सम्पादकीय

खेल-खिलाड़ी से पूंजी के खिलवाड़

Rani Sahu
21 Aug 2021 6:02 AM GMT
खेल-खिलाड़ी से पूंजी के खिलवाड़
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आज दुनिया उनके लिए बनाई जा रही है जो नंबर एक हैं, फिर वह पढ़ाई हो या खेल। करीब 125 करोड़ के हमारे भारत में ऐसे लोग सिर्फ सात ही हो सकते हैं

आज दुनिया उनके लिए बनाई जा रही है जो नंबर एक हैं, फिर वह पढ़ाई हो या खेल। करीब 125 करोड़ के हमारे भारत में ऐसे लोग सिर्फ सात ही हो सकते हैं, 34 करोड़ के अमरीका में 130 या फिर 140 करोड़ के चीन में 88! तो कोई गांधी आता है और पूछता है कि भाई, सात के बाद जो बचा करोड़ों का भारत उनका क्या करोगे? यह कैसा नियम है, सफलता का कैसा पैमाना है? मेडल तालिका में सबसे ऊपर खड़े अमरीका में भी केवल 130 लोग जीते हैं कि 34 करोड़ लोग भी जीते हैं? अगर सफलता की गिनती इस तरह करोगे तो उन 134 लोगों में शामिल होने के लिए मारकाट, ईष्र्या, द्वेष, लूट-बेईमानी होगी ही। तब खिलाड़ी नहीं, ड्रग्स जीतेगा, खिलाड़ी नहीं, पैसा खेलेगा! फिर यह जरूरी हो जाएगा कि खुद आगे निकलने के लिए दूसरे हर किसी को, किसी भी रास्ते नीचे धकेला जाए। जो ऊपर पहुंचा वह भी इसी मानसिकता का बीमार और पीछे छूट गया वह भी बीमार। एक बीमार सभ्यता, एक बीमार पागल समाज। यह समझा जाना चाहिए कि समाधान मानसिक बीमारी के इलाज से ज़्यादा बीमारी के कारणों में छिपा है…

