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- कविता : धर्मस्थल
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इक निर्माता ने इक धर्मस्थल कर निर्मित/प्रकृति की गोद में स्थापित किया
इक निर्माता ने इक धर्मस्थल कर निर्मित/प्रकृति की गोद में स्थापित किया/मंदिर बड़ा है या प्रकृति उसमें है समाई/इस भ्रमजाल में प्राणी को उलझाया/देवी-देवताओं की मूर्तियों से मंदिर सजाया/प्रवेश द्वार, झरोखे मजबूत कर/न जाने किस काश्तकार ने नक्काशी की/मंदिर के गर्भगृह में सजाई इक मूर्ति/जो हरेक सूरत को प्यारी लगी/मखमली चादरें बिछाईं, रंग-बिरंगे फूलों के बाग लगाए/स्वर लहरियां बजी, नृत्यांगनाएं-नर्तक नचाए/मेहराब पे अपना तख्त सजाया/जिसको दुनिया ने भुलाया/ निर्माता का निरादर किया/हुई कई दुर्घटनाएं और लड़ाइयां/पता नहीं, कहां गई कौनसी मूर्तियां/दुर्जनों ने अपना नाश स्वयं कर लिया/करके कुकर्म अपना दामन कांटों से भर लिया/संतजन भूल न पाए भाग्यविधाता को/संसार के बंदों का उद्धार किया/सिमरन कर मालिक का बंदों को पतन से बचा लिया/ये धर्मस्थल युगों पहले निर्मित हुआ/आज भी तरोताजा और रंगीन है/क्योंकि ये उसकी (मालिक) की देन है।
-अंजना, लूनापानी, मंडी
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