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एक मजबूत और स्थिर विपक्ष देश की राजनीतिक स्थिरता के लिए तो जरूरी ही है
एक मजबूत और स्थिर विपक्ष देश की राजनीतिक स्थिरता के लिए तो जरूरी ही है, नीतियों के बेहतर क्रियान्वयन के लिए भी उसका होना आवश्यक है। अपनी स्थिरता के लिए सरकार द्वारा सहयोगी पार्टियों और समूहों पर निर्भरता उसे कमजोर कर देती है। हमने देखा है कि यूपीए-1 के दौर में अमेरिका से असैन्य परमाणु समझौते को कार्य रूप दिए जाने से पहले कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत किस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर विचार-विमर्श करने का दबाव बनाते थे। दरअसल गठबंधन धर्म हमेशा राष्ट्रीय हितों के अनुकूल नहीं होता।
क्या आपको 2जी मामले की याद है? तत्कालीन आईटी मंत्री चूंकि सहयोगी पार्टी से थे, इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री की नसीहतों को गंभीरता से नहीं लिया था। इसके बावजूद
प्रधानमंत्री उस मंत्री को हटाने के प्रति अनिच्छुक थे, क्योंकि वैसे में उसकी पार्टी द्वारा समर्थन वापस ले लेने का खतरा था। कोई प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसा जीनियस और समन्वयवादी हो, तभी वह गठबंधन की सरकार चला सकता है। वाजपेयी जी ने न केवल 28 दलों की गठबंधन सरकार पूरे पांच साल तक चलाई, बल्कि घरेलू और विदेश नीति के मोर्चे पर उन्होंने कई बड़े फैसले भी लिए। एक दूसरा तरीका अपनी अल्पमत सरकार को बहुमत सरकार में बदलने का है, जैसा कि पीवी नरसिंह राव ने किया। हालांकि वह नेहरू-गांधी परिवार से नहीं थे, इसके बावजूद उन्होंने अपने वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की मदद से देश को बदल देने वाली आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की शुरुआत की, जिससे देश ने अभूतपूर्व आर्थिक ऊंचाइयां छुईं और जिसने हमारा जीवन पूरी तरह बदल दिया।
बेशक पार्टी और उसके संगठन का महत्व होता है, तथा घोषणापत्र संबंधित पार्टी की वरीयताओं और वादों के बारे में बताते हैं, लेकिन नायकों को पूजने वाले इस देश में चुनाव के समय शीर्ष नेता का महत्व सबसे अधिक होता है, जो कैडरों को एकजुट कर तथा मतदाताओं को आकर्षित कर अपनी पार्टी को जीत दिलाता है। हर पार्टी के पास ऐसे चुनाव जिताऊ नेता होते हैं। जैसे कि कांग्रेस के लिए दशकों तक पहले जवाहरलाल नेहरू और फिर इंदिरा गांधी ऐसे ही नेता रहे। अपने पहले चुनाव में कांग्रेस को भारी जीत दिलाकर राजीव गांधी ने भी खुद को ऐसे नेता के रूप में साबित किया था। वर्ष 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी ऐसे ही नेता के रूप में सामने आए।
विपक्ष के कमजोर होने और उसमें एकता के अभाव के कारण भाजपा अपनी नीतियों और फैसलों को जोर-शोर से या अध्यादेशों के जरिये संसद में बगैर बहस के या प्रवर समितियों में विचारार्थ भेजे बिना लागू करती है, क्योंकि उसके पास भारी बहुमत है। कुछ न कर पाने के कारण बेबस विपक्ष नारे लगाता है, अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंच जाता है, विधेयक फाड़ डालता है, भाषणों में बाधा पहुंचाता है, सदन की कार्यवाही स्थगित करने के लिए विवश करता है और सदन के बाहर महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने धरने पर बैठता है, जैसा कि कांग्रेस, तृणमूल