सम्पादकीय

हिमाचल में जारी है प्लास्टिक का प्रदूषण

Rani Sahu
5 Jun 2023 6:56 PM GMT
हिमाचल में जारी है प्लास्टिक का प्रदूषण
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अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस आते ही पूरे विश्व में तरह -तरह की गोष्ठियां, सम्मलेन और चर्चाएं होती हैं, फिर धीरे-धीरे यह खुमार उतर जाता है। ऐसा नहीं है कि विश्व के लोगों को पर्यावरण की चिंता नहीं है या जलवायु परिवर्तन या प्लास्टिक के प्रयोग के नुकसान नहीं पता, लेकिन इन सब बातों के बावज़ूद हम कहीं न कहीं चूक कर रहे हैं, जिसका भुगतान आने वाली पीढिय़ां आने वाले कई सालों तक करती रहेंगी। प्लास्टिक प्रदूषण के प्रति यह लड़ाई हमें गांव से बड़े स्तर पर पर शुरू करनी होगी। देश के किसी भी पर्यटक स्थल पर कूड़े और प्लास्टिक कचरे की मात्रा ज्यादा होती है क्योंकि बाहरी क्षेत्रों से आने वाले लोग सैर सपाटे के दौरान हर जगह अपनी निशानियां छोड़ जाते हैं जिनमें प्लास्टिक की पानी की खाली बोतलें, कांच की बोतलें, नमकीन के खाली पैकेट, नैपकिन्स, फोइल्स, गंदे कपड़े तथा और भी कई तरह का कचरा शामिल है। पहाड़ी इलाकों में यह समस्या ज्यादा होती है क्योंकि हर जगह से कूड़ा करकट इकठ्ठा करना मुश्किल होता है। ट्रैकिंग पर जाने वाले अधिकतर लोग हर ट्रैक पर बहुत सा प्लास्टिक का सामान छोड़ कर चले आते हैं। पहाड़ में लोग अक्सर कूड़ा सूखे नालों व बड़े गड्ढों में यहां वहां फैंक देते हैं, बहुत कम लोग कचरे को जलाते हैं। सूखे नालों में यह सब इकठ्ठा होता रहता है और फिर बरसात या बाढ़ घातक है। विश्व बैंक द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक वर्ष विश्व में 2.01 बिलियन टन कूड़ा म्युनिसिपल सालिड वेस्ट यानी शहरी ठोस कूड़ा आम नागरिकों द्वारा फैलाया जाता है।
प्रति व्यक्ति औसतन 0.74 ग्राम कूड़ा फैलाता है। इस कूड़े को ठीक से नष्ट या ठीक से पुन:चक्रित नहीं किया जाता। 2050 तक यह कूड़ा प्रतिवर्ष 340 बिलियन टन से ज्यादा हो जाएगा। जैसे ही विश्व की आबादी बढ़ेगी और मध्यम या निम्न वर्गीय जनसंख्या में वृद्धि होगी, यह समस्या और बढ़ेगी। गरीबी से किसी भी तरह से पूरी तरह छुटकारा पाना लगभग असंभव है। गरीब और अमीर के बीच का फासला इतना ज्यादा है कि इसे सरकार की बहुआयामी योजनाएं भी कम करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहीं। अगर विश्व के धनाढ्य लोग चाहें तो गरीबों का उत्थान कर सकते हैं, लेकिन ज्यादातर फोब्र्स और फाच्र्यून पत्रिकाओं की सूची या आवरण पृष्ठ पर आने वाले लोग ऐसा नहीं मानते। पेरिस जलवायु समझौता संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक जलवायु सम्मेलन (कॉप-21) के दौरान 12 दिसम्बर 2015 को पारित किया गया था। 4 नवम्बर 2016 को यह समझौता लागू हो गया था। पेरिस समझौते का मुख्य लक्ष्य औद्योगिक काल के पूर्व के स्तर की तुलना में वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखना है और 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिये विशेष प्रयास किये जाने हैं। तापमान सम्बन्धी इस दीर्घकालीन लक्ष्य को पाने के लिये देशों का लक्ष्य, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के उच्चतम स्तर पर जल्द से जल्द पहुंचना है ताकि उसके बाद वैश्विक स्तर में कमी लाने की प्रक्रिया शुरू की जा सके। इसके जरिये 21वीं सदी के मध्य तक कार्बन तटस्थता (नैट कार्बन उत्सर्जन शून्य) हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है। जलवायु कार्रवाई के लिए बहुपक्षीय प्रक्रिया में पेरिस समझौता