सम्पादकीय

पीएन सिंह: अभी न होगा मेरा अन्त....

Rani Sahu
11 July 2022 5:56 PM GMT
पीएन सिंह: अभी न होगा मेरा अन्त....
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कुछ लोग समाज में प्राण-वायु की तरह मौजूद रहते हैं

By लोकमत समाचार सम्पादकीय

कुछ लोग समाज में प्राण-वायु की तरह मौजूद रहते हैं। पीएन सिंह उन विरले लोगों में एक थे। ऐसे लोग सतह पर पर बहुत कम-कम दिखते हैं, कम-कम बोलते हैं, कम-कम चर्चा में रहते हैं, कम-कम विवाद में पडते हैं लेकिन अपनी उपस्थिति से समाज के बौद्धिक जीवन को प्राण-वायु देते रहते हैं। पीएन सिंह ऐसे ही लोगों में एक थे। कल शाम उनका देहावसान हो गया।
एक जुलाई 2022 को वह 80 बरस के हुए थे। उनके जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम को याद करते हुए प्रोफेसर चंद्रदेव यादव ने लिखा है, "अस्वस्थता के कारण पी.एन. सिंह उस कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सके थे। कार्यक्रम में उनका संदेश सुनाया गया। उसमें उन्होंने निराला की काव्य पंक्तियों को उद्धृत किया था--अभी न होगा मेरा अन्त।" इसमें शायद ही किसी को सन्देह हो। जब तक हिन्दी भाषा रहेगी, तब तक न निराला का अन्त होगा, और न शायद पीएन सिंह का।
पीएन सिंह बौद्धिक परिदृश्य की सतह पर इतने कम-कम दिखते थे कि उनसे पहला परिचय मित्र विजय गोविन्द के मार्फत हुआ। ठीक से याद नहीं कि बनारस में उनसे पहली बार कब और कहाँ मिलना हुआ था। उम्र 21-22 साल रही होगी। विजय गोविन्द की विलक्षण प्रतिभा पर वह आसक्त थे इसलिए उससे नियमित सम्पर्क में रहते थे। उस समय हम और विजय यथासम्भव साथ-साथ रहते थे तो मेरा भी उनसे मिलना हो जाता था। उन दोनों की बातचीत में मैं लगभग अप्रस्तुत सा श्रोताभाव से मौजूद रहता था।
पीएन सिंह बहुत साधारण दिखते थे। साधारण सा कुर्ता-पाजामा, कन्धे पर खादी झोला। मद्धम संयमित स्वर में बोलते थे। उस समय हिन्दी आलोचना में इतनी गति नहीं थी कि उनकी बातें समझ सकूँ लेकिन क्रिस्टोफर कॉडवेल और एडवर्ड सईद जैसों का नाम पहली बार शायद उन्हीं से सुना। पीएन सिंह की देहभाषा ऐसी थी कि वो सामने वाले को तत्काल बहुत साधारण अध्यापक जैसे लग सकते थे लेकिन उनकी चिन्ता और चिन्तन के केन्द्र में असाधारण विश्व-स्तरीय विचार हुआ करते थे।
आज पलटकर देखता हूँ तो लगता है कि पूर्वी यूपी का जो जिला गाजीपुर मीडिया में अपराधियों के लिए प्रसिद्ध है, वहाँ पीएन सिंह जैसे लोगों का वैश्विक बौद्धिक चिन्ताओं के साथ उपस्थित होना, घनघोर तपस्या ही है। पीएन सिंह के निधन के बाद उनके शुरुआती जीवन के बारे में खोज रहा था तो पता चला कि उन्होंने 1964 में कोलकाता में अंग्रेजी प्रवक्ता के रूप में करियर शुरू किया और 1971 में गाजीपुर वापस आ गए और घर के होकर रह गए। वह जिस मिट्टी में जन्मे थे, उसी में राख बनकर मिल गए। पुराने पण्डित घर पर मृत्यु को सौभाग्यसूचक बताते थे। पीएन सिंह इस मामले में भाग्यशाली रहे। गाजीपुर के सांस्कृतिक या बौद्धिक इतिहास एवं विरासत के प्रति पीएन सिंह काफी सचेत थे। कभी-कभी ऐसा लगता था कि वह गाजीपुर को काशी की छाया से निकालकर उजाले में लाने के लिए प्रयासरत रहते हैं, ताकि बौद्धिक समाज को गाजीपुर का अपना असल चेहरा साफ दिखे।
