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राजनीति के गटर खुल रहे हैं और इनके भीतर समा रहा है सारा ढोंग और फरेब
राजनीति के गटर खुल रहे हैं और इनके भीतर समा रहा है सारा ढोंग और फरेब। यह दीगर है कि हर पार्टी अपने गटर को साफ और इसके भीतर उज्ज्वल भविष्य दिखा रही है तथा हम देख सकते हैं कि नेता कब, कैसे और कहां तक गिर सकते हैं। बारियां तय हैं और बोलियां लग रही हैं। इस आदान-प्रदान में किस पार्टी की आशंकाओं के बादल छंटेंगे या किसे ब्रह्मास्त्र मिल जाएगा, कहा नहीं जा सकता, लेकिन राजनीति का चरित्र किसी भूकंप की तरह फट जरूर रहा है और आहों के समुद्र में डूब रही हैं जनता की अपेक्षाएं। ऐसे में जनता कौन सा परिवर्तन कर सकती है और हर राजनीतिक जीत में जनता के मतदान का मसौदा क्या होगा। चुनाव के चरित्र में हिमाचल भी अपनी औकात में देख रहा है कि किस तरह मोहरे खरीदे जा सकते हैं या ये बिकने को तैयार हैं। खबरें इतनी मुखर हैं कि नेताओं के मुखौटे बिखर रहे हैं। हम यह तो नहीं कह सकते कि किस पार्टी के प्रयोग अधिक सफल होंगे, जब दूसरे राजनीतिक दल के नेता या विधायक को चुराने में सफलता मिलेगी, लेकिन पार्टियों के आंतरिक चरित्र की कमजोरियां इस तरह स्पष्ट जरूर हो रही हैं। इस वक्त कांग्रेस की मुर्गियों पर भाजपा का हाथ भारी है, तो जश्न की फिरौती में मालामाल होने का भ्रम भी साथ-साथ चल रहा है।
अगर कांग्रेस के दो विधायक उस पाले में जा रहे हैं, तो इसे व्यक्तिगत तराजू में तौलें या भाजपा के पिंजरे का चमत्कार मानें। जो भी हो, ऐसी कतार में उड़ रहे पंछी कम से कम राजनीति का कोई आकाश तो नहीं छीन सकते, अलबत्ता सियासी चिडिय़ाघर में भगदड़ जरूर मचा सकते हैं। अब तक के कयास में भाजपा की झोली में आ रहे ओबीसी नेता तथा सोलन की सरहद से जुड़ रहे मंतव्य की खाल में मोटी करतूत तो देखी जा सकती है। हम मान सकते हैं कि भाजपा के पिटारे में सियासी गोश्त का दाम उच्च है और अगर यही हाल रहा, तो आगामी चुनाव में मुद्दे नहीं, नेताओं का गोश्त बिकेगा। कुछ नेता खुद को जाति का गोश्त बनाकर बेचेंगे, तो कुछ विद्वेष का जहर मिलाकर अपनी कीमत तय करेंगे। यहां तो अब जनता को अचंभित होने का हक भी नहीं है और न ही लोकतांत्रिक अधिकार से गुण-दोष तय करने का विकल्प बच रहा है। देखने में राजनीति के सुनहरे क्षण छीनकर भाजपा यह दावा कर सकती है कि उसने कांग्रेस के घर में घुस कर विधायक छीन लिए, लेकिन इस गिनती में पार्टी की घरेलू स्थिति पर आंच नहीं आएगी, यह असंभव है।
पहले दो निर्दलीय विधायकों को समेटकर भाजपा ने अपने कुनबे को कितना बढ़ाया, यह पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया बता चुकी है और अगर अब कांग्रेस के विधायक उठा लिए, तो दरारें उस ओर भी आएंगी। यहां कांग्रेस भी मजहमे की मारी हुई है और जिस तरह पार्टी के पद बांट कर गृहयुद्ध को समाप्त होते समझ रही थी, उसका यह भ्रम भी टूट रहा है। पद आबंटन की इमरजेंसी में आज अगर चंद्रकुमार को कार्यकारी अध्यक्ष बनाना पड़ा, तो ये ढोल फटे हुए बोल हैं। कुछ तो खामियां हैं कबीले में कि नेता अपना मूल्यांकन, पार्टी से अलग और अपने केंद्र में कर रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस आलाकमान यह देखने की चेष्टा करे कि जिन्हें प्रदेश प्रभारी बनाकर भेजा है, उन्हें जमीन का दर्द मालूम है या ढर्रे की राजनीति में सिफर होने का संदेह तक नहीं। कांग्रेस इस स्थिति में कुछ नेता खो रही है, तो जाहिर है गांठें, एक संभावना को खुर्द-बुर्द कर सकती हैं।
By: divyahimachal
Rani Sahu
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