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- कविता : बैसाखी….

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सोना चमका खेत में/चांदी छनकी पैर में/फल-फूल महके उपवन में/आई जवानी ढलते सूरज में/गिद्दा भांगड़ा शुरू हो गया आंगन में/वीर शहीदों के नाटक रचे स्कूल प्रांगण में/तन-मन जाग उठा देश के लिए/जलते रहे मातृ भूमि को देखने इन आंखों के दीये/कभी किसी पहाड़ की चोटी से देखा करते थे/खेतों में
सोना चमका खेत में/चांदी छनकी पैर में/फल-फूल महके उपवन में/आई जवानी ढलते सूरज में/गिद्दा भांगड़ा शुरू हो गया आंगन में/वीर शहीदों के नाटक रचे स्कूल प्रांगण में/तन-मन जाग उठा देश के लिए/जलते रहे मातृ भूमि को देखने इन आंखों के दीये/कभी किसी पहाड़ की चोटी से देखा करते थे/खेतों में, फैले रंग लाल, पीला, नीला, हरा/गायब होने लगा अब ये नजारा/गगनचंुबी इमारतें खड़ी होने लगी/जिस तरफ भी देखें, गंदगी नजर आने लगी/समृद्ध भारत का ये सपना तो न देखा था वीर जवानों ने/विकसित होने की होड़ में संस्कृति खोई किसानों ने/उद्योग चलाने की होड़ में/रुक न जाए जिंदगी असली दौड़ में/निर्मल जल, निर्मल तन-मन/पावन घर-आंगन हो/इस तरह बैसाखी हर घर आए/गुरु गोबिंद-सा साहसी हर गृहिणी का साजन हो।
– अंजना आर्य, लूनापानी, मंडी

Rani Sahu
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