सम्पादकीय

पुलिस कमजोर या मुकदमों में नामजद मुलजिम मजबूत? 'खाकी' पर जजों की तल्ख टिप्पणियों को नजरअंदाज नहीं कर सकते

Gulabi
17 Jun 2021 8:58 AM GMT
पुलिस कमजोर या मुकदमों में नामजद मुलजिम मजबूत? खाकी पर जजों की तल्ख टिप्पणियों को नजरअंदाज नहीं कर सकते
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जिक्र बीते साल फरवरी महीने में देश की राजधानी दिल्ली के उत्तर पूर्वी जिले में हुए सांप्रदायिक दंगों

संजीव चौहान। जिक्र बीते साल फरवरी महीने में देश की राजधानी दिल्ली के उत्तर पूर्वी जिले में हुए सांप्रदायिक दंगों (Delhi Riots) का हो या फिर इस साल के शुरुआती महीने में (26 जनवरी 2021 को) हथियारबंद पुलिस व अर्ध-सैनिक बलों की मौजूदगी में, किसान ट्रैक्टर रैली की आड़ में दिल्ली की सड़कों पर हुए तांडव की बात. बीते साल हुए सांप्रदायिक दंगों में 53 बेकसूर अकाल मौत की भेंट चढ़ गये. सैकड़ों घायल महीनों अस्पतालों में पड़े जिंदगी की भीख मांगते रहे. उसके बाद शुरु हुआ दिल्ली पुलिस (Delhi Police) द्वारा उन दंगों के मामलों में आरोपियों की धर-पकड़ का सिलसिला. जिस तेज गति से उत्तर पूर्वी दिल्ली जिले के थानों में, स्पेशल सेल, क्राइम ब्रांच में मुकदमों (FIR) को दर्ज किया जा रहा था. उससे कहीं ज्यादा तूफानी गति से दिल्ली पुलिस की टीमें दंगे के संभावित वांछितों को घेरकर उन्हीं कानूनी शिकंजे में लेने को बेताब थीं. सैकड़ों आरोपी गिरफ्तार भी कर लिये गये. कोर्ट में मुकदमेबाजी शुरु हुई. उसके बाद इन दोनो ही मामले में गिरफ्तार संदिग्धों को जेल से जमानत पर निकालने के वक्त, निचली अदालतों व हाईकोर्ट द्वारा की जाने वाली तल्ख टिप्पणियों का दौर शुरु हुआ.


देश की राजधानी की सड़कों पर कानून का खुलेआम मखौल तो 26 जनवरी 2021 को उड़ते हुए दुनिया ने देखा. जब अत्याधुनिक स्वचालित हथियारों, गोला-बारुद से सजी-धजी दिल्ली पुलिस और अर्ध-सैनिक बल सरेआम खामोश रहकर पिटते रहे. जबकि हमलावर बने किसान ट्रैक्टर रैली की आड़ में शामिल तांडवकारियों ने बेखौफ होकर दिल्ली की सड़कों को खाकी वर्दी के खून से रंग डाला. इसके बाद भी उन्हें काबू करने के लिए पुलिस या अर्ध-सैनिक बलों ने हाथों में मौजूद लाठी-डंडों और हथियारों को नीचे की ओर झुका रखा था. मतलब वे सब तांडवकारियों का शिकार जान-बूझकर होते रहे थे पिटकर-मार खाकर. हांलांकि अगर खाकी वर्दी अपने और कानून के बचाव में उतर आई होती उस दिन तो, शायद दिल्ली पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों के वे सैकड़ों बे-कसूर जख्मी अफसर-जवान राजधानी के तमाम अस्पतालों में पड़े-पड़े अपनी जिंदगी की भीख मांगने से बच जाते.
इस घटना में पुलिस के 6 से 7 हज़ार जवान घायल हुए थे
उस घटना में खुद दिल्ली पुलिस आयुक्त ने माना था कि, उनके करीब 600-700 अफसर-जवान जख्मी हो गये थे. जिनका कोई कसूर भी नहीं था. हथियारबंद जवान मूक-दर्शक होकर तांडवकारियों से मार क्यों खाते रहे? इस सवाल के जबाब में दिल्ली पुलिस कमिश्नर का आसानी से जमाने में किसी के गले न उतरने वाला जबाब था…."उन विपरीत हालातों में अगर हमने (दिल्ली पुलिस या फिर अर्धसैनिक बलों ने) जबाब दिया होता. हमने हथियार खोल दिये होते तो हालात बहुत विपरीत चले जाते." पुलिस कमिश्नर एस.एन. श्रीवास्तव के इस जबाब से दुनिया ने बखूबी समझ लिया कि, 26 जनवरी 2021 को ट्रैक्टर रैली की आड़ में हथियारबंद खाकी वर्दी ने मुंह बंद रखकर और हथियारों की नालें नीचे की ओर झुकाये रखकर, खुद या फिर यूं ही मार नहीं खाई थी.

