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- मणिपुर चुनाव का...
आदित्य नारायण चोपड़ा: मणिपुर विधानसभा की 60 सीटों के लिए पहले चरण का चुनाव आज हो रहा है। मणिपुर में इस बार राजनीतिक तापमान काफी बढ़ा हुआ रहा। इस बार का चुनाव काफी रोचक है। क्योंकि कभी चुनावों को लेकर उदासीन रहने वाले राज्य में अब चुनावी बयार बह रही है। मणिपुर की मिट्टी निर्दलियों की जीत और क्षेत्रीय दलों के पनपने के लिए काफी मुफीद रही है। पुराने चुनावों का इतिहास तो यही बताता है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस और भाजपा में कटी टिकटों से फैले असंतोष ने यहां कई दलों को उभरने का मौका दिया है। राज्य में भाजपा ही एक मात्र ऐसी पार्टी है जो सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 2017 के चुनाव में भाजपा ने जोड़तोड़ से सरकार चलाई है। उसने अपने दाे सहयोगी क्षेत्रीय दलों नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) को बाहर का रास्ता दिखा दिया है, जिसके सहारे वह सत्ता में आई थी। दूसरी तरफ राज्य की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस जो 2002 से 2017 तक लगातार 15 साल तक पावर में रही है, वह सीपीआई, सीपीएम, फारवर्ड ब्लॉक, जेडीएस के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में है। इस गठबंधन की वजह से कांग्रेस के हिस्से में महज 40 सीटें आई हैं। जिन दलों के साथ वह गठबंधन में है उनका राज्य में काेई बड़ा जनाधार नहीं है। भाजपा कांग्रेसी पृष्ठभूमि से निकले पांच साल मुख्यमंत्री रहे एन. विरेन सिंह के परिजनों को प्रत्याशी बनाया है। इसके बाद भाजपा में भी हंगामा बरपा। कांग्रेस एक बार फिर पुराने मुख्यमंत्री ई. बोनी सिंह के सहारे चुनाव में है। वहीं भाजपा की साझेदार रही क्षेत्रीय पार्टियां चुनाव अखाड़े में दम ठोक रही हैं।मणिपुर चुनावों के मुद्दों को देखें तो यहां तीन मुद्दे काफी चर्चा में हैं। पहला सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफस्पा) वहीं दूसरा शांति और तीसरा मुद्दा विकास का है। अगर आफस्पा की बात करें तो नागालैंड में हुई एक घटना के बाद पड़ोसी मणिपुर में इसको हटाए जाने की मांग ने जोर पकड़ा हुआ है। कांग्रेस और क्षेत्रीय दल इसको लेकर काफी आक्रामक रहे हैं। कांग्रेस ने सरकार बनने पर मंत्रिमंडल की बैठक में ही आफस्पा कानून को रद्द करने का वादा किया है, वहीं एनपीएम और एनपीपी ने पहाड़ों में अपना समर्थन जुटाने के लिए इसे मुद्दा बनाया है। दरअसल नागालैंड में हुई घटना मानवीय चूक के कारण हुई। सुरक्षा बलों ने गलत पहचान के कारण फायरिंग की जिसमें निर्दोष ग्रामीण मारे गए थे लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में इसे मानवाधिकार हनन करार दिया गया। कांग्रेस और अन्य दलों ने इन भावनात्मक मुद्दों से राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की है। संपादकीय :नाटो की जरूरत क्यों है ?हे भगवान स्टूडेंट्स पर मेहर करो...रूस-यूक्रेन पर भारतीय रुखन्यायपालिका का सुधारात्मक कदमकच्चे तेल के भावों में उफानपुतिन का अमेरिकी दादागिरी को जवाबजहां तक राज्य में शांति का सवाल है, आजादी के बाद पहली बार मणिपुर शांत रहा है। पिछले पांच सालों में न कोई बंद हुआ और न ही कहीं हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। राज्य में शांति भाजपा सरकार की बड़ी उपलब्धि है। भाजपा सरकार ने पिछले पांच वर्षों में मणिपुर में विकास पर काफी जोर दिया है। राज्य में स्कूल, कालेज और हैल्थ सैंटर खुले हैं। संचार और यातायात के बुनियादी ढांचे पर जोर दिया गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी मणिपुर समेत पूर्वोत्तर राज्यों को एशियाई देशों से जोड़ने का वादा किया है। इम्फाल हवाई अड्डे को विकसित किया गया है। सड़कों और रेलवे का विकास हुआ। मणिपुर में ट्रेन लाने का श्रेय भाजपा को है। इन सभी मुद्दों के बीच मणिपुर की जमीनी लड़ाई को देखें तो परिदृश्य कुछ अलग दिखाई देता है। दरअसल मणिपुर दो हिस्सों में बंटा हुआ है। घाटी और पहाड़ में। घाटी के हिस्से में 40 विधानसभा सीटें आती हैं जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में 20 सीटें हैं। घाटी में मैतई समुदाय बहुसंख्यक हैं जो हिन्दू हैं। हालांकि आबादी का स्वरूप मिश्रित है। दूसरी तरफ पहाड़ी इलाकों में गना और कुकी जनजाति की बहुतायत है और इनका धर्म ईसाई है।पिछले चुनावों में कांग्रेस के दबदबे को खत्म करते हुए 21 सीटें जीत कर हड़कम्प मचा दिया था। इसका कारण घाटी में उसका हिन्दू कार्ड का चल जाना था। पहाड़ी जिलों में उसका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा, इसीिलए वह बहुमत से दूर रही थी। इस बार भी भाजपा का पहाड़ी क्षेत्रों में वर्चस्व कायम करना बड़ी चुनौती है। कांग्रेस का प्रदर्शन पहाड़ पर अच्छा रहा, इसके बावजूद उसे 28 सीटें मिली थीं। भाजपा ने एनपीपी के चार, एनपीएफ के 4 और तीन अन्य विधायकों के समर्थन के साथ सरकार बना ली थी। चुनाव परिणाम आने के बाद कौन सा क्षेत्रीय दल किस के साथ जाता है, यह अंक गणित पर निर्भर करेगा। जनता दल यू भी 15 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है। शिवसेना भी मणिपुर विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष रहे भाजपा नेता टी. थांगजालम के नेतृत्व के सहारे चुनाव लड़ रही है। एनपीएफ के कई उम्मीदवार ऐसे हैं जो भाजपा की टिकट मांग रहे थे। इनकी मौजूदगी भाजपा और कांग्रेस जैसे दलों को नुक्सान पहुंचा सकती है। राज्य में हर विधानसभा क्षेत्र में औसत करीब 30 से 35 हजार मतदाता हैं। इसलिए महज कुछ हजार वोट या इससे भी कम चुनावी परिणाम बदल सकते हैं। दलबदलुओं का प्रदर्शन नई सरकार का मार्ग प्रशस्त करेगा। देखना होगा मणिपुर के मतदाता कैसा जनादेश देते हैं।