सम्पादकीय

अमेरिकी अखबार में भारत के विरुद्ध विषवमन, मिथ्या विज्ञापन की सत्यता को सामने लाना जरूरी

Rani Sahu
16 Oct 2022 6:13 PM GMT
अमेरिकी अखबार में भारत के विरुद्ध विषवमन, मिथ्या विज्ञापन की सत्यता को सामने लाना जरूरी
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सोर्स - JAGRAN
ए. सूर्यप्रकाश]। भारत विरोधी समूहों ने एक प्रमुख अमेरिकी अखबार में बड़ा विज्ञापन दिया है। विज्ञापन की विषयवस्तु झूठ और दुष्प्रचार से भरी है, जिसका उद्देश्य देश में सामाजिक विभाजन कराकर असंतोष को बढ़ावा देना है। 'अमेरिकी लोगों के नाम खुला पत्र' शीर्षक से प्रकाशित इस विज्ञापन को अमेरिकन मुस्लिम इंस्टीट्यूशन, एसोसिएशन आफ इंडियन मुस्लिम्स आफ अमेरिका और कुछ अन्य संगठनों ने मिलकर दिया है।
इसमें भारत पर बहुत शातिराना हमला करते हुए लिखा गया है कि 'मुस्लिमों, ईसाइयों और सिखों को भेदभाव झेलना पड़ रहा है। उनके घर, उद्यम, मस्जिद, चर्च और पंथिक संस्थान गिराए जा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार परोपकारी उद्देश्य से छोड़ी गई मुस्लिमों की भूमि और संपत्ति को गैर-कानूनी तरीके से हड़प रही है। वंचित भारतीयों की देखभाल और शिक्षा का समर्थन करने वाले गैर-हिंदू धार्मिक संस्थानों की विदेशी मदद पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं।' इसमें ऐसे बेतुके दावे तक किए गए हैं कि 'भारतीय न्यायपालिका और पुलिस भाजपा-आरएसएस के प्रति वफादारों से भरी हुई है और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए कुछ नहीं करती।'
अखबार ने भी यह विज्ञापन प्रकाशित कर गैर-जिम्मेदाराना रवैये का परिचय दिया, तो विज्ञापनदाताओं ने भी सुविधाजनक रूप से सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट के उन फैसलों को अनदेखा किया, जिसमें नागरिकों के मूल अधिकारों को संरक्षण प्रदान किया गया। यह वर्ग हमेशा यही करता आया है। यह विज्ञापन शरारती सामग्री से भरा है। इसके माध्यम से विश्व के सबसे विविधतापूर्ण समाज और दुनिया के सबसे विशाल एवं जीवंत लोकतंत्र को कलंकित करने का सुनियोजित षड्यंत्र किया गया है। विज्ञापन का उद्देश्य यह झूठ प्रचारित करना भी है कि भारत केवल इकलौती राजनीतिक पार्टी भाजपा द्वारा शासित हो रहा है, जो अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों पर चलती है।
ऐसे झूठ की पोल खोलना बहुत जरूरी है, क्योंकि यह न केवल भारतीय संविधान के संघीय चरित्र को, बल्कि आबादी के साथ-साथ शासन के बहुलतावादी स्वरूप को छिपाने का भी प्रयास है। पिछली सदी के छठे दशक में लोकसभा में 12 राजनीतिक दलों का ही प्रतिनिधित्व था। चुनावी राजनीतिक मोर्चे पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता के विस्तार से यह संख्या बढ़कर अब 40 से अधिक हो गई है।
भारत-विरोधी एजेंडा चलाने वालों ने एक और सच्चाई को अनदेखा किया कि भारत के 28 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों में विधानसभाओं का भी प्रविधान है। उनमें से केवल 12 में ही भाजपा की सरकारें हैं। शेष 18 राज्यों में उन तमाम समुदायों से जुड़ी और भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं, जिनमें से अधिकांश के बीच भाजपा से कोई समानता नहीं।