और शिवसेना के 12 राज्यसभा सांसदों के निलंबन के फैसले के खिलाफ वह पिछले करीब एक सप्ताह से धरना दे रहा है। सदन की कार्यवाही स्थगित होने का मतलब है करदाताओं के पैसे की बर्बादी, लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। जाहिर है कि इससे पहले मजबूत विपक्ष की कभी इतनी ज्यादा जरूरत महसूस नहीं की गई। ऐसा विपक्ष, जो सरकारी नीतियों को बाधित न करे, बल्कि रचनात्मक विपक्ष की भूमिका अदा करे, जो संसद में सत्ता पक्ष को बहस के लिए बाध्य करे तथा उससे छानबीन, पारदर्शिता और जिम्मेदारी की मांग करे तथा व्यापक राष्ट्रीय तथा जनहित के मुद्दे उठाए। 136 साल पुरानी कांग्रेस सिकुड़ गई है।
सिर्फ यही नहीं कि पिछले 10 साल में इसने कई चुनाव हारे हैं, बल्कि कई राज्यों में जीत के बाद भी उसकी सत्ता बरकरार नहीं रह पाई। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सिर्फ एक सीट-सोनिया गांधी की रायबरेली सीट-जीत पाई। जी-23 के कांग्रेसी नेताओं के पास सोनिया-राहुल-प्रियंका को चुनौती देने के लिए न तो करिश्मा है और न जनाधार। जबकि कांग्रेस नेतृत्व की त्रिमूर्ति पूरे देश में कांग्रेस के फिसड्डी और निराशाजनक प्रदर्शन देख पाने में अक्षम है। कांग्रेस में नेतृत्व का संकट साफ झलकता है। जब ममता बनर्जी ने कहा कि यूपीए है कहां, तो कांग्रेस आग-बबूला हो गई। जब प्रशांत किशोर ने कहा कि गांधी परिवार के पास नेतृत्व करने का कोई दैवीय अधिकार नहीं है, तब भी कांग्रेस नाराज हो गई। ये टिप्पणियां कठोर हो सकती हैं, पर क्या सच नहीं हैं?
देश में कम से कम दो नेता ऐसे हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी की भाषण कला और करिश्मा, अमित शाह की संगठनात्मक क्षमता, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जमीनी काम और केंद्र सरकार की मशीनरी को दो-दो बार परास्त कर सत्ता हासिल की है। ये हैं ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल। एलजी के लगातार दबाव के बावजूद केजरीवाल ने अपनी जनप्रिय योजनाओं के जरिये दिल्ली में अपना मजबूत जनाधार स्थापित किया है। और ममता बनर्जी एक बड़ी जननेता हैं, जिनके असंख्य समर्थक हैं। इस साल चुनाव में उन्होंने अकेले ही मोदी और शाह का मुकाबला किया-वे दोनों ममता पर जितने हमलावर हुए, समर्थकों ने दीदी के प्रति उतनी ही एकजुटता दिखाई।
अगर कांग्रेस मोदी से मुकाबला करने के मामले में वाकई गंभीर है, तो उसे पूरे देश में ममता और केजरीवाल से गठजोड़ करना चाहिए। कांग्रेस की अखिल भारतीय मौजूदगी और उसके सांगठनिक नेटवर्क को ममता और केजरीवाल की जुझारू छवि, अदम्य ऊर्जा, गहरी प्रतिबद्धता, गलियों-नुक्कड़ों में सक्रियता और बिना थके चुनाव अभियानों में लगे रहने की क्षमता का साथ मिले, तो यह अगले चुनाव में एक मजबूत विपक्ष का आकार ले सकता है।
यह गठजोड़ शायद मोदी को सत्ता से हटा न पाए, लेकिन इससे संसद में एक मजबूत विपक्ष का स्वरूप बनेगा, जो सरकार पर दबाव बना सकेगा और जिससे लोकतंत्र को ताकत मिलेगी। राष्ट्रहित में और लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए कांग्रेस को चाहिए कि इस विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व करने के लिए वह ममता को आमंत्रित करे। लेकिन क्या कांग्रेस ऐसा करेगी?
अमर उजाला
Gulabi
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