सम्पादकीय

मेहनत के पसीने का सुख

Subhi
6 Sep 2022 5:34 AM GMT
मेहनत के पसीने का सुख
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उस काम करते हुए मजदूर की उम्र पचास साल के आसपास थी। उसका शरीर सुगठित और उसके सिर के बाल सही-सलामत थे और अच्छे-खासे काले थे। बदन पर पसीना था

हरीशचंद्र पांडे; उस काम करते हुए मजदूर की उम्र पचास साल के आसपास थी। उसका शरीर सुगठित और उसके सिर के बाल सही-सलामत थे और अच्छे-खासे काले थे। बदन पर पसीना था और उसे देख कर लगा कि काम करते हुए भी वह आनंदित और सहज था। उसके स्वस्थ तन, काले केश और इस उम्र में उत्साह का राज भी समझ में आ गया। तन से टपकता पसीना। वह पसीना जो बूंद-बूंद टपक कर गिर रहा था, और अपने साथ जहरीले रसायनों को भी निकाल कर बाहर कर रहा था। आज हमारे युवा जो निरंतर बैठे रहते हैं, शारीरिक श्रम करने में आलस करते हैं, वे बीस-बाईस बरस के युवा भी इस मजदूर के सामने उन्नीस ही साबित होंगे। आज समय ऐसा है कि सेहत को लेकर एक से बढ़कर एक सूत्र और फार्मूले प्रचलित हैं।

दरअसल, आज जो सेहत संबंधी जानकारी दी जाती है, वह बस यहां से वहां साझा कर ली जाती है। युवा उस पर अमल नहीं करते हैं। इसके बरक्स समाज में एक बुजुर्ग वर्ग भी है, जिसका कहना है कि जिस पसीने को बहाकर उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, मधुमेह, माइग्रेन, तनाव जैसी हर बीमारी से निजात पाई जा सकती है, उसे काफी समय से अनदेखा किया जा रहा है। अपने समय के स्वस्थ और प्रसन्न मन के ये लोग कहते हैं कि बाहर धूप में निकलो, पसीना बहाकर देखो तब पता चले कि सेहत होती क्या है।

गहराई से देखें तो मजदूर वर्ग न तो रोज मुट्ठी भर कर मेवे खाता है, न अलग-अलग स्वाद से भरा दलिया। वह प्याज-नमक-रोटी खाता है और पसीना बहाता है। थोडी देर हौले-हौले टहल कर आना, फिर एक गिलास फल का रस पीना और हल्का-सा ध्यान करके पनीर और मलाई-कोफ्ता खाना। यह सेहत के संदर्भ में बहुत ही सतही और स्थूल विचार हैं। इसीलिए यह सब इतना सरल और आसान अभ्यास करते हुए भी शरीर वैसा ही रहता है और हम भी खुद को भारी-भारी सुस्त और ढीला-ढाला ही महसूस करते हैं।

यही तौर-तरीका हर शहर में मिलेगा। रोज योग की कक्षा से लौट रहे हैं और वह भी वातानुकूलित कार में रास्ते में चाट-पकौडी और शीतल पेय से कोई दिक्कत नहीँ। अगर ऐसे लोगों को जरा-सा टोक दो तो जवाब मिलता है कि हमारी दिनचर्या के पैमाने अलग हैं। सरलीकरण की हमारी आदत ही शरीर से पर्याप्त मात्र में पसीना बाहर निकलने नहीँ देती। एक समय ऐसा था जब स्कूलों में श्रम का सम्मान करने वाले नागरिक का निर्मण होता था, अब श्रम भी पूंजीवाद में शोषण का पर्याय हो गया है।

एक लघु फिल्म में एक समूह को गुस्सा करते दिखाया जाता है और तुरंत बाद एक नाटकीय कार्यशाला के अंतर्गत उन आक्रामक और गुस्सैल प्रतिभागियों का किसी पुरस्कार या इनाम के लिए खूब पसीना निकाला जाता है। पुरस्कार राशि की खातिर वे पत्थर तोडते हैं और मिट्टी खोदते हैं। एक पोखर तैयार हो जाता है। इस शारीरिक श्रम और भरपूर पसीना निकलने के बाद वे हंसते हैं और काफी विनम्र, उदार और शांत हो जाते हैं। ऐसा सिद्ध करने के लिए उनका सामाजिक व्यवहार दिखाया गया है कि अब सार्वजनिक बसों की यात्रा में, सरकारी कैंटीन में वे आक्रामक और गुस्सैल लोग एकदम शांत होते हैं, क्योंकि भीतर जो रसायन जमता जा रहा था, वह खुद पर ही हमला कर रहा था।

इसी तरह एक साधारण से शारीरिक अभ्यास के दौरान दावा किया गया था कि इसे करने वाले अगर कुछ दिन तक रोज दस मिनट पसीना बहाते हैं तो इससे उनकी भूलने की बीमारी तक से निजात पाई जा सकती है। पसीना बहाना एक आम कसरत है। घर की छत पर झाडू और किसी कमरे में पोंछा लगाकर भी पसीना बहाया जा सकता है। मानव शरीर की संरचना ऐसी ही है कि इसे खूब सक्रिय रखा जाए और पसीना बहाने लायक मेहनत की जाए। आज की सुविधाओं से लैस और आरामपरस्त जीवन शैली में सबसे ज्यादा जो चीज नजरअंदाज कर दी जाती है, वह शारीरिक श्रम ही है।

प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले बच्चे कितने साल एक बंद कमरे में गुजार देते हैं? वजन बढ जाता है और उदासी या अवसाद भी। पहले हर पाठशाला के साथ एक खुला मैदान होता था। पर अब खुले मैदान कहां और कितने रह गए हैं कि अगर कोई दौड-भागकर पसीना बहाना भी चाहे तो कहां जाए। पहलवान और खिलाडी देने वाले उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की ही चौंकाने वाली रिपोर्ट है कि इन राज्यों में तीस हजार से अधिक मैदान जो स्कूलों का हिस्सा थे, वे पूरी तरह गुम हो गए हैं। राजस्थान में हर साल एक हजार मैदान कम हो रहे हैं और नए खेल मैदान तैयार ही नहीं हो रहे। दिन की शुरुआत ही शारीरिक श्रम और पसीना बहाकर होने लगे तो उदासी और कलह या क्लेश के मामले भी खत्म हो जाएंगे। इसीलिए खुले मैदान लुभाते हैं कि खूब दौड़ लगाओ, कसरत करो उछल-कूद मचाओ और सेहत बनाओ।



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