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Written by जनसत्ता: प्रचलित कथन है कि शब्द ब्रह्म स्वरूप है। एक बार प्रस्फुटित होने के बाद उसकी वापसी ठीक वैसे ही नहीं होती जैसे तरकश से निकले तीर की। संसदीय प्रक्रिया में शब्दों के उपयोग की लक्ष्मण रेखा तय की गई है, लेकिन विगत एक दशक से मर्यादाओं का उल्लंघन बढ़ा है। शब्दों के शोर में संसद की कार्यवाही कितनी बाधित होते रहती है, उसे संसदीय साक्ष्यों से देखा जा सकता है।
एक बार फिर कुछ शब्दों को प्रतिबंधित करके हमारे लोकतंत्र के प्रहरियों को सचेत किया गया है। विडंबना है कि देश में आजादी के अमृत महोत्सव की धूम मची है, लेकिन दुर्भाग्य यह भी है कि जिम्मेदार जनप्रतिनिधि गण को यह पाठ पढ़ाया जा रहा है कि उन्हें क्या बोलना है।असंसदीय शब्दों और वाक्यों के उच्चारण के पूर्व हमें यह भी विचार करने की जरूरत है कि क्या अन्य संसदीय नवाचार का पालन हमारे माननीयों द्वारा किया जा रहा है।
संसद की कार्यवाही में विघ्न उत्पन्न करने के दृश्य जब हम टेलीविजन पर देखते हैं तो स्वाभाविक रूप से शर्म से सिर झुक जाता है। वेल में आकर उधम मचाना, आसन से कागजात छीनना और फेंकना, तख्ती लहराना, टेबल, माईक तोड़ना, अशिष्ट नारेबाजी करने के साथ-साथ हाथापाई और धक्कामुक्की की घटनाएं जब रोकी नहीं जा सकतीं, तो उम्मीद कम ही है कि चिह्नित शब्दों के प्रयोग को रोका जा सकेगा। इस नूतन अभिनव प्रयोग के पूर्व जरूरत इस बात की है कि निर्वाचित होने के बाद विधान मंडल या संसद में जब लोग शपथ लेते हैं, उन्हें शपथ सूत्रों के नैसर्गिक और संवैधानिक गरिमा के पालन हेतु कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए।
एक सांसद या विधायक लाखों मतदाताओं की आशा और आकांक्षाओं का नेतृत्व करने के गहन दायित्व से जब बंध जाते हैं तो उन्हें इतना तो बोध होना ही चाहिए कि लोकतंत्र के मंदिर में उन्हें क्या बोलना है और क्या नहीं। विडंबना यह है कि विधान निर्माण में लगे माननीयगण जब खुद कानून के शब्दों के विपरीत आचरण करेंगे तो उन्हें आखिर कौन-सा कानून उन्हें अनुशासन का पाठ पढ़ाएगा। साक्ष्य साक्षी हैं कि विगत वर्षों में संसद ने अपने पुरखों द्वारा स्थापित धरोहरों को अपने शब्द प्रहार से लहूलुहान ही किया है,फिर भी देखना होगा कि वर्तमान चेतावनी कितनी प्रभावी और उपयोगी हो पाती है।