सम्पादकीय

पीएम की मजबूरी या रणनीति

Gulabi
22 Nov 2021 4:25 AM GMT
पीएम की मजबूरी या रणनीति
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पीएम की मजबूरी

divyahimachal .

प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर चौंका दिया है। बीते शुक्रवार की सुबह 9 बजे उन्होंने अचानक देश को संबोधित किया और तीनों विवादास्पद कृषि कानून वापस लेने की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने 'सच्चे मन' और 'पवित्र हृदय' से, हाथ जोड़ कर, देश से माफी मांगी और कहा कि दीये के प्रकाश जैसा सत्य सरकार कुछ किसान भाइयों को समझाने में विफल रही, लिहाजा कानून रद्द करने का निर्णय लिया गया है। यह वाकई स्वागत-योग्य निर्णय है। देश के प्रधानमंत्री के माफीनामे को सिर्फ चुनावी भय से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। बेशक विपक्ष कुछ भी व्याख्याएं करे, लेकिन यह कोई सामान्य और सतही घटना नहीं है। यह किसी की जीत या हार भी नहीं है, लेकिन इस निर्णय ने एक राष्ट्रीय संदेश दिया है कि सरकार लोगों की सुन रही है, बल्कि खुद प्रधानमंत्री बाध्य हुए हैं कि उन्हें अपना महत्त्वपूर्ण फैसला वापस लेना पड़ा है। उन संदर्भों में यह भारत के लोकतंत्र की बड़ी जीत है। आंदोलित किसान भी इस देश के नागरिक हैं, लिहाजा यह एक सकारात्मक कदम है। बहरहाल अब संसद का शीतकालीन सत्र 29 नवंबर से शुरू हो रहा है। कानूनों की वापसी की संवैधानिक प्रक्रिया कृषि, खाद्य, उपभोक्ता मामलों के मंत्रालयों ने शुरू भी कर दी है। नए विधेयकों के मसविदे और कैबिनेट नोट तैयार किए जा रहे हैं।

कानूनों को वापस लेने की प्रक्रिया संसद के भीतर ही सम्पन्न होगी। अब सवाल यह है कि क्या यह निर्णय प्रधानमंत्री और भाजपा की चुनावी मजबूरी था अथवा इसे प्रधानमंत्री की नई रणनीति करार दिया जाना चाहिए? क्या अब किसान आंदोलन भी समाप्त होना चाहिए और किसान अपने घरों और खेतों को लौट जाएं? क्या प्रधानमंत्री ने यह घोषणा कर विपक्ष का असरदार मुद्दा छीन लिया है? सिर्फ यही नहीं, इस निर्णय में कई और आयाम निहित हैं। वे राजनीतिक, किसान की आय, समग्र आर्थिक सुधार और किसानों की आत्महत्या से जुड़े हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण पंजाब के विधानसभा चुनाव और सिखों के मुद्दे हैं। एक लंबे अंतराल से सिखों के प्रथम गुरू नानक देव जी से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा करतारपुर गलियारा बंद था। उसे खोलने का निर्णय प्रधानमंत्री मोदी ने किया। पंजाब में फरवरी, 2022 में चुनाव होने हैं। भाजपा पहली बार अकाली दल के बिना चुनाव में उतरेगी, लेकिन एक समानांतर शक्ति के तौर पर पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा के साथ आ सकते हैं। उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर अपनी 'पंजाब लोक कांग्रेस' पार्टी बनाई है। दोनों दलों में गठबंधन की घोषणा अभी शेष है। माना यह भी जा रहा है कि कैप्टन ने मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ जो मुलाकातें की थीं, उनमें उनका सुझाव था कि यदि विवादित कानून वापस ले लिए जाएं, तो भाजपा को रणनीतिक फायदा हो सकता है। संभव है कि कैप्टन की रणनीति के मद्देनजर भी यह निर्णय किया गया हो! प्रधानमंत्री ने माफीनामे और कानून वापस लेने का दिन गुरु नानक देव के 552वें प्रकाश-पर्व और देव-दीपावली को चुना। धार्मिक आस्थाएं भी गहरे ज़ख्मों पर मरहम लगा देती हैं।


गुरु बाबा को लेकर भी सिख बेहद भावुक हैं। इसका साधुवाद प्रधानमंत्री के हिस्से भी आ सकता है। चूंकि उप्र और उत्तराखंड में भी चुनाव 2022 में ही होने हैं। इस निर्णय के पीछे राजनीतिक और चुनावी मजबूरियां भी हो सकती हैं, लेकिन किसान आंदोलन पर रणनीति महत्त्वपूर्ण है। कमोबेश इस मुद्दे को कमजोर करना जरूरी था। इसी दौरान उप्र के तराई इलाके में लखीमपुर खीरी कांड हो गया। उस इलाके को 'मिनी पंजाब' कहते हैं, लिहाजा उप्र के सिख वोट बैंक भी बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। चुनावी हवा यहां भी पूरी तरह अनुकूल नहीं है। बहरहाल विवादास्पद कानून वापस ले लिए जाएंगे, लेकिन किसान और कृषि संकट के मुद्दे बरकरार रहेंगे। यह नीति आयोग की ही रपट है कि देश के 17 राज्यों में किसान की औसत सालाना आय करीब 20,000 रुपए है। सरकार के एनएसएसओ के आंकड़े खुलासा कर चुके हैं कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी नहीं हो सकती, लिहाजा सरकार एमएसपी का गारंटी कानून बनाकर आर्थिक सुधार करने के पक्ष में है, लेकिन अब किसान आंदोलन भी समाप्त होना चाहिए। प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सौदेबाजी उचित नहीं है। एमएसपी एक प्रशासनिक मामला है। वह सरकार के स्तर पर ही एक हस्ताक्षर के साथ लागू किया जा सकता है। फिलहाल किसान आंदोलन पर ही अड़े हैं।


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