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By: divyahimachal
इस अविश्वास ने संसद की भाषा और सदन की मर्यादा को अवश्य ही जनता के सामने बेनकाब कर दिया। जिसे हम लोकतंत्र का मंदिर कहते-कहते भारत को पारंगत करते थे, वहीं अविश्वास प्रस्ताव ने कुछ तो स्तर और सारांश गिरा दिया। संसदीय बहस के इतिहास में क्रिकेट के चौके-छक्के मारने का सरकारी पक्ष नाद कर सकता है या उस नारेबाजी का अभिनंदन करें जिसे प्रधानमंत्री स्वयं आहूत करते रहे। संसद के भीतर सियासी नफरतों के इतने पल तो रहे हैं कि अगर देश चारित्रिक या नैतिकता के हिसाब से डूबना चाहे, तो तसल्ली से डूब सकता है। क्या यह राष्ट्रीय मंचन था या राष्ट्रीय मंथन, जहां देश की फटेहाली अपने आवरण को सिल पाई या बहस किसी द्रौपदी को दरबार में ढूंढ रही थी। वहां मुगालते थे, मुचलके भी थे, लेकिन कोई निर्दोष साबित नहीं हो पाया। अभी तक मणिपुर कहीं मणिपुर में सिसक रहा था, लेकिन देश ने लोकतंत्र की छत के नीचे उसे बिलखते देखा, तो मंजर इनका भी था, उनका भी कसूर था। वहां किसने देखा कि बाहर टमाटर की कीमत से हर मतदाता के गाल लाल हो चुके हैं। वहां किसने गौर किया कि देश में पढऩे के गुनाह से पीढिय़ां बेरोजगार हो गईं। हम यह तो न देखना चाहते थे और न ही सुनना कि हमारे नेतृत्व की शान में शब्द बेशर्म और संदर्भ निर्लज्ज हो जाएं। वैसे देश का सबसे बड़ा संदर्भ क्या चुनाव मान लिया जाए और अगर ऐसा ही है, तो जरूर वहां सत्ता पक्ष जीत गया। वहां मुनादी हो गई और राजनीति की जमाखोरी भी हमारी नजरों के सामने, लोकतंत्र के चीरहरण के बीच हमें चुनाव के नजारे दिखाती रही। हमें मालूम हो गया कि देश की सबसे बड़ी जरूरत चुनाव है और यह साबित भी हो गया कि अब सरकार ही चुनाव है। सरकार जब भी बोलती है तो चुनाव बोलती है।
आखिर किस चुनाव को सत्य मानें। वह जो हमारे जैसे मतदाताओं के भ्रम बढ़ा देता है या हमें भ्रम में रहना सिखा देता है। हम संसद के लिए मकड़ी हो जाएं या संसदीय बहस के मकडज़ाल में घिनौना सब्र कर जाएं। हम भारतीय कर भी क्या सकते, यहां तो भारत किसी के हिस्से में आ रहा है और ‘इंडिया’ परेशान दिखाई दे रहा है। हमने आजादी को जिन निगाहों से देखा, आज देश भी यह समझ नहीं पा रहा कि चुनाव में निजात पाएं भी तो किससे। जो यहां है, कल वहां होंगे और जो वहां होंगे उन्हें पवित्र बताया जाने की व्यवस्था हो गई। आखिर कब तक हम अतीत के कूड़ेदान को संसद के बचाव में काम आते देखेंगे और कब एक ही भाषण और एक ही मुद्दे का रिपीट टेलिकास्ट देखते रह जाएंगे। अविश्वास प्रस्ताव एक फेरी लगा गया और संसद में कोई देश के एक सौ चालीस करोड़ लोगों की खरीददारी में लग गया। वहां बहस में न पक्ष और न विपक्ष, बल्कि देश की लोकतांत्रिक परंपराएं बिक रही थीं। मीडिया भी इस खरीददारी में यही देखता रहा कि क्या उसका ‘स्वामी’ बहुत कुछ खरीदकर जीत गया। यह जीत अगर मीडिया को मुबारक लगती है, तो लोकतंत्र के इस स्तंभ के घुटने टूट चुके हैं और रीढ़ को वफादारी ने खरीद लिया है। आखिर आम जनता को अगर संसद की अविश्वास फिल्म पसंद नहीं आई, तो वह इस शिकायत को अपना भाग्य मान ले, क्योंकि इससे बेहतर होने की उम्मीद में देश की परिस्थितियां दिखाई नहीं दे रहीं। क्या संसद से बड़े प्रश्र और मजमून अब सडक़ पर आएंगे और अगर ऐसा होता है, तो जनता का मत ही बताएगा कि किसका विश्वास-किसका अविश्वास है उसे।
Rani Sahu
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