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तो कोई अटकलबाजी या घोटाला नहीं होगा।
ऐसा लगता है कि इस धरती पर दो पाकिस्तान हैं। एक तो वह, जिसका एक तिहाई हिस्सा मूसलाधार बारिश की वजह से बाढ़ में डूबा है और हालात दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे हैं। दूसरा वह पाकिस्तान, जिसके इस्लामाबाद और रावलपिंडी शहर में एक खास तारीख को लेकर लगातार एक राजनीतिक खेल खेला जा रहा है। वह महत्वपूर्ण तारीख है 28 नवंबर, जब मौजूदा सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा तीन वर्षों के सेवा विस्तार के बाद अपने पद से हटेंगे।
इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन (आईएसपीआर) के महानिदेशक जनरल बाबर इफ्तिखार ने पहले ही कहा था कि जनरल बाजवा का अब पद पर रहने का कोई इरादा नहीं है और वह दूसरा सेवा विस्तार नहीं चाहते। तब से हालांकि जनरल बाजवा के एक और विस्तार की मांग के बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं। रक्षामंत्री ख्वाजा आसिफ ने हाल ही में इन अटकलों का संज्ञान लेते हुए कहा कि अतीत में आमतौर पर नए सेना प्रमुख के नाम की घोषणा 24-48 घंटों में होती रही है।
मुझे लगता है कि इस पर बहस बंद होनी चाहिए। इस नियुक्ति के लिए अतीत में कभी ऐसी बहस नहीं हुई है। एक-दो अपवादों को छोड़ दें, तो सैन्य बलों में पहले की सारी नियुक्तियां योग्यता के आधार पर होती थीं। नए सेना प्रमुख को लेकर विवाद और अटकलों की शुरुआत इसी हफ्ते विपक्षी नेता इमरान खान के कुछ बेहद कड़े बयानों से हुई। संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति नए सेना प्रमुख की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर करते हैं।
प्रधानमंत्री को सेना प्रमुख बनने के योग्य चार-पांच जनरलों की सूची चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ की मंजूरी के साथ सैन्य मुख्यालय से भेजी जाती है। इस हफ्ते एक जलसे में इमरान खान ने नए सेना प्रमुख की नियुक्ति के बारे में कहा कि आसिफ जरदारी और नवाज शरीफ अपने पसंदीदा सेना प्रमुख को लाना चाहते हैं। यही नहीं, उन्होंने कहा कि वे इसलिए अपना सेना प्रमुख लाना चाहते हैं, क्योंकि उन्होंने घोटाला किया है। उन्होंने कहा कि योग्य व्यक्ति को सैन्य प्रमुख बनना चाहिए, किसी के पसंदीदा व्यक्ति को नहीं।
अगले दिन इसके जवाब में आईएसपीआर ने एक बयान जारी किया कि पीटीआई प्रमुख द्वारा पाकिस्तानी सेना के वरिष्ठ नेतृत्व के बारे में अपमानजनक और निरर्थक बयान आहत करने वाला है। एक राजनीतिक विश्लेषक का कहना है कि यह वास्तव में पूर्व प्रधानमंत्री का एक लापरवाह और गैर-जिम्मेदाराना बयान है। अप्रैल में पीटीआई सरकार गिरने के बाद से सैन्य प्रतिष्ठान और इमरान खान के बीच तनाव बना हुआ है, लेकिन लगता नहीं कि दोनों पक्षों के बीच दरार दूर होने वाली है।
ऐसा लगता है कि शासक वर्ग में से किसी ने भी सेना प्रमुखों की नियुक्ति के बारे में सबक नहीं सीखा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसने सेना प्रमुख की नियुक्ति की है। सेना प्रमुख पाकिस्तान का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति होता है और उसे नियुक्त करने वाले राजनेता के प्रति वफादारी नहीं दिखानी चाहिए। जुल्फिकार अली भुट्टो ने कई वरिष्ठ जनरलों को दरकिनार कर जनरल जिया उल हक की नियुक्ति की थी।
वह एक बड़ी गलती थी, जिसके चलते भुट्टो को अपनी जान गंवानी पड़ी, क्योंकि जिया उल हक ने उन्हें फांसी पर लटका दिया। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने दो कार्यकालों में चार सेना प्रमुखों को नियुक्त करने का अवसर मिला। उन्होंने जनरल परवेज मुशर्रफ को सैन्य प्रमुख बनाया, जिन्होंने उनकी ही सरकार को बर्खास्त कर दिया। बाद में उन्होंने जनरल कमर जावेद बाजवा को सैन्य प्रमुख बनाया, जिन्होंने उन्हें सत्ता से हटा दिया और वह लंदन में आत्म-निर्वासन के लिए मजबूर हुए।
जाहिर है, राजनीतिक आधार पर लिए गए निर्णयों का संस्था और लोकतांत्रिक प्रक्रिया, दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए सेना प्रमुख के परामर्श से सेना में सबसे वरिष्ठ जनरल की नियुक्ति करना कहीं अधिक सरल होगा। यदि नए सैन्य प्रमुख की नियुक्ति में हर बार इसका पालन किया जाए, तो कोई अटकलबाजी या घोटाला नहीं होगा।
सोर्स: अमर उजाला
Neha Dani
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