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चुनाव जीतने से दिल जीतना बेहतर है। वह चुनाव प्रचार के लिए रैलियां नहीं निकालता
जयप्रकाश चौकसे का कॉलम:
प्रकाश झा ने 'दामुल', 'गंगाजल', 'राजनीति' और 'मृत्युदंड' नामक राजनैतिक पृष्ठभूमि वाली फिल्में बनाई, जो सफल भी रही हैं। इसके दशकों पूर्व आर के नैयर ने 'यह जिंदगी कितनी हसीन है' नामक राजनैतिक पृष्ठभूमि की फिल्म बनाई थी। मोतीलाल अभिनीत पात्र राजनीति में हिंसा का हामी है और उसके खिलाफ अशोक कुमार अहिंसा का पुजारी है। अशोक कुमार को विश्वास है कि अहिंसा से विचार शैली में परिवर्तन लाया जाता है।
चुनाव जीतने से दिल जीतना बेहतर है। वह चुनाव प्रचार के लिए रैलियां नहीं निकालता। गली के नुक्कड़ पर छोटी-छोटी सभाएं करता है। उसका प्रयास है कि हर मतदाता से सीधा संपर्क किया जाना चाहिए। समस्याओं का त्वरित निदान करना चाहिए। मोतीलाल रैलियां निकालता है। रैली में आवाम को लाने के लिए बसें भेजी जाती हैं। बस में यात्रियों के खाने-पीने की व्यवस्था भी की जाती है।
इतने सारे जुगाड़ के बाद भी मोतीलाल विरोधी अशोक कुमार से अपने को पिछड़ा हुआ पाता है। वह एक बिचौलिए की सहायता से अशोक कुमार के साथ मुलाकात करता है कि कुछ लेन-देन के बाद अशोक कुमार को चुनाव से हटने के लिए बाध्य कर सके। समझौता नहीं हो पाने पर मोतीलाल अपनी ही पार्टी के एक शख्स को अशोक कुमार की हत्या करने के लिए तैनात करता है।
इस पेशेवर कातिल का किरदार जॉय मुखर्जी ने निभाया है। जॉय, अशोक कुमार को मारने की बहुत कोशिश करता है पर अशोक कुमार की सच्चाई देखकर वह भी उसे नहीं मार पाता। अशोक कुमार को पता चल जाता है कि जॉय मुखर्जी को मोतीलाल ने उसकी हत्या करने के लिए भेजा है। वह उससे कहता है कि अगर वो उसकी हत्या करे बिना वापस जाएगा तो मोतीलाल उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा।
अशोक कुमार की यह अच्छाई जॉय मुखर्जी का दिल बदल देती है। चुनाव गणतंत्र व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग है परंतु समय समय पर उसके स्वरूप बदल जाते हैं। जातिवाद ने अलग समीकरण बनाया है। अमेरिका में ओलिवर स्टोन ने अमेरिका के 35वें राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या पर 'जेएफके' नामक बनाई अपनी फिल्म में केनेडी की हत्या के षड्यंत्र का खुलासा किया और असली दोषी का नाम भी उजागर किया।
उस दोषी ने मानहानि का मुकदमा दायर नहीं किया। यह एक तरह से गुनाह स्वीकार करना कहलाएगा। अमेरिका में सबसे अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। अधिकांश मामलों पर पत्रकारों ने प्रकाश डाला है। हमारे अपने देश में महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या हुई हैं। शूजित सरकार की फिल्म 'मद्रास कैफे' तो राजीव गांधी की हत्या पर एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। आज राजनीति में बड़े परिवर्तन हुए हैं।
हत्या हाशिए पर चली गई है। नए पैंतरे उभर आए हैं। इस प्रक्रिया में राजनैतिक शून्य उत्पन्न हो गया है। एक गैर गणतांत्रिक सुझाव है कि कुछ वर्षों के लिए तमाम चुनाव बंद कर दिए जाएं। सारे प्रयास समाज में समानता लाने के लिए किए जाएं। अभी जो सत्ता पर काबिज हैं वही बने रहे परंतु सांस्कृतिक उत्थान पर जोर दिया जाए। क्योंकि संस्कृति देश का सॉफ्ट पॉवर है। संस्कृति ही देश की असली संपदा है।
इस विरासत की हिफाजत सबसे महत्वपूर्ण है। अब इस संपदा को समृद्ध बनाए जाने के प्रयास किए जाने चाहिए। लगभग दो दर्जन देशों के पास परमाणु बम हैं। इनकी संख्या ने ही इन्हें बेअसर कर दिया है। दशकों पूर्व एक फिल्म बनी थी 'द डे आफ्टर'। आकल्पन यह था कि परमाणु बम फटने के बाद क्या बचेगा? शायद कुछ नहीं! निल बटे सन्नाटा ही कायम रहेगा।
सिनेमा के क्षेत्र में भी 'बाहुबली' ने सारा परिदृश्य बदल दिया है। सुना है कि अयान मुखर्जी की 'ब्रह्मास्त्र' भी 'बाहुबली' का ही दूसरा स्वरूप है। क्या राजनीतिक स्वरूप बदला है? सबसे महत्वपूर्ण है आम आदमी की सोच। युद्ध की आवश्यकता और खतरों के बारे में साहिर लिखते हैं... 'गुज़िश्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार अजब नहीं कि ये परछाइयां भी जल जाएं'।
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