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मध्यप्रदेश विधानसभा ने पिछले दिनों कुछ ऐसे शब्दों की सूची जारी की, जिन्हें अससंदीय माना गया और अपेक्षा की गई
गिरीश उपाध्याय। मध्यप्रदेश विधानसभा ने पिछले दिनों कुछ ऐसे शब्दों की सूची जारी की, जिन्हें अससंदीय माना गया और अपेक्षा की गई कि जनप्रतिनिधि उन शब्दों का सदन में उपयोग नहीं करें. ऐसे शब्दों में 'नालायक' शब्द भी शामिल था. लेकिन, पिछले दिनों मध्यप्रदेश में हुई एक घटना ने इस 'नालायक' शब्द को बहुत चर्चित बना दिया. और, बात निकली तो बहुत दूर तक गई.
हुआ यूं कि भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री और मध्यप्रदेश के प्रभारी मुरलीधर राव ने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में अनुसूचित जाति मोर्चा के कार्यकर्ताओं की एक बैठक में कह दिया कि 'चार-पांच बार के विधायक और सांसद भी इस बात पर रोते हैं कि उन्हें मौका नहीं मिल रहा. इतना पा जाने के बाद भी अगर कोई कहे कि ये नहीं मिला, वो नहीं मिला और रोए कि कुछ नहीं मिला, तो उससे नालायक आदमी कोई नहीं है. ऐसे लोगों को कुछ नहीं मिलना चाहिए.'
राव के बयान पर पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने मीडिया में प्रतिक्रिया भी दी और कहा कि 'नालायक होते तो इतनी बार चुनाव थोड़े जीतते. हम अपनी मेहनत, ईमानदारी और सिद्धांतों की वजह से जीतकर आए हैं, किसी की दया पर राजनीति नहीं की. अपमानित होने के लिए नहीं आए. दो-तीन पीढ़ियों से पार्टी की सेवा कर रहे हैं. यह अपमानित करने वाली अभिव्यक्ति है.'
राव वाला मामला चल ही रहा था कि राजनीति में अवसर और पद को लेकर केंद्रीय मंत्री और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जयपुर के एक कार्यक्रम में चुटकी लेते हुए कहा डाला, 'कार्यकर्ता इसलिए दुखी कि वो विधायक क्यों नहीं बना, विधायक इसलिए दुखी कि वो मंत्री क्यों नहीं बना, मंत्री इसलिए दुखी कि उसे अच्छा विभाग नहीं मिला, मुख्यमंत्री इसलिए दुखी कि पता नहीं कि वो कब हटा दिया जाए….'
सिद्धू पर पाकिस्तानी नेताओं से सांठगांठ का आरोप!
उधर, राजनीतिक महत्वाकांक्षा का खेल कांग्रेस में भी चला और पंजाब में नौबत यहां तक पहुंच गई कि अंदरूनी घमासान के चलते मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवजोतसिंह सिद्धू पर आरोप लगा डाला. अमरिंदर ने कहा कि सिद्धू राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं, क्योंकि पाकिस्तान के नेताओं से उनकी सांठगांठ है.
अब सवाल ये है कि भाजपा के इन दो बड़े नेताओं और अमरिंदर सिंह के बयानों को किस तरह पढ़ा जाए. मुरलीधर राव के बयान पर मध्यप्रदेश में भाजपा के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं ने सफाई दी कि 'अहिन्दी भाषी होने के कारण राव के शब्द चयन में गलती हो सकती है.' लेकिन यह मासूम सी सफाई गले उतरने लायक नहीं है. मुरलीधर राव लंबे समय से राजनीति में हैं और यह संभव नहीं कि वे इतनी भी हिन्दी नहीं जानते हों कि उन्हें 'नालायक' शब्द का अर्थ पता न हो.
असलियत ये है कि राव ने न तो किसी शब्द का गलत चयन किया था, न उनकी जबान फिसली थी और न ही उनका बयान किसी ने तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया था. राव 'नालायक' शब्द का अर्थ भी जानते हैं और उन्होंने वही कहा है जो वे पूरी ताकत से कहना और जताना चाहते थे. इसीलिए राव के कहे को फौरी विश्लेषण या उसे संकुचित दायरे में रखकर देखने के बजाय व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा.
दरअसल मुरलीधर राव के बयान को भाजपा की कार्यशैली में पीढ़ी परिवर्तन की आंधी के रूप में देखा जाना चाहिए और गडकरी के बयान को उसके विस्तार के रूप में. परोक्ष रूप से दोनों कहना यही चाह रहे थे कि पार्टी में जिस तरह वंशवाद नहीं चलता, उसी तरह अब 'अधिकारवाद' या 'वरिष्ठतावाद' भी नहीं चलेगा. आपको पार्टी ने यदि एक या अधिक बार अवसर दे दिया है, तो हर बार के लिए उसे अपना अधिकार मानते हुए अपनी दावेदारी न जताएं.
कौन है राव की नजर में 'नालायक'
हर बार के लिए उसे अपना अधिकार मानते हुए अपनी दावेदारी करने वाले राव की नजर में 'नालायक' हैं और गडकरी उन्हें सलाह दे रहे हैं कि और अधिक या और ऊंचा पद मिलने की आस में दुखी होने के बजाय बेहतर होगा जो मिला है उसमें संतोष करें और जहां हैं, वहीं बेहतर प्रदर्शन करने की कोशिश करें.