विज्ञापन में दूसरा संकेत यही किया गया है कि राजनीतिक सत्ता पूरी तरह हिंदू बहुसंख्यकों के हाथ में है और ईसाई, मुस्लिम, सिख और अन्य धार्मिक समूह उनके अधीन हैं। यह सरासर झूठ है, क्योंकि देश में चार ईसाई, दो बौद्ध और एक सिख मुख्यमंत्री हैं। दूसरी और महत्वपूर्ण बात यह कि कानून एवं व्यवस्था का संवैधानिक दारोमदार मुख्य रूप से राज्यों की जिम्मेदारी है। इसका मोदी सरकार से उतना सरोकार नहीं।
संभव है कि भाजपा खुद पर लगे इन आरोपों का जवाब देगी, लेकिन यहां कुछ तथ्यों की बात हो जाए। भाजपा पर अल्पसंख्यक विरोधी आरोपों की तथ्यपरक पड़ताल होनी चाहिए, जिन्हें भारत विरोधी एजेंडा चलाने वाले छिपाते हैं। जैसे कि भारत में जो सात गैर-हिंदू मुख्यमंत्री हैं, उनमें से पांच भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के हैं। साथ ही, भाजपा पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य में एक मुस्लिम पार्टी और पंजाब में सिख पार्टी के साथ गठबंधन सरकार का हिस्सा रही है।
संयोग से, देश में सबसे अधिक बौद्ध आबादी वाले दो राज्यों अरुणाचल और सिक्किम में भाजपा अपने बलबूते या गठबंधन के जरिये सरकार में है, जिनका नेतृत्व बौद्ध मुख्यमंत्रियों के हाथ में है। भाजपा पर दलित और आदिवासी विरोधी होने के आरोप कहीं नहीं टिकते, क्योंकि न केवल इन समुदायों से उसे चुनावों में भारी समर्थन मिल रहा है, बल्कि वह अनुसूचित जनजातियों की सबसे अधिक आबादी वाले दो राज्यों की सत्ता में भी है।
यदि यह तर्क पर्याप्त न हो तो जरा इस पर भी गौर कर लीजिए कि भाजपा ने पिछली बार एक दलित राम नाथ कोविन्द और इस बार एक आदिवासी द्रौपदी मुर्मु को राष्ट्रपति बनाया, जो कि देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति हैं। यदि पार्टी ने अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडे में उनके उत्थान पर ध्यान केंद्रित न किया होता तो क्या उसके और इन समुदायों के बीच इतनी मजबूत कड़ी जुड़ सकती थी।
भले ही उक्त विज्ञापन की दिखावटी मंशा एक राजनीतिक दल को निशाना बनाने की हो, पर उसके पीछे का व्यापक एजेंडा छिपा नहीं, जिसका मकसद भारत और भारत की अतुलनीय संवैधानिक-लोकतांत्रिक परंपराओं का अवमूल्यन करना है। दो साल पहले फ्रीडम हाउस नाम की संस्था ने सच्चाई से कोसों दूर दावा किया था कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अभाव है। दिलचस्प है कि विज्ञापनदाताओं ने अमेरिकियों से अपील की है कि वे अमेरिकी सांसदों और बाइडन प्रशासन से संपर्क कर भारत सरकार को उसकी गतिविधियों के लिए जवाबदेह बनाने के लिए दबाव बनाएं। इसका कोई तुक नहीं। भारत सभ्यतागत पंथनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक है। यहां तो लोकतंत्र और बहुलता साथ-साथ चलकर भारतीय समाज को जीवंतता प्रदान करते हैं।
भारत के विरुद्ध विषवमन करने वाले खुद को ही क्षति पहुंचा रहे हैं। यह शर्मनाक है कि देश में स्वतंत्रता का आनंद उठाने वाला एक वर्ग भारत विरोधी पश्चिमी दुष्प्रचार को बढ़ावा दे रहा है। भारत में स्वतंत्रता का महत्व समझने वाला कोई भी सच्चा लोकतांत्रिक व्यक्ति कभी इसका सहारा नहीं लेगा। जो भी लोग ऐसा कर रहे हैं, उन्हें चेताने का समय आ गया है। देश के व्यापक हित में यही होगा कि हम यह उम्मीद और प्रार्थना करें कि कुछ लोगों की शरारत खुद-ब-खुद पूरी होने वाली भविष्यवाणी न बन जाए।
Rani Sahu

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