सम्पादकीय

पुलिस का चेहरा

Subhi
30 Sep 2021 1:04 AM GMT
पुलिस का चेहरा
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उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि वह अपराध को खत्म करने के प्रति वचनबद्ध है। इसलिए उसने पुलिस को कुछ मुक्तहस्त भी कर रखा है।

उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि वह अपराध को खत्म करने के प्रति वचनबद्ध है। इसलिए उसने पुलिस को कुछ मुक्तहस्त भी कर रखा है। मगर स्थिति यह है कि वहां अपराध तो मिटता दिख नहीं रहा, पुलिस अलग से अपराध करती दिखने लगी है। इसी का ताजा उदाहरण है कि गोरखपुर में छह पुलिस कर्मियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करना पड़ा। हुआ यों कि दो दिन पहले गोरखपुर के एक होटल में जांच के लिए पुलिस पहुंची और वहां ठहरे कानपुर से आए एक व्यवसायी से मारपीट शुरू कर दी। उसमें उस व्यवसायी की मौत हो गई। पुलिस का कहना है कि वह व्यवसायी नशे में था और पूछताछ के दौरान गिर पड़ा, जिससे सिर में चोट लगी और उसकी मौत हो गई। इस घटना ने तूल पकड़ा तो अखिरकार प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस मामले में संज्ञान लिया, व्यवसायी की पत्नी से फोन पर बात की और इस मामले से जुड़े छह पुलिस कर्मियों को निलंबित कर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया।

इस मामले में जिस तरह प्रदेश सरकार ने तत्परता दिखाई, उससे निस्संदेह एक अच्छा संदेश जाता है। मगर इससे प्रदेश पुलिस का चेहरा बदलने का दावा करना मुश्किल है। करीब दो साल पहले भी इसी तरह लखनऊ में पुलिस ने अपराधी होने के शक में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के कर्मचारी को गोली मार दी थी। तब भी उसकी पत्नी से मुख्यमंत्री को इसी तरह माफी मांगनी पड़ी थी। मगर प्रदेश में आए दिन ऐसी घटनाएं होती हैं, जिनमें पुलिस किसी को भी बेरहमी से पीटती नजर आती है। हाथरस की बलात्कार पीड़िता लड़की की मौत के बाद उसकी लाश को चोरी-छिपे रात के अंधेरे में जला देने की घटना का कलंक तो अब तक उसके माथे से नहीं मिटा है। उसके पक्षपातपूर्ण व्यवहार और अपराधियों से गठजोड़ के किस्से तो अनेक हैं। आए दिन ऐसी घटनाओं को लेकर उत्तर प्रदेश की निंदा होती रहती है, मगर वह शायद अपने कामकाज के तरीके में बदलाव को तैयार ही नहीं जान पड़ती। ऐसा नहीं माना जा सकता कि उत्तर प्रदेश के पुलिस कर्मियों को इस बात का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता होगा कि आपराधिक मामलों से कैसे निपटा जाता है। पुलिस इस बात से भी अनजान नहीं कि अगर किसी पर अपराधी होने का शक है, तो उसके साथ कैसे व्यवहार किया जाता है।
अपराध रोकना बेशक पुलिस की जिम्मेदारी है, मगर इससे उसे यह अधिकार कतई नहीं मिल जाता कि वह किसी के साथ इस तरह मार-पीट करे कि उसकी जान ही चली जाए या वह जीवन भर के लिए अपंग हो जाए। गोरखपुर के होटल में ठहरे जिस व्यवसायी पर उसे अपराधी होने का शक था, वह उसे सामान्य ढंग से गिरफ्तार कर थाने ला सकती थी। वहां वह पूछताछ करती, तहकीकात करती कि क्या वास्तव में वह अपराधी है। मगर उत्तर प्रदेश पुलिस को तो अपने डंडे पर कुछ अधिक ही भरोसा है और वह उसी ठौर न्याय कर देना चाहती है, इसलिए वह मानवीय और पेशेवर नैतिकता की परवाह नहीं करती। हैरानी की बात है कि उत्तर प्रदेश पुलिस की ऐसी कार्यशैली को लेकर बार-बार सरकार को भी निंदा झेलनी पड़ती है, मगर कभी वहां के मुख्यमंत्री ने भरोसा नहीं दिलाया कि वे पुलिस के कार्य-व्यवहार को मानवीय बनाने का प्रयास करेंगे। पुलिस के ऐसे चेहरे के साथ कोई भी सरकार भला कहां तक अपनी लोक-कल्याणकारी छवि बनाए रख सकती है!


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