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सम्पादकीय
पीओके : 'आजादी' का मिथक, जनमत संग्रह के औपचारिक प्रस्ताव और सामाजिक-राजनीतिक इच्छाशक्ति
Rounak Dey
25 Sep 2022 2:06 AM GMT
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संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जनमत संग्रह की पेशकश की थी। जिन्ना ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
जम्मू और कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान बार-बार 'आजादी' और ' जन इच्छा' का नारा लगाता है। लेकिन कश्मीर के जिस हिस्से पर उसने 1947 से अवैध कब्जा किया हुआ है, वहां पर उसने इस सिद्धांत को कितना अमल में लाया? अभी तक जनमत संग्रह के तीन औपचारिक प्रस्ताव हुए हैं और हर मौके पर पाकिस्तान ने उसे खारिज कर दिया। माउंटबेटन ने दो नवंबर, 1947 को अपनी वार्ता में जिन्ना को संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जनमत संग्रह की पेशकश की थी। जिन्ना ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
उन्होंने सुझाव दिया कि इसके बजाय जनमत संग्रह को माउंटबेटन और उनके द्वारा द्विपक्षीय रूप से आयोजित किया जाना चाहिए। माउंटबेटन ने कहा कि वह सरकार के सांविधानिक प्रमुख होने के नाते ऐसा नहीं कर सकते। आखिर जिन्ना ने संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत जनमत संग्रह के प्रस्ताव को क्यों नकार दिया? जबकि उसके बाद से पाकिस्तान की यह आधिकारिक स्थिति बनी हुई है। उस समय कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित कबायली हमला जारी था और कबायलियों ने बिना फर्क किए हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों के साथ बलात्कार और लूटपाट को अंजाम दिया। जिन्ना समझते थे कि ऐसी परिस्थिति में जनमत संग्रह का परिणाम पाकिस्तान के पक्ष में नहीं होगा।
दूसरा मौका 1950 में था, जब संयुक्त राष्ट्र के मध्यस्थ ओवेन-डिक्शन ने जनमत संग्रह का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने क्षेत्रीय जनमत संग्रह का सुझाव दिया था, क्योंकि एकल जनमत संग्रह के नतीजे से सीमा के दोनों तरफ अल्पसंख्यकों के समूह बचेंगे और उनका जबरन विस्थापन होगा। उन्होंने प्रस्ताव को घाटी तक सीमित कर दिया था, क्योंकि अन्य हिस्सों का परिणाम जनसंख्या की संरचना को देखते हुए सर्वविदित था। संयुक्त राष्ट्र को सौंपी रिपोर्ट में ओवेन-डिक्शन ने बताया कि भारत इस पर विचार करने के लिए तैयार था, पर पाकिस्तान ने इसे ठुकरा दिया। पाकिस्तान के प्रस्ताव ठुकराने का घोषित कारण यह था कि क्षेत्रीय जनमत संग्रह एकल जनमत के सिद्धांत से हटना था। ओवेन-डिक्सन ने बताया कि पाकिस्तान राज्य के विभाजन पर विचार करने के लिए तैयार था, बशर्ते कि उसे घाटी मिल जाए। एकल जनमत संग्रह केवल एक बहाना था।
तीसरी बार पाकिस्तान ने 1953 में शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी के बाद द्विपक्षीय वार्ता का प्रस्ताव किया। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा वार्ता के लिए भारत आए। नेहरू-बोगरा वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में दोनों देशों ने जनमत संग्रह के लिए प्रतिबद्धता जताई। बोगरा वापस चले गए और तीन महीने बाद एक दिसंबर को नेहरू को लिखे एक पत्र में उन्होंने जनमत संग्रह को रद्द कर दिया। उसका भी कारण वही था, जिसका हवाला पाकिस्तान ने 1950 में ओवेन-डिक्सन के प्रस्ताव को ठुकराते हुए दिया था। हम देख चुके हैं कि एकल जनमत संग्रह केवल एक बहाना था। शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के बाद भी पाकिस्तान जनमत संग्रह का जोखिम नहीं उठाना चाहता था।
इस तरह पाकिस्तान ने नेहरू के 1955 के बयान के चार महीने पहले ही जनमत संग्रह के विचार को खत्म कर दिया। पाकिस्तान ने बार-बार जनमत संग्रह को क्यों ठुकराया? पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र के मध्यस्थ ओवेन-डिक्सन के भारत दौरे से एक महीने पहले अप्रैल 1950 में पाक अधिकृत कश्मीर के पहले राष्ट्रपति सरदार इब्राहिम को बर्खास्त कर दिया था। यह उसके कबीले सुधन के विद्रोह की शुरुआत थी। जल्दी ही यह विद्रोह पीओके के अन्य हिस्सों में फैल गया। इसे कुचलने के लिए पाकिस्तानी सेना द्वारा शुरू किया गया सैन्य अभियान 1950 के दशक के अंत तक जारी रहा। पीओके में ऐसे अशांति को देखते हुए पाकिस्तान जानता था कि उसके अधिकृत क्षेत्र में भी जनमत संग्रह का परिणाम उसके पक्ष में नहीं होगा।
चार दशक बाद, बेनजीर भुट्टो ने 1994 में द न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में कश्मीर में जनमत संग्रह को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि यह मुस्लिम वोट को बांटने की साजिश है। किसी भी जनमत संग्रह में, हिंदू (बौद्ध और सिख) भारत के पक्ष में वोट करेंगे। उन्होंने कहा कि मुस्लिम वोट आजादी चाहने वालों और पाकिस्तान में शामिल होने वाले धड़ों के बीच बंट जाएगा। वह यह कहना भूल गईं कि कुछ मुस्लिम भी भारत के पक्ष में वोट करेंगे। उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति में सीमा का परिवर्तन नहीं होगा। यह स्वीकारोक्ति थी कि पाकिस्तान जनमत संग्रह में हार जाएगा।
वर्ष 1974 में स्वीकार किए गए पीओके के अंतरिम संविधान के अनुच्छेद 4.7(3) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति या पक्ष को पीओके के पाकिस्तान में विलय को चुनौती देने की अनुमति नहीं है। यह किसी भी जनमत संग्रह के नतीजे को केवल एक विकल्प तक सीमित कर देता है-पाकिस्तान में विलय। यह पूर्व निर्णय है, आत्म-निर्णय नहीं। भारत में आजादी का नारा लगाकर अशांति फैलाने वाले जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट को पीओके के चुनाव में भाग लेने की अनुमति नहीं है।
भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाने से एक साल पहले, पाकिस्तान ने 2018 में पीओके में 32 विषयों पर सीधे विधायी और कार्यकारी अधिकार हासिल किया। बाकी 22 विषयों पर कानून बनाने के लिए पाकिस्तान की मंजूरी जरूरी है। उसी वर्ष के गिलगिट-बाल्टिस्तान आदेश के तहत, सभी विधायी अधिकार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री में निहित हैं, जो निर्वाचित विधानसभा और लोकतंत्र का मजाक उड़ाना है।
सोर्स: अमर उजाला
Rounak Dey
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