बहरहाल, उस दिन यानि ट्रैक्टर रैली की आड़ में तांडवकारी जो नंगा नाच दिल्ली की सड़कों पर पुलिस की मौजूदगी में कर सकते थे. उन्होंने जी भर कर उससे भी कहीं ज्यादा किया. जिसकी कल्पना शायद उन्हें (हिंसा पर उतरे लोगों) भी कभी नहीं रही होगी कि, वे दिल्ली पुलिस के सामने पहुंचकर उस हद तक की उद्दंडता को अंजाम दे सकेंगे. मतलब हमलावरों को जो करना था वे करके साफ बच निकले. अब बारी थी कानून और पुलिस की. 26 जनवरी 2021 को दिल्ली की सड़कों पर हुए तांडव का जबाब देने के लिए मैदान में, बेहद संजीदगी के साथ उतरे दिल्ली पुलिस अफसरों ने कहा, "हिंसा पर उतरे लोगों ने जो किया वो अच्छा नहीं किया. हमने खामोश रहने में ही भलाई समझी. हमने भी अगर जबाब दिया होता तो हालात बिगड़ सकते थे."

कई गिरफ्तारियां हुईं
दिल्ली पुलिस अफसरों का उस घटना के तुरंत बाद रिएक्शन आया कि "उन्होंने (हमलावरों ने) जो करना था वे कर गये. अब हम कानूनी तौर पर उन्हें दोषी ठहरायेंगे." दिल्ली पुलिस मुख्यालय की इस बयानबाजी के बाद शुरु हुआ राजधानी के विभिन्न थानों में ट्रैक्टर रैली की आड़ में हुई लाल किला हिंसा मामले में ताबड़तोड़ मुकदमों को दर्ज किये जाने का सिलसिला. ठीक उसी तर्ज पर और स्पीड से जैसा, बीते साल यानि फरवरी 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों के ठीक बाद शुरु हुआ था. सैकड़ों-हजारों की तादाद में मुकदमे दर्ज हुए तो जांच में स्पेशल सेल, क्राइम ब्रांच भी थानों की पुलिस के साथ उतार दी गयीं. मुकदमों में सैकड़ों आरोपियों को नामजद कर डाला गया. इसके बाद इन नामजदों की दिन-रात तूफानी गति से गिरफ्तारियां शुरु हुईं. यहां तक तो सब ठीक था. दिल्ली पुलिस ने चुप रहकर मार खाने का हिसाब बराबर करना कानूनी रुप से शुरु कर दिया था.

आरोपियों को गिरफ्तार करना कानूनी रुप से दिल्ली पुलिस का ह़क और जरुरत थी. दिल्ली पुलिस की मुश्किलें कहिये या फिर दुश्वारियां तब दुबारा शुरु हो गयीं जब, उसके द्वारा दिल्ली दंगों और लाल किला ट्रैक्टर रैली हिंसा में गिरफ्तार आरोपियों ने भी कानून के शिकंजे से बचने के लिए कानून का सहारा लेना शुरु कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि आरोपी एक के बाद एक अदालतों द्वारा जमानतों पर रिहा किये जाने लगे. इतना ही नहीं लालकिला हिंसा (टूलकिट मामला) की आरोपी दिशा को जमानत देने के वक्त तो कोर्ट ने, जिस तरह की तल्ख टिप्पणियाँ करके दिल्ली पुलिस की सरेआम धज्जियां उड़ाईं, वो दिल्ली पुलिस के लिए लालकिला हिंसा में हाथ में हथियार लेकर खामोशी के साथ अपने ही सूबे की सड़कों पर पिटते रहने से भी ज्यादा बदतर आलम था. दिल्ली पुलिस का अब उससे भी बुरा हाल उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों के आरोपियों को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा जमानत पर जेल से बाहर कर दिये जाने से हो रहा है.

