सम्पादकीय

राजनीति : महिलाओं की घटती सियासी भागीदारी, हर मोर्चे पर आ रहे बदलाव का संकेत

Neha Dani
5 July 2022 1:44 AM GMT
राजनीति : महिलाओं की घटती सियासी भागीदारी, हर मोर्चे पर आ रहे बदलाव का संकेत
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यह जरूरी है कि आधारभूत स्तर पर उनकी भागीदारी बनी रहनी चाहिए।

महिलाओं की सियासी भागीदारी का बदलता परिदृश्य देश में हर मोर्चे पर आ रहे बदलाव को रेखांकित करता है। विशेषकर जमीनी स्तर पर स्त्रियों की मुखर राजनीतिक हिस्सेदारी से हाल के बर्षों में बहुत से सकारात्मक बदलाव भी आए हैं। ऐसे में हाल में सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की ओर से सतत विकास के लक्ष्यों की प्रगति को लेकर आई एक रिपोर्ट वाकई चिंतनीय है।

चुनाव आयोग और पंचायती राज मंत्रालय से लिए गए आंकड़ों पर आधारित इस रिपोर्ट के मुताबिक, देश में विधानसभा और स्थानीय निकायों में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व घटा है। लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी में हुए इजाफे के बावजूद विधानसभाओं और पंचायती राज संस्थानों में उनकी संख्या बढ़ने के बजाय घट रही है। उल्लेखनीय है कि परंपरागत ढांचे वाले हमारे समाज में बुनियादी स्तर पर घट रही राजनीतिक भागीदारी महिला जीवन के हर पक्ष पर नकारात्मक असर डालने वाली है।
इसीलिए स्वास्थ्य, शिक्षा, समानता और सुरक्षा जैसे जरूरी मुद्दों को जमीनी हालात के परिप्रेक्ष्य में रखकर समझना और उनका हल तलाशना सबसे ज्यादा जरूरी है। बदलाव की यह बयार नीचे से ऊपर की ओर बहे, तो महिलाओं से जुड़ी कई व्यक्तिगत और सामुदायिक समस्याएं सुलझ सकती हैं। सतत विकास के लक्ष्यों में से एक लक्ष्य महिलाओं के सशक्तीकरण, समाज में समानता और नीति निर्माण में उनकी हिस्सेदारी से गहराई से जुड़ा है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक, पंचायती राज संस्थानों में वर्ष 2014 में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 46.14 प्रतिशत था, जो साल 2019 तक घटकर 44.37 प्रतिशत रह गया। शहरी निकायों में यह भागीदारी साल 2019 में 43.16 फीसदी रही है। इतना ही नहीं, महिला मतदाताओं में आई जागरूकता और सजगता के बावजूद चुनावी मैदान में उतरने वाली महिलाओं की संख्या में भी कोई विशेष बढ़ोतरी नहीं हुई है।
रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में विधानसभाओं की 11 फीसदी सीटों पर महिलाएं काबिज थीं। वर्ष 2020 में भी यह स्थिति कायम रही। लेकिन 2021 में यह हिस्सेदारी घटकर नौ फीसदी रह गई। लोकसभा में हालांकि, महिला सांसदों की हिस्सेदारी बढ़ी है। 2014 में जहां उनके पास 11.42 फीसदी सीटें थीं, वहीं 2019 में यह 14.36 तक पहुंच गई। दरअसल, बड़ी आबादी वाले हमारे देश में सत्ता का विकेंद्रीकरण किए बिना नीतियों और योजनाओं को देश के कोने-कोने तक पहुंचाना संभव न था।
इसीलिए स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था को उपयोगी माना गया। यह सत्ता की कुंजी दूर-दराज़ के गांवों से देश की संसद तक ले जाने का माध्यम है। विचारणीय है कि आज भी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा तो गांवों में ही बसता है। यही वजह है कि संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम में पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में काम करने के लिए आवश्यक शक्तियां और अधिकार दिए गए हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और जन सामान्य के सबलीकरण हेतु जो कदम पंचायतें स्थानीय स्तर पर उठा सकतीं हैं, उनकी बराबरी दूसरी नीतियां और योजनाएं नहीं कर सकतीं।
आज भी गांवों में सामुदायिक स्तर पर कई बातों को लेकर जन-जागरूकता की कमी और सामाजिक-आर्थिक मोर्चों पर मौजूद विषमता से जूझने की स्थितियां बनी हुई हैं। इन हालतों से जूझने, बेहतर ढंग से समझने एवं समाधान तलाशने के लिए ही पंचायती राज संस्थानों में 73वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिये 1992 में ही कम से कम 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई थीं। कई राज्यों ने इसे बढ़ाकर 50 फीसदी तक भी कर दिया है। ऐसे में स्थानीय राजनीति में आधी आबादी की घटती भागीदारी के ये आंकड़े वाकई चिंतनीय हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी वहां की आम स्त्रियों की सामाजिक-पारिवारिक परिस्थितियों की बानगी भी होती है। राजनीतिक पटल पर आधी आबादी की हिस्सेदारी यह भी बताती है कि उन्हें अपने फैसले लेने का कितना हक है? अपनी प्राथमिकताओं के चुनाव को लेकर कितनी आजादी हासिल है? इतना ही नहीं, स्त्रियों की राजनीतिक भागीदारी लैंगिक समानता के हालात को भी सामने रखती है। यह जरूरी है कि आधारभूत स्तर पर उनकी भागीदारी बनी रहनी चाहिए।

सोर्स: अमर उजाला

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