एक अहम पड़ाव है। पहली बार कानूनी रूप से बाध्यकारी एक समझौते के तहत सभी देशों को साझा उद्देश्य की पूर्ति हेतु साथ लाया गया है ताकि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटा जा सके और अनुकूलन के प्रयास सुनिश्चित किये जा सकें। प्रसिद्ध पत्रिका ‘न्यू साइंटिस्ट’ में प्रो. स्टीव फ्लेचर, जो पोट्र्समाउथ यूनिवर्सिटी में पर्यावरण, समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण के जानकार हैं, के अनुसार प्लास्टिक प्रदूषण से बचने का तरीका प्लास्टिक का न होना है, इसका उत्पादन और इसका प्रयोग बंद करना होगा। प्लास्टिक की चीजों को बदलना होगा, इनका प्रयोग कम करना होगा। इंगर एंडरसन जो सयुंक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की कार्यकारी निर्देशक हैं, उनके अनुसार विश्व के 175 देश प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्ति पाने के लिए अपना योगदान देने के लिए बचनबद्ध हैं। 2015 का यह सबसे बड़ा पर्यावरण समझौता है। पहाड़ों में निरंतर बढ़ता भवन निर्माण, प्लास्टिक की चीजों का अंधाधुंध इस्तेमाल, सीमेंट की खाली बोरियों को पहाड़ की ढलान से लुढक़ा कर अपनी जिम्मेदारी से अलग हो जाना, पहाड़ी क्षेत्रों में किसी भी शहर के शुरू या अंत में कूड़े के पर्वतनुमा ढेर, सड़ांध और गंदगी न केवल बीमारियों को न्योता देती है बल्कि वहां के कूड़ा प्रबंधन के बारे भी कई कहानियां कहती है। मनाली में घुसते ही आप को बदबूदार कूड़े के ढेरों के बीच में से गुजरना पड़ता है। पतली कूहल में प्लास्टिक के ढेर लगे हैं। यही हाल दूसरे पहाड़ी शहरों का भी है। नदी नालों से बह कर प्लास्टिक महासागर में जाकर इक_ा हो जाता है। भारत की कोस्ट लाइन करीब 7516 किमी तक फैली है। यह प्लास्टिक न केवल समुद्री जीव जंतुओं की जान का दुश्मन होता है बल्कि कई बार फिर किनारे पर लौट आता है। समुद्र में हर साल 11 मिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक का कूड़ा आ जाता है।
समुद्र में पहले से ही 200 मिलियन मीट्रिक टन कूड़ा फैला है। 60 प्रतिशत पक्षी जो समुद्र की सम्पदा पर अपने खाने के लिए निर्भर हैं, उनमें प्लास्टिक के अंश पाए गए हैं। असंख्य कछुए और मछलियां प्लास्टिक प्रदूषण का शिकार हैं। पहाड़ों को प्लास्टिक मुक्त करना मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं। पर्यटकों, स्थानिय नागरिकों में प्लास्टिक और उसके नुकसानों के बारे में जागरूकता फैलाना बहुत जरूरी है। पहाड़ों में प्लास्टिक कचरे को इकठ्ठा करने के कई केंद्र स्थापित करने होंगे। ताकि वहां से उस प्लास्टिक को पुन:चक्रित किया जा सके। बहुत सी गैर सरकारी संस्थाएं भी पहाड़ों में प्लास्टिक निवारण पर काम कर रही हैं, जिनमें प्रदीप सांगवान द्वारा संचालित ए हीलिंग हिमालयाज प्रमुख है। हिमाचल के कई क्षेत्रों से 800 टन से ज्यादा प्लास्टिक का कचरा इक_ा कर चुके हैं जिनमें गाँव, शहर, पहाड़, ट्रैक्स और पर्वतीय रास्ते शामिल हैं। हिमाचल सरकार को प्लास्टिक कचरे के निवारण को बहुत गंभीरता से लेना होगा। प्लास्टिक वेस्ट प्रबंधन के लिए नई योजनाओं और धनराशि का प्रावधान करना होगा। तभी पहाड़ इस दानव से सुरक्षित रह पाएंगे और नदी-नाले और मवेशी प्लास्टिक से मुक्त हो पाएंगे। देश में एक जुलाई 2022 से सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध है, लेकिन प्लास्टिक अपनी यात्रा किसी न किसी रूप में जारी रखे हुए है। इसे रोकना होगा।
रमेश पठानिया
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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