हमारे समय में खेल तक पैसा कमाने का एक ऐसा जरिया बन गए हैं जिसमें चांदी काटने के लिए तरह-तरह के हथकंडे किए जाते हैं। हाल का टोकियो ओलिंपिक भी इससे अछूता नहीं रहा है। इस आलेख में खेल के इसी पक्ष की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे। खिलाडिय़ों के रिकार्ड और मेडल की चर्चा करने वाले ओलंपिक में, 2018 पहली बार ऐसा हुआ कि अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ ने खिलाडिय़ों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की। क्या खेल और जीत या हार से अलग भी कुछ होता है जिसे लेकर खिलाडिय़ों की चिंता करनी चाहिए? होता है। हमने भले खिलाडिय़ों को पदक जीतने वाली मशीनों में बदल दिया है, लेकिन खिलाड़ी भी आखिर तो आदमी ही होता है! कोविड महामारी ने हमारे मानसिक संतुलन को बुरी तरह प्रभावित किया है।
असंतुलन को संभालते खिलाडिय़ों ने जब खेल को आधे से छोड़ दिया तब खेल जगत की दरार खुलकर सामने आ गई। वर्ष 2012 में अद्भुत तैराक माइकल फेल्प्स और लिंडसी वॉन ने अपनी मानसिक परेशानी का जिक्र कर ओलंपिक से किनारा कर लिया था। अभी-अभी खत्म हुए टोकियो ओलंपिक में टेनिस की उभरती प्रतिभा नाओमी ओसाका और एथलीट बाइल्स ने मानसिक स्वास्थ्य और खेलों के रिश्ते को फिर से चर्चा में ला दिया है। कहते हैं, हर समस्या के गर्भ में ही उसका समाधान भी छिपा होता है! वैसा ही यहां भी है। समस्याएं दरअसल वे खिड़कियां हैं जिनसे हम देख पाते हैं कि दीवारों में दरारें कहां-कहां पर हैं। यदि उन दरारों को हमने लीपापोती कर ढक भर दिया है तो निश्चित मानिए कि पहले धक्के में वहीं से दीवार उखडऩे लगेगी। धक्का जोर से लगे तो दीवार वहीं से टूट भी सकती है। कोविड ने भी तो हमें यही सिखाया है न! मनुष्य जाति इस महामारी की कम से कम इसलिए तो ऋणी रहेगी कि उसने हमें विकास की अंधी दौड़ से रुकने को विवश किया है। हम रास्ता बदलेंगे या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा, लेकिन कोविड ने इमर्जेंसी ब्रेक तो लगा ही दिया है। ओलंपिक की तैयारियां सालों पहले से शुरू हो जाती हैं।
किसे इसके आयोजन का मौका मिलेगा, इसकी पागल होड़ चलती है। यह होड़ खेलों के लिए नहीं, इससे जुड़े अरबों-अरब रुपयों के लिए होती है। ऐसा नहीं होता तो मौत की आंधी के इस दौर में टोकियो में ओलंपिक होता ही क्यों? इसे खेल, मनोरंजन आदि का नाम दिया गया, लेकिन यह पैसा कमाने की अपनी बीमार मानसिकता को लीपापोती कर छुपाने भर की बात थी। दुनिया के लिए खेल व्यापार है और खिलाड़ी उस व्यापार के मोहरे हैं। उन्हें इंसान से मशीन में बदलने के लिए ड्रग्स का इस्तेमाल किया जाता है। ड्रग्स लेना और उसे हर जांच से छिपाने का भी आज एक खेल ही बन गया है। खेल अब आनंद, मनोरंजन, आदमी की शारीरिक क्षमता को नापने का साधन नहीं रह गए हैं, वे समस्या से इंसान का ध्यान भटकाने के साधन बन गए हैं। दुनिया में गरीबी, बेरोजग़ारी, महंगाई, युद्ध, हादसे बढ़ते जाएं और फिर भी लोग खेलों में मगन रहें, सत्ताधारियों के लिए इससे सुविधाजनक स्थिति दूसरी क्या होगी! प्रतिभावान खिलाड़ी बाजार के इस दुश्चक्र का मोहरा बनने से जब इंकार कर देते हैं, बाजार की काली परछाईं को पहचानकर उस पर प्रहार करते हैं तो सत्ता व पूंजी की मिलीभगत का यह खेल टूटता है। पिछले दिनों फुटबॉल के महान खिलाड़ी रोनाल्डो जब पत्रकार वार्ता के लिए बैठे तो पहले उन्होंने टेबल पर रखी पेप्सी की बोतलों को हटाकर वहां सादे पानी की अपनी बोतल रखी और इशारे से कहा भी कि मैं जो पानी पीता हूं, वही मेरे सामने रहेगा।
यह उनका सत्याग्रह था। जो गलत है, उससे इंकार करना एक ऐसा व्यक्तिगत सत्याग्रह है जिसमें परिवर्तन की बड़ी संभावना छिपी है। आज दुनिया उनके लिए बनाई जा रही है जो नंबर एक हैं, फिर वह पढ़ाई हो या खेल। करीब 125 करोड़ के हमारे भारत में ऐसे लोग सिर्फ सात ही हो सकते हैं, 34 करोड़ के अमरीका में 130 या फिर 140 करोड़ के चीन में 88! तो कोई गांधी आता है और पूछता है कि भाई, सात के बाद जो बचा करोड़ों का भारत उनका क्या करोगे? यह कैसा नियम है, सफलता का कैसा पैमाना है? मेडल तालिका में सबसे ऊपर खड़े अमरीका में भी केवल 130 लोग जीते हैं कि 34 करोड़ लोग भी जीते हैं? अगर सफलता की गिनती इस तरह करोगे तो उन 134 लोगों में शामिल होने के लिए मारकाट, ईष्र्या, द्वेष, लूट-बेईमानी होगी ही। तब खिलाड़ी नहीं, ड्रग्स जीतेगा, खिलाड़ी नहीं, पैसा खेलेगा! फिर यह जरूरी हो जाएगा कि खुद आगे निकलने के लिए दूसरे हर किसी को, किसी भी रास्ते नीचे धकेला जाए। जो ऊपर पहुंचा वह भी इसी मानसिकता का बीमार और पीछे छूट गया वह भी बीमार। एक बीमार सभ्यता, एक बीमार पागल समाज। खिलाड़ी भी और हम सब भी यदि यह समझ पाएं कि समाधान मानसिक बीमारी के इलाज से ज़्यादा बीमारी के कारणों में छिपा है। खेलों का ढांचा बदलने में ही बीमारी से मुक्ति संभव है। एक ऐसा नियम, जो खेल में हिस्सा लेने वाले सभी को हीनभावना से भर देता है, गलत नियम है।
ऐसा समाज जो किन्हीं सात मेडल जीतने वालों को, किन्हीं 20-25 क्रिकेटरों को सारे मान-सम्मान और जीने के अवसर देता हो, वह बाकी पूरे समाज को मानसिक रोगी बनाता है। फिर ओलंपिक भी और कोविड भी हमें बताने लगता है कि हमारी दीवारें कितनी जर्जर हो गई हैं। समस्या की जड़ कहां है, हम यह देखेंगे, पहचानेंगे तो आने वाली पीढ़ी के लिए समस्या नहीं, समाधान छोड़ सकेंगे। हम ऐसा खेल कब खेलेंगे? वास्तव में खेल और खिलाड़ी से पूंजी के खिलवाड़ हो रहे हैं। खेल अब मनोरंजन का साधन नहीं रह गया है। खेल में जो भावना होनी चाहिए, खेल जिस भावना से खेला जाना चाहिए, वह आज सब कुछ गायब है। इससे मानसिक रोगियों का एक नया समाज खड़ा हो रहा है। इस समस्या को आज ही हल करने की सख्त जरूरत है अन्यथा खेल मनोरंजन की जगह व्यक्ति के जीवन से खिलवाड़ करने लगेंगे। एक ऐसी खेल नीति होना चाहिए जिसमें पूरे समाज के लिए सम्मान मिलना संभव हो। हमारे नीति-नियंताओं को आज ही सोचना है कि वह किस तरह का समाज निर्मित करना चाहते हैं?
प्रेरणा
स्वतंत्र लेखिका


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