह किया है कि निराधार और अप्रमाणित टिप्पणी न करें, क्योंकि यह सदन के विशेषाधिकार का हनन करने के समान है। वास्तव में सदन में आप गलत आंकड़े और तथ्य रखेंगे, तो आपके खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव आ सकता है। दूसरी ओर अगर आप नेताओं के विवादास्पद बयानों की सूची बनाएं, तो शायद कई भागों में मोटी पुस्तकें तैयार हो जाएं। इस स्थिति को हर हाल में बदलने की आवश्यकता है। हमारे देश में व्यापक राजनीतिक सुधार की आवश्यकता है। यह सभी दलों और उनके नेतृत्व वर्ग की जिम्मेवारी है। कोई बाहर से आकर स्थिति नहीं बदल सकता।
सोर्स: अमर उजाला
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