दिल्ली पुलिस क्यों कमज़ोर पड़ती जा रही है
करीब एक साल से दिल्ली दंगों की आरोपी के रुप में दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में बंद की गयी, नताशा नरवाल और देवांगना कलीता (पिंजरा तोड़ संगठन कार्यकर्ता) को भी दिल्ली हाईकोर्ट ने जमानत दे दी. पुलिस को तमाम उन नसीहत भरी और खरी-खरी टिप्पणियों के साथ जिन्हें, दिल्ली पुलिस की आने वाली पीढ़ियां आसानी से शायद ही कभी भूल पायेंगी. ऐसे में सवाल पैदा होना लाजिमी है कि आखिर कानून की हिफाजत के लिए खड़ी की गयी, जांच एजेंसी (दिल्ली पुलिस) कानून की नजर में ही इन दिनों बेहद कमजोर क्यों पड़ती जा रही है? या फिर सबके लिए बराबर कहे जाने वाले कानून का इस्तेमाल करके जेलों से जमानत पर बाहर आ जाने वाले संदिग्ध या आरोपी पुलिस और कानून पर भारी पड़ रहे हैं? बहरहाल इन तमाम मौजूदा हालातों में दिल्ली की अदालतों की तल्ख टिप्पणियों को महज एक अदद टिप्पणी तक सीमित रख कर भूल जाना तो कदापि उचित नहीं होगा. कहीं न कहीं इन तल्ख टिप्पणियों पर गंभीरता से विचार की जरुरत तो है ही. इसलिए ताकि यह तय हो सके कि आखिर हमारे कानून की नजर में मजबूत कौन और कमजोर कौन और क्यों है?

जब बात या चर्चा अदालतों द्वारा जांच एजेंसी (यहां दिल्ली पुलिस) की खुलेआम छीछालेदर की हो तो, उसके तमाम और पहलुओं को भी नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए. उत्तर पूर्वी दिल्ली जिले के दंगे हों या फिर किसान ट्रैक्टर रैली (लाल किला हिंसा) कांड. इन दोनो ही मामलों की सुनवाई के दौरान अदालतों द्वारा जांच एजेंसी (दिल्ली पुलिस) पर उठायी गयी उंगली और भरी अदालतों में खुलेआम जजों द्वारा की गयी तमाम टिप्पणियों की कुछ प्रमुख वजहें. इन वजहों की पुष्टि खुद दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के रिटायर्ड डीसीपी एल.एन. राव (लक्ष्मी नारायण राव) और अब दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील, व सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में फौजदारी मामलों के वरिष्ठ वकील डॉ. ए.पी. सिंह भी करते हैं.

पहली वजह-
दंगों के मामलों की जांच विस्तृत स्तर पर की जाती है. दंगों मे अमूमन सैकड़ों की संख्या में मुकदमे दर्ज होते हैं. हजारों की संख्या में मुलजिम और संदिग्ध पकड़े जाते हैं. लिहाज जांच एजेंसी (पुलिस या सीबीआई) के पड़तालियों के ऊपर समय सीमा के भीतर रिपोर्ट (चार्जशीट) कोर्ट में पेश करने का दबाव होता है. जल्दबाजी और तमाम दबाव के चलते अदालतों में केस-फाइल कानूनी रुप से कमजोर पेश कर दी जाती है. जब कोर्ट में मौजूद जज उन फाइलों को गहराई से पढ़ते हैं तो वे जांच एजेंसी की तमाम कमजोरियों को तुरंत पकड़ लेते हैं.

दूसरी वजह-
लाल किला कांड हिंसा या फिर उत्तर पूर्वी दिल्ली जिले के दंगों जैसी घटनाओं में लिप्त 80- से 90-95 फीसदी अपराधी मौके से फरार हो चुके होते हैं. इन सबको जांच एजेंसी बाद में मिले किन्ही और गवाहों/चश्मदीदों, इलैक्ट्रॉनिक सर्विलांस की मदद से पकड़ कर लाती है. ऐसे में आरोपियों के खिलाफ उतने मजबूत सबूत इकट्ठे कर पाना किसी भी पड़ताली को न-मुमकिन सा होता है. लिहाजा अदालत में संदिग्ध मुलजिम को इसका लाभ मिलता है. आरोपी अंतरिम जमानत पर बाहर आ जाता है. जबकि दस्तावेज कमजोर पेश करने के लिए अदालतें अक्सर छीछालेदर संबंधित जांच एजेंसी या फिर केस के पड़ताली की करती हैं.

तीसरी वजह-
दंगा-फसाद के मामलों के फैसले आने में हमारी पीढ़िया बदल जाती हैं. लिहाजा भले ही जांच एजेंसी कितने भी मजबूत सबूत-गवाह क्यों न पेश कर दे. अदालतों में मुलजिमो के वकीलों की दलील अक्सर सही ठहरती है कि, किसी को भी शक-संदेह की बिना-मात्र पर कई वर्ष (मुजरिम साबित न होने पर भी) जेल में बंद करके नहीं रखा जा सकता. इसका खामियाजा भी जांच एजेंसी को भुगतना पड़ता है. जबकि अंतरिम जमानत के रुप में सीधे-सीधे लाभ आरोपी/संदिग्ध को मिलता है.

