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By: divyahimachal
लोकसभा में विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव पराजित हो गया। यह नतीजा पहले से ही तय था, क्योंकि बहुमत का आंकड़ा एकतरफा था। वैसे भी बहस के बाद विपक्ष मत-विभाजन की मांग नहीं कर सका, क्योंकि उसने प्रधानमंत्री के वक्तव्य के अधबीच ही बहिर्गमन कर दिया था। प्रधानमंत्री मोदी कुल 2 घंटा 13 मिनट बोले। करीब डेढ़ घंटा बीत जाने के बाद वह मणिपुर और पूर्वोत्तर पर आए। उससे पहले उन्होंने विपक्षी गठबंधन को ‘घमंडिया’ कहा। परिवारवाद और दरबारवाद की बात कही। विपक्ष के व्यवहार को ‘शुतुरमुर्ग’ जैसा करार दिया। ‘कब्र खुदेगी’ वाले कांग्रेसी बयान को अपने लिए ‘टॉनिक’ माना। कांग्रेस के ‘सीक्रट वरदान’ की बात कही कि वह जिसका बुरा चाहेगी, उसका अच्छा ही होगा। प्रधानमंत्री ने संसद में ही दावा किया कि 2024 में भाजपा-एनडीए तमाम रिकॉर्ड तोड़ते हुए, जनता के आशीर्वाद से, लगातार तीसरी बार सरकार में लौटेंगे। सरकार के तीसरे कार्यकाल में ही भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा। दरअसल प्रधानमंत्री के वक्तव्य में कोई नवीनता नहीं थी। वह गांधी परिवार, कांग्रेस और ‘इंडिया’ गठबंधन पर प्रहार और व्यंग्य करते रहे, क्योंकि यही उनकी चार दशक से अधिक समय से राजनीति रही है। प्रधानमंत्री ने ‘गरीबी’ पर अपनी पीठ ठोंकी कि उनके शासन-काल में 13.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं। यह नीति आयोग की रपट है। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को उद्धृत करने से सच स्पष्ट नहीं होता। प्रधानमंत्री ने यह खुलासा नहीं किया कि देश में कितने गरीब लोग हैं और कितनी आबादी अब भी गरीबी-रेखा के नीचे है? आरएसएस के सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबले ने कहा था कि आज भी 23.5 करोड़ लोग गरीब या गरीबी-रेखा के तले जीने को विवश हैं।
वे रोजाना 350 रुपए कमाने में भी असमर्थ हैं। प्रधानमंत्री नीति आयोग और दत्तात्रेय की रपटों का तुलनात्मक खुलासा करें कि यथार्थ क्या है? यह भी स्पष्ट करें कि क्या गरीबी-रेखा की नई परिभाषा तय कर ली गई है कि कितनी आमदनी वाला नागरिक उसकी परिधि में आएगा? सवाल यह भी है कि कोरोना की समाप्ति के बावजूद 80 करोड़ से अधिक भारतीयों को 5 किलोग्राम मुफ्त अनाज हर माह क्यों देना पड़ रहा है? बेशक प्रधानमंत्री ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट का हवाला देते हुए कहा है कि ‘जल-जीवन’ योजना से 4 लाख लोगों की जान बची है और 3 लाख लोगों को मरने से बचाया गया है। ये लोग कौन हैं-गरीब, दलित, शोषित, वंचित और पिछड़े ग्रामीण। यानी देश में ऐसी जमात अब भी मौजूद है। उन्हें गरीबी से बाहर कैसे रखा जा सकता है? प्रधानमंत्री ने देश में कुपोषण और महिलाओं, शिशुओं में खून की कमी सरीखे भयावह सच का उल्लेख नहीं किया। उससे भी भारी संख्या में मौतें होती रही हैं। चिंतनीय स्थिति यह है कि इन गरीबों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे अपना इलाज करवा सकें। ‘आयुष्मान’ योजना के तहत सभी गरीब लाभान्वित नहीं हैं। बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर की जनता को आशान्वित किया है कि जल्द ही शांति का नया सूरज उगेगा। पूरा देश, पूरा सदन मणिपुर के साथ है, लेकिन हिंसा के दौर के 100 दिन गुजर जाने के बावजूद आज स्थिति क्या है, प्रधानमंत्री ने उसका जरा-सा भी जिक्र नहीं किया। मणिपुर के संवेदनशील इलाकों की औसतन तस्वीर यह है कि जली हुई बस्तियां, टूटे मकान, बंद पड़े, सुनसान बाजार आज का भयावह यथार्थ बयां कर रहे हैं। करीब 350 राहत शिविरों में 40,000 से अधिक लोग ठूंसे गए हैं।
ज्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं। युवाओं के हाथों में जाति या सोशल स्टेटस के नाम पर हथियार हैं-देसी भी और आधुनिक भी। शिविरों में बच्चे दूध के लिए रोते हैं, तो माताएं बिस्कुट खिला कर सुला देती हैं। कई महिलाएं गर्भवती हैं। उनके स्वास्थ्य की देखभाल के लिए न दवाएं हैं, न पर्याप्त खुराक है और न ही नर्स हैं। युवाओं ने किताबें छोड़ कर हथियार थाम रखे हैं और बंकरों के बाहर पहरा दे रहे हैं। होटल, रेस्तरां और टूरिज्म से जुड़े व्यापारी अपने मूल राज्यों को लौट चुके हैं। करीब एक लाख से ज्यादा कामगार घर बैठे हैं या पलायन कर चुके हैं। अविश्वास का मौका था, तो प्रधानमंत्री को सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छूना चाहिए था। राजनीति तो संसद के बाहर जारी रहती ही है। मणिपुर का मसला गंभीर जातीय हिंसा का मसला बन गया है। इसे प्राथमिकता के साथ हल किया जाना चाहिए। सभी संबद्ध पक्षों से बातचीत करके समस्या का सर्वसम्मत हल निकाला जा सकता है। राज्य की जनता हिंसा के पक्ष में नहीं है, अत: इस समस्या का हल निकालना इतना भी मुश्किल नहीं है।
Rani Sahu
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