सम्पादकीय

राजनीति: लोकतंत्र को कमजोर करते चुनावी वादे

Neha Dani
28 Sep 2021 1:46 AM GMT
राजनीति: लोकतंत्र को कमजोर करते चुनावी वादे
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तो न किसी को अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़े और न ही चुनाव सुधारों की बहस हो।

इन दिनों राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव के दरम्यान तमाम योजनाओं के लुभावने वादों पर बहस तेज है। कुछ वर्षों से राजनीतिक दल मतदाताओं के खाते में धन जमा कराने का वादा करने लगे हैं। इससे पहले लंबे समय तक रुपये और शराब बांटने का सिलसिला चलता रहा है। चूंकि अब पुलिस और आबकारी विभागों की सख्ती तथा आयकर विभाग की निगरानी के चलते नोट फॉर वोट देना आसान नहीं रहा है।

पकड़े जाने पर खुद की, और पार्टी की बदनामी से पराजय का खतरा भी रहता है। ऐसे में सियासी पार्टियां सत्ता में आने पर घूस का लालच देने से नहीं चूकतीं। घूस का यह सिलसिला दक्षिण भारतीय राज्यों में तो दशकों से चल रहा है। कहीं खुलेआम साड़ियां बांटी जाती थीं, तो कहीं मोबाइल फोन बंटते थे। कुछ उदाहरण ऐसे भी थे, जब उम्मीदवार मतदाताओं को दुपहिया वाहन देता था। पार्टियों के घोषणा पत्रों में भी लैपटॉप से लेकर साइकिल तक देने का वादा किया जाता है।
जो दल चुनाव जीतने के बाद अस्पताल में दवाएं और डॉक्टर नहीं देता, स्कूलों में अच्छी पढ़ाई और शिक्षक नहीं देता, सड़क, पानी, बुनियादी सुविधाएं नहीं देता, वह स्पेशल ट्रेन चलाकर बूढ़ों को तीर्थ कराता है, लैपटॉप बांटता है, जूते बांटता है, बंदूकों के लाइसेंस बांटता है, लड़कियों की शादी में कन्यादान-किट देता है। हमारी चुनाव प्रणाली को कोई एतराज नहीं होता। मतदाता के तौर पर राजनीतिक दलों की गलतियों को हम भूल जाते हैं। हम जैसे-जैसे साक्षर और आधुनिक होते जा रहे हैं, दिमागी तौर पर और सिकुड़ते जा रहे हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा है कि नागरिकों के अधिकार पहनने के आभूषण नहीं हैं। लोगों को इनका उपयोग करना चाहिए। अदालत ने नकद राशि मतदाताओं के खातों में डालने के एलानों पर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से कैफियत मांगी है। न्यायालय ने एक याचिका पर यह स्पष्टीकरण तलब किया है, जिसमें कहा गया है कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है।
भारतीय संविधान भी श्रम और उत्पादकता तय किए बिना नकद बांटने की मंशा का समर्थन नहीं करता। यदि सारी पार्टियों ने ऐसा करना शुरू कर दिया, तो यह आलसियों का देश बन जाएगा और बिना मेहनत पेट भरने का आदी हो जाएगा। (वैसे काफी हद तक हम भारतीय ऐसे ही हैं) याचिका दाखिल करने वालों का कहना था कि 2019 के चुनाव में एक राष्ट्रीय और एक प्रादेशिक पार्टी ने अपने घोषणापत्रों में न्याय योजना के तहत 72,000 रुपये हर साल मतदाता को देने का वादा किया था।
इसकी विस्तृत व्याख्या की जाए, तो यह माना जाना चाहिए कि किसी घर में माता-पिता और नौजवान बेटा-बेटी है, तो करीब-करीब तीन लाख रुपये हर साल उन्हें घर बैठे मिलेंगे। एक मध्यमवर्गीय परिवार 25 हजार रुपये में अपना गुज़ारा आराम से कर लेता है। करोड़ों परिवार तो इतना भी नहीं कमाते। इस तरह का पैसा उन्हें नाकारा बना देता है। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के लिए भी यह अत्यंत घातक है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस संबंध में निर्वाचन आयोग को भी आड़े हाथों लिया है। उसने कहा कि आयोग केवल नोटिस और आदेश जारी न करे। उसे कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है और उसे यही करना भी चाहिए। लेकिन क्या सिर्फ न्यायालय इस चुनावी भ्रष्टाचार को रोक सकता है? दशकों से चुनाव के दौरान सीमा से अधिक खर्च होता है। उम्मीदवारों ने पैसे बहाने के नए चोर दरवाजे खोज लिए हैं। सब जानते हैं, लेकिन सिलसिला नहीं रुक रहा है।
जिस मुद्दे पर उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया गया है, वह दरअसल चुनाव आयोग का काम है। जब-जब भारतीय चुनाव आयोग ने अपनी नैतिक और विधायी शक्ति का इस्तेमाल करने में कंजूसी की है, तब-तब राजनीति को विकृत करने वाले तत्वों का हौसला बढ़ा है। जिस पर जिम्मेदारी हो, वही अगर बचने लगे, तो भारतीय मतदाता किसके पास जाए! संविधान ने निर्वाचन आयोग को तमाम अधिकार और शक्तियां प्रदान की हैं। इनका भरपूर उपयोग किया जाए, तो न किसी को अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़े और न ही चुनाव सुधारों की बहस हो।

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