चौथी वजह-
अदालतें और उनके जज सामने मौजूद फाइल के ऊपर दर्ज मजमून पढ़ते हैं. उसी के आधार पर सोचते-समझते और अपने फैसले सुनाते हैं. जबकि थोक की संख्या में हुए दंगों से संबंधित फाइलें किसी भी जज की तरह पढ़ने का पड़ताली के पास वक्त ही नहीं होता है. लिहाजा जल्दबाजी में दाखिल केस फाइल में कमियां तलाशने में कोर्ट/जज को देर नहीं लगती. जबकि घटना का जांच-अधिकारी यह तक भूल चुका होता होगा कि, उसने संबंधित मामले की फाइल में क्या-क्या दाखिल-दर्ज कर रखा है?

पांचवी वजह-
हिंदुस्तान के कानून के मुताबिक गुनाहगार तो छूट जाये मगर कोई बेगुनाह न फंसने पाये. ऐसे में अदालतें दंगा-फसाद-हिंसा जैसे और साल-दर-साल तक खिंचने वाले मामलों में गिरफ्तार, आरोपियों को जेल से अंतरिम जमानत पर अधिकांश मामलों में रिहा कर देती हैं. लिहाजा इतने लंबे समय तक किसी को सिर्फ जांच एजेंसी द्वारा पेश कागजातों के बलबूते जेल में रखना भी गुनाह की श्रेणी में आयेगा. बशर्ते उस मामले में किसी का कत्ल न हुआ हो. कत्ल के मामले में जेल में बंद किये गये आरोपी को जमानत देने से पहले अदालतें भी कई बार सोचती हैं.

छठी वजह-
लाल किला हिंसा या फिर उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों जैसे मामलों में जांच अधिकारी/जांच एजेंसी को "डायरेक्ट मजबूत साक्ष्य" जुटाना बेहद मुश्किल होता है. अधिकांश मुलजिम एक दूसरे से मिली जानकारी के आधार पर ही वारदात के बाद ही दूर-दराज से गिरफ्तार किये गये होते हैं. ऐसे में आरोपियों के खिलाफ मजबूत सबूत जुटाना भी चुनौतिपूर्ण होता है. इसका लाभ सीधे सीधे गिरफ्तार आरोपी को मिलता है. उसे कोर्ट जमानत पर रिहा कर देती है.

सातवीं वजह-
मामले के जांच-अधिकारी द्वारा थोक में सामने रखे गये मामलों को देखकर एजेंसी के वकील/सरकारी वकील (पब्लिक प्रोसीक्यूटर) भी, अक्सर भ्रम की स्थिति में आ जाते हैं. लिहाजा ऐसे में कोर्ट में पहुंची कमजोर फाइल को ताड़ते ही जज, आरोपी को उसका सीधा और तुरंत कानूनी तौर पर भी लाभ दे देते हैं. हां, यह तभी संभव होता है जब उस घटना में बात किसी के कत्ल तक न पहुंची हो. यही वजह है कि उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों में गिरफ्तार आरोपियों को करीब एक एक साल बाद कोर्ट से जमानत मिल पाई.क्योंकि वहां 53 लोग मारे गये थे. जबकि लाल किला हिंसा में कत्ल जैसी किसी घटना को अंजाम नहीं दिया गया था, तो उसमें लिप्त या गिरफ्तार संदिग्धों को कुछ दिन या महीनों बाद ही जमानत दे दी गयी.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सीनियर वकील डॉ. ए.पी. सिंह और दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड डीसीपी (स्पेशल सेल) लक्ष्मी नारायण राव इस मत से बराबर की सहमति जताते हैं कि, "कोर्ट/जज अगर किसी जांच एजेंसी/पड़ताली अफसर की कार्य-प्रणाली पर सीधे कोई टिप्पणी खुली अदालत में करते हैं. यह सीधे सीधे जांच एजेंसी के लिए शर्मनाक बात है. जैसा कि लाल किला कांड (किसान ट्रैक्टर रैली की आड़ में) और दिल्ली दंगों के कई गिरफ्तार आरोपियों को जमानत देते वक्त दिल्ली की निचली अदालत और दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को खरी-खरी सुनाई है."


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