भाजपा में पीढ़ी परिवर्तन की यह कवायद पिछले लंबे समय से अलग अलग रूप में चल रही है. भाजपा के वर्तमान ढांचे में यदि इसका मूल खोजा जाए तो उसे हम नरेंद्र मोदी की ताजपोशी और अटल-आडवाणी युग के इतिहास बन जाने की घटना में खोज सकते हैं.
उसके बाद के सात सालों में फर्क इतना पड़ा है कि उस समय राजनीतिक निर्वासन को 'मार्गदर्शक' जैसे शब्द के आवरण में ढंक दिया गया था. अब उसे एक नंगी सच्चाई के रूप में 'नालायक' शब्द के जरिये उजागर कर दिया गया है. इसलिए इस 'नालायक' शब्द को गाली या अपमान के रूप में नहीं, बल्कि भाजपा के नए नीति निर्धारक सिद्धांत के रूप में देखा जाना चाहिए.
मुरलीधर राव जो कह रहे हैं उसका अर्थ यही है कि जो लोग चार-पांच बार विधायक और सांसद रह चुके हैं, जिन्होंने मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री पद तक का सुख भोग लिया है, वे अब अपनी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाएं और नए चेहरों को, नए नेतृत्व को आगे आने दें. यदि ऐसा नहीं कर सकते तो या तो खुद चुपचाप घर बैठ जाएं या फिर पार्टी उन्हें घर बिठा देगी.
चौंकाने वाले चेहरों की एंट्री
यही कारण है कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लेकर केंद्रीय मंत्रिमंडल तक में नए और चौंकाने वाले चेहरों की एंट्री हो रही है और बरसों पुराने चेहरों की विदाई. गुजरात इसका ताजा उदाहरण है. वहां विजय रूपाणी की विदाई के बाद उनके उत्तराधिकारी के लिए, उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल से लेकर केंद्रीय मंत्री मनसुख मांडविया, प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटील, पुरुषोत्तम रूपाला, गोवर्धन झडफिया जैसे कई नाम चले, लेकिन कुर्सी पर भूपेंद्र पटेल को बैठाया गया. वो भूपेंद्र पटेल जो पहली बार के विधायक थे. और उससे भी बड़ी बात यह हुई कि भूपेंद्र पटेल के मंत्रिमंडल में पुराने मंत्रिमंडल के किसी भी चेहरे को जगह नहीं मिली.
कुछ ही दिन पहले उत्तराखंड में भी यही हुआ था. तीरथसिंह रावत के उत्तराधिकारी के रूप में रमेश पोखरियाल निशंक व सतपाल महाराज से लेकर धनसिंह रावत और अनिल बलूनी तक जाने कितने नाम उछाले गए थे. वहां के कई नेता तो शपथ ग्रहण की ड्रेस तैयार करवाकर बैठे थे, पर छींका पुष्करसिंह धामी के नाम टूटा. यानी पार्टी अगले लोकसभा चुनाव से पहले सारे पत्तों को फेंटकर पुराने पड़ चुके पत्तों की जगह नए पत्ते सजा देना चाहती है. और इसीलिये पके हुए, सत्ता का सुख भोग चुके नेताओं को दरकिनार कर नए चेहरों पर दांव लगाया जा रहा है.
एक तरफ जहां भाजपा पुराने नेताओं को लेकर अपने फैसलों पर सख्ती से अमल कर रही है, वहीं कांग्रेस में इस बात पर जबरदस्त घमासान है. पंजाब में अमरिंदरसिंह और सिद्धू की लड़ाई न तो सिद्धांतों के लिए है और न ही प्रदेश के विकास के लिए, दोनों का पहला लक्ष्य किसी तरह कुर्सी हासिल करना या उस पर बने रहना है. चूंकि कांग्रेस के संगठन का मामला भाजपा जैसा नहीं है. इसीलिए जहां पंजाब में कांग्रेस हाईकमान की इच्छा और आदेश के बावजूद अमरिंदर सिंह के तेवर कड़क बने रहते हैं.
वहीं गुजरात में असंतोष की छोटी मोटी सुर्री छोड़ने के बाद वे सारे पूर्व मंत्री नतमस्तक हो जाते हैं, जिन्हें एक झटके में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. ऐसे में पार्टी में बदलाव करने और फैसले लेने के बाद उन पर अमल करने के तरीकों को लेकर भाजपा और कांग्रेस की कार्यशैली में भी साफ अंतर देखा जा सकता है. पार्टी आलाकमान का यह रुख आने वाले दिनों में कांग्रेस और भाजपा दोनों में बड़े परिवर्तन का कारण बनेगा.
एक बात और… जिस तरह से पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल और उसके बाद कर्नाटक, उत्तराखंड व गुजरात के फैसले हुए हैं, उससे एक स्वाभाविक सवाल मध्यप्रदेश में परिवर्तन को लेकर भी उठाया जाने लगा है. इस तरह का सवाल उठाते समय एक बार फिर वह बात याद रखनी होगी कि भाजपा कुछ सालों से मीडिया के कयासों को कभी सच नहीं होने देती. इसके बावजूद यदि कुछ होगा भी तो वह मीडिया की लाइन के हिसाब से या उतना सीधा सरल नहीं होगा, उसमें 'सरप्राइजिंग एलीमेंट' जरूर रहेगा. वैसे गुजरात का यह संदेश भी मध्यप्रदेश के सभी महत्वाकांक्षी नेताओं को ग्रहण करना चाहिए कि अपना नाम चलाने या चलवाने से पार्टी में कुछ नहीं होता, होता वही है जो 'ऊपरवाला' चाहता है… और 'ऊपरवाला' सबको देख रहा है…
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