आज पीएन सिंह की प्रकाशित किताबों की सूची निकालकर देखी। उनकी किताबों के कुछ उदाहरण आप भी देखिए- भारतीय वाल्तेयर और मार्क्स: बीआर आम्बेडकर, मंडल आयोग एक विश्लेषण, नॉयपाल का भारत, गांधी, आम्बेडकर लोहिया, उच्च शिक्षा का संकट: समस्या और समाधान के बिन्दु, रामविलास शर्मा और हिन्दी जाति, आम्बेडकर प्रेमचंद और दलित समाज, आम्बेडकर चिन्तन और हिन्दी दलित साहित्य, गांधी और उनका वर्धा, हिन्दी दलित साहित्य: संवेदना और विमर्श, 'स्मृतियों की दुनिया'!
आज उनकी किताबों की सूची कसाथ देखते हुए जो पहली बात जहन में आयी वह यह है कि हिन्दी के उच्च-वर्णीय साहित्य में कितनों लोगों के बौद्धिक चिन्तन के केंद्र में आम्बेडकर इतने लम्बे समय से मौजूद रहे होंगे! हम जैसे लोग जिन्हें वोल्टेयर, मार्क्स और आम्बेडकर तीनों बहुत प्रिय हैं, उनके मन में आम्बेडकर को 'संविधान का मसौदा लिखने वाली समिति के प्रमुख' की छाया से निकालकर उजाले में लाने का काम आम्बेडकरवाद का झण्डाबरदार हुए बिना, पीएन सिंह कैसे कर गए, समझना मुश्किल है।
पीएन सिंह ने अपनी किताबों और आलेखों में जो लिखा है, वह दुनिया के सामने है। उनके लिखत से इतर उनकी कही एक बात मुझे कभी नहीं भूलती। आप कह सकते हैं कि उस कथन ने मुझे कई बार रास्ता दिखाया है। पीएन सिंह से आखिरी सदेह मुलाकात जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में हुई थी। शायद वह प्रोफेसर दुर्गा प्रसाद गुप्त से मिलने आए थे। साल 2005 के बाद की बात होगी। मैं कुछ मानसिक उलझनों में बेतरह उलझा हुआ था। पीएन सिंह आए तो विजय ने कहा कि उनसे मिलना है। मन तो उलझन में था तो आधेमन से उनसे मिलने गया। विजय और पीएन सिंह हिन्दी के अकादमिक विमर्शों पर अबाध चर्चा कर रहे थे, मैं सुन रहा था। पीएन सिंह, बीच-बीच में मेरी तरफ देखते थे, शायद इसलिए कि क्या मेरी भी कोई राय है क्या! जब वो जाने लगे तो मेरी तरफ फिर देखा तौ मैंने कहा, मैं आपसे एक अलग सवाल पूछना चाहता हूँ कि मन में हमेशा द्वंद्व क्यों बना रहता है, ये सही है कि वो, ये करूँ कि वो...। पीएन सिंह ने बहुत जरा सा मुस्कराते हुए कहा, 'द्वंद्व में रहना तो बुद्धिजीवी का स्वभाव है, द्वंद्व में रहकर जीने की आदत डाल लीजिए...बौद्धिक व्यक्ति को जीते जी आपको इससे मुक्ति नहीं मिलेती है।' उनका वह कहन तब से मेरे जहन में टहल करता आ रहा है। जीवन जितना रीतता जा रहा है, उनका कथन उतना सत होता आ रहा है।
अगर किसी शहर का बौद्धिक तापमान मापने की कोई व्यवस्था होती तो पीएन सिंह के निधन पर यह शीर्षक जरूर लगता कि कल शाम गाजीपुर के बौद्धिक तापमान में भारी गिरावट दर्ज की गयी। पीएन सिंह के निधन का मर्म वही समझ सकेंगे जो हिन्दी ग्राम के बौद्धिक पुरवा के रहवासी हैं। कहना न होगा, पूर्वी यूपी के हर जिले के हर कॉलेज को एक पीएन सिंह की आज भी सख्त जरूरत है, जो विश्व स्तरीय वैचारिकता का दीया वहाँ जलाए रखे।

इन्हीं शब्दों के साथ दिवंगत को कृतज्ञतापूर्ण नमन करता हूँ।


Rani Sahu

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