सम्पादकीय

चांदनी के भ्रम में सियासत-1

Rani Sahu
21 Jan 2022 6:51 PM GMT
चांदनी के भ्रम में सियासत-1
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राजनीतिक इच्छा शक्ति बनाम सियासी स्वार्थ के हर खेल में हिमाचल के नेताओं का कद और स्तर अब क्षेत्रवाद से ऊपर नहीं उठ रहा है

राजनीतिक इच्छा शक्ति बनाम सियासी स्वार्थ के हर खेल में हिमाचल के नेताओं का कद और स्तर अब क्षेत्रवाद से ऊपर नहीं उठ रहा है। इसी तरह नागरिक जागरूकता भले ही हर हिमाचली की पहचान बन जाए, मगर सियासी चेतना से कोसों दूर है हिमाचली समाज। यही वजह है कि हर बार सरकार को बदलना होता है और खुद को स्थायी रूप से रोकने के लिए सरकारों के बीच मंत्रियों का क्षेत्रवाद पनप रहा है, सरकारी कार्यसंस्कृति ध्वस्त हो रही है तथा अफसर शाही-नौकरशाही केवल हिमाचल के भविष्य को धकिया रही है। जब नीतियां खामोश रहेंगी और सत्ता के ओहदेदार अपनी सलामती के लिए राज्य का बजट जाया करेंगे, तो नागरिक समाज भी ऐसे मुद्दों पर मोहित होता रहेगा, जो सिर्फ चांदनी रात की तरह कुुछ क्षणों का भ्रम हो सकते हैं। हर साल हमारे विधायक अपनी प्राथमिकताओं का गुलदस्ता बनाते हैं, लेकिन ये सारे फूल हर बार बिखरे-बिखरे से प्रयास में टूट जाते हैं।

नेता बनने की प्रक्रिया के बजाय यहां स्थापित होने के लिए सत्ता के ही मकबरे सजाए जा रहे हैं। ऐसे में न तो हिमाचल निर्माण की वह तड़प दिखाई दे रही है, जो कभी स्व. वाई एस परमार ने इस प्रदेश को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भाषाई विरासत के स्वरूप में जोडऩे के लिए पैदा की थी या स्व. वीरभद्र सिंह ने प्रादेशिक संतुलन के संगम पर खड़ी की थी। कभी शांता कुमार ने राज्य के स्वाभिमान के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता के संदर्भ खोजते-खोजते विद्युत उत्पादन पर रायलटी के स्वरूप में 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली हासिल करके जो शिलालेख लिखे थे, वे आज कहीं पर्दे के पीछे चले गए हैं। अब सत्ता के नाम पर जनता और जनता के अधिमान पर नेता खुद को इतना मांज रहे हैं कि पूरा प्रदेश और प्रादेशिक महत्त्वाकांक्षा के बनिस्पत क्षेत्रवाद के अध्याय खोले जा रहे हैं। चुनावी वर्ष की आंच पर पुन: माखौल उड़ाती हांडी ऐसी सियासत को उबाल रही है, जहां लंगड़े समीकरणों को सीधे करने के लिए नेता आविष्कार कर रहे हैं। आश्चर्य यह है कि जो जनप्रतिनिधि बनते रहे या इस वक्त मौजूद हैं, उनसे कहीं आगे निकलने के लिए नए आगाज की बोली पर सिद्धांत, तर्क और यथार्थ के बजाय ऐसा तमाशा खोजा जा रहा है, जिसके ऊपर राजनीतिक गौरव की परत बिछ जाए। कभी नेताओं की बिरादरी ने पर्यटन इकाइयां, स्कूल, कालेज और कार्यालय खोल कर जनप्रतिनिधि बनने के लिए विकास को आवाज दी, लेकिन प्रदेश अपनी तरक्की के ऐसे सूरमाओं को हराने पर उतारू रहा। राजनीतिक सिद्धि का अखंड पाठ हर बार सरकारी कर्मचारियों के प्रांगण में दगा दे जाता है, तो फिर इंकलाब के नाम पर इंतकाम कैसे लिया जाए।
यहां श्रेय की राजनीति पैदा होती है, तो प्रदेश की दरख्वास्तें बदल जाती हैं। अब हर जिला को मुख्यमंत्री चाहिए, तो नेताओं को पर्दापण के लिए नए जिले चाहिए। अगर ऐसा हो जाए तो शिमला और मंडी से दो-दो और कांगड़ा से तीन ऐसे नेता पैदा हो सकते हैं, जो नए जिलों के प्रकाश पर अपना सियासी पर्व मना सकते हैं। यानी प्रदेश के भीतर एक और चुनाव नए जिलों के नाम पर ही हो सकता है। पूर्व में याद होगा कि कभी रमेश धवाला ने देहरा को जिला बनाने की सौगंध में सियासी पतवार थामी, तो राकेश पठानिया ने नूरपुर का बजीर बनने के लिए 'खूब लडिय़ा पठानिया की छवि को प्रस्तुत किया। आजकल त्रिलोक कपूर, जो कांगड़ा-चंबा संसदीय क्षेत्र के भाजपा प्रभारी हैं, अपने प्रभाव से पालमपुर दुर्ग की संरचना में लगे हैं यानी एक नए जिले की चार दीवारी में जनप्रतिनिधित्व की एक नई लाल लकीर लगाई जा रही है। हालांकि इससे पूर्व ऐसे ही सोच के तहत पालमपुर नगर निगम बना कर भाजपा अपने राजनीतिक नक्शे का विस्तार करना चाहती थी, लेकिन इसका पटाक्षेप एक करारी हार से हुआ। प्रदेश के विकास को सियासी छिछोरेपन पर नहीं परखा जा सकता, बल्कि समग्रता से यह सोचना होगा कि हिमाचल प्रदेश की तस्वीर किस तरह से मुकम्मल व असरदार होती है। -(जारी)

Divyahimachal

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