सम्पादकीय

चांदनी के भ्रम में सियासत-2

Rani Sahu
23 Jan 2022 7:09 PM GMT
चांदनी के भ्रम में सियासत-2
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बौद्धिक तर्क और सियासी घमासान में अंतर यह है कि जब विवेकहीनता से फैसले होने लगें

बौद्धिक तर्क और सियासी घमासान में अंतर यह है कि जब विवेकहीनता से फैसले होने लगें, तो सदियों की गलतियां चंद मिनटों में होती हैं। देश की बात छोड़े हिमाचल में सरकारों के फैसलों में अर्थहीन लक्ष्य, वोट की खातिर बिकते रहे हैं और पश्चाताप करती युवा पीढि़यां अपनी क्षमता पर दंश झेलती-झेलती बूढ़ी हो जाती हैं। ऐसा ही एक फैसला अतीत में आया जब सरकारी नौकरी के लिए आयु की सीमा पैंतालीस वर्ष कर दी गई। वोट की दृष्टि से यह उपाय सुखद हो सकता है, लेकिन नौकरी पाने की आशा में कितने युवा बूढ़े हो गए, इसका कोई उल्लेख नहीं। यह नौकरी अप्रत्यक्ष रूप से जब वोट को खुजाने लगी तो कई लोग शामिल कर लिए गए। बिना योग्यता की प्रमाणिकता परखते हुए परत दर परत हर सत्ता ने जो मजाक किया, वह आज कर्मचारी विसंगतियों का पिटारा बन गया। कमोबेश हर सरकार अपनी आर्थिक क्षमता से कहीं अधिक कर्मचारियों को रिझाती रही है, लेकिन हर बार यह वर्ग प्रोत्साहनों की ऊष्मा में विरोध पैदा करता है तो इसके मायने समझने होंगे। आश्चर्य यह कि हिमाचल के राजनीतिक स्वार्थ प्रदेश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। इस दृष्टि से हर सत्ता के पांचवें साल की शरारतें अपनी ही सरकारों के मिशन रिपीट को बर्बाद कर देती हैं। पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक म्यान में कुछ बड़े खास तौर पर कांगड़ा जैसे जिले को रख पाना कुछ नेताओं की आंख में नहीं सुहा रहा है।

पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने इस कतरब्यौंत के लिए भौगोलिक परिस्थितियां पैदा कीं, लेकिन मिशन रिपीट की चांदी कूटने से पहले यह आइडिया धराशायी हो गया। इसी आइडिया के समक्ष एक दूसरा संदर्भ कहीं अधिक प्रभावशाली हो कर हर बार सरकारों के कुछ चेहरों को तवज्जो देने लगा है। इस तरह कुछ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों तथा चहेते विधायकों की सियासी संपत्ति में भले ही सत्ता के प्रभाव चिन्हित हों, लेकिन मिशन रिपीट की अवधारणा में यह दांव भी उल्टा पड़ रहा है। हिमाचल में राजनीतिक बेचैनी के कई कारण हैं, लेकिन 'मिशन रिपीट' के लिए जो मार्ग अंतिम चरण में चुने जाते हैं, वे अति घाटे की संपदा बन जाते हैं। राजनीतिक बेचैनी अपनों को आजमाने, आगे बढ़ाने, आंतरिक विरोध को फुसलाने और व्यक्तिवाद से उपजे करिश्मे को चमकाने में ऊर्जा को ही जाया करती है, जबकि हर सरकार के ऊंट अपनी पहली करवट में ही बता देते हैं कि इन रगों में जोश कितना है। मतदाता हमेशा सरकार को उसकी संरचना में देखता है और मतदान तक प्रतीक्षा करता है कि कहीं कोई घाव न उभरे, लेकिन सरकारों के अपने संतुलन अब गड़बड़ाने लगे हैं। सरकार के पदों का प्रदर्शन और क्षेत्रवार आधार पर सरकार में प्रतिनिधित्व की खामियां अपने अंतिम वर्ष को कैसे सफल बना सकती हैं, इसके लिए हर जिला की प्राथमिकताएं तय हों और हर मंत्री जिला वार अपने मंत्रालय की मासिक व वार्षिक योजनाओं, कार्यक्रमांे और परियोजनाओं का हवाला दे, तो मिशन रिपीट का सौहार्द पैदा होगा। इसी के साथ अब वक्त आ गया है जब सरकारों का विश्लेषण आर्थिक आधार और वित्तीय प्रबंधन से होगा। इसके लिए हर सरकार में एक स्वतंत्र वित्त मंत्री की जरूरत महसूस होने लगी है। इसी परिप्रेक्ष्य में वर्तमान सरकार के कुछ हरकारों द्वारा जिलों के बंटवारे का प्रश्न उठा कर जो निजी महत्त्वाकांक्षा हाजिर की है, उसका स्पष्टता से उत्तर देना होगा।
यह राजनीति से कहीं अधिक प्रशासनिक विषय है, तो इसका हल भी प्रशासनिक और पूरे राज्य के परिप्रेक्ष्य में ही निकलेगा। व्यापक दृष्टि से देखें तो दो कबायली जिलों के एक-एक विधानसभा क्षेत्रों के आधार के अलावा छह-छह विधानसभाओं के यूनिट बनाकर ग्यारह अन्य जिले होने चाहिएं। यानी कुल तेरह जिले बनाए जा सकते हैं, ताकि बिलासपुर और कुल्लू में भी छह-छह विधानसभा क्षेत्र हों और शिमला, मंडी और कांगड़ा में भी छह-छह विधानसभा क्षेत्र रह जाएं। इसे संभव करने के लिए पंचायत क्षेत्रों, खंड विकास केंद्रों और विधानसभा क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण आवश्यक है। उदाहरण के लिए जसवां-कोटला क्षेत्र की एकतरफा लंबाई अगर सौ किलोमीटर से अधिक है या द्रंग, श्रीनयना देवी या बिलासपुर सदर की रूपरेखा सही करनी है, तो इनका प्रारूप सही करना होगा। इसी तरह शाहतलाई का विकास दियोटसिद्ध के साथ तभी संभव होगा यदि इसे हमीरपुर जिला में मिला दिया जाए। चिंतपूर्णी जैसे धार्मिक स्थल के बाजार का एक भाग ऊना और दूसरा कांगड़ा में आता है, तो इसके प्रशासनिक मायने सुधार चाहते हैं। इसलिए जिलों के पुनर्गठन की बात गली की चर्चा नहीं हो सकती और न ही यह 'मिशन रिपीट' का विकल्प है। सुशासन से बड़ी साधना 'मिशन रिपीट' के लिए अन्य कोई विकल्प नहीं कर सकता। पैंसठ हजार करोड़ के कर्ज में डूबे हिमाचल के नेता यह समझें कि सत्ता का दायित्व और सरकार की कर्मठता से आत्मनिर्भरता जैसे कठिन विषय का हल कैसे ढूंढें, अन्यथा किसी भी फट्टे में टांग तो फंसाई जा सकती है।

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