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सिद्धायनी जैन: तरक्की के तमाम दावों के बावजूद दुनिया अब तक प्लास्टिक कचरे के निस्तारण का सटीक उपाय नहीं तलाश सकी है। परिणाम यह है कि दुनियाभर में प्लास्टिक कचरे के इतने ढेर लग गए हैं कि अगर सारा कचरा एक साथ रख दिया जाए तो माउंट एवरेस्ट से तीन गुना विशाल पहाड़ बन सकता है।
आज यानी एक जुलाई से एक बार उपयोग करने के बाद फेंक दिए जाने वाले प्लास्टिक (सिंगल यूज प्लास्टिक) पर प्रतिबंध अमल में आ जाएगा। प्लास्टिक की ऐसी वस्तुओं में पालिथीन की थैली से लेकर पानी की बोतलें, प्लास्टिक के कप, दोने, प्लेट और स्ट्रा जैसी चीजें शामिल हैं। इसके पहले भी 15 अगस्त 2019 को देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने दो अक्तूबर 2019 से एकबारगी इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध की बात कही थी। लेकिन तब यह संभव नहीं हो पाया, क्योंकि प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की बात जितनी आसान प्रतीत होती है, यह उतनी आसान है नहीं। लेकिन अब सरकार ने जिस तरह का संकल्प और सख्ती दिखाई है, उससे यह साफ हो गया है कि अब कदम पीछे नहीं जाने वाले।
प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने में एक बड़ी बाधा तो यही है कि देश में प्लास्टिक उद्योग से जुड़े अनेक लोगों के बेरोजगार होने की बात कही जा रही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अनुसार इस समय देश में करीब सात सौ ऐसी बड़ी इकाइयां हैं जो एक बारगी उपयोग वाले प्लास्टिक के सामान बना रही हैं। बड़े व्यवसायी या उद्योगपति तो फिर भी वैकल्पिक व्यवस्थाओं की तरफ अग्रसर हो सकते हैं, लेकिन जिन छोटे व्यवसायियों का परिवार इन चीजों के व्यापार पर ही निर्भर है, उनके सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो सकता है।
यह स्थिति सरकार को भी दुविधा में डालती है क्योंकि हर लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे उपेक्षित वर्ग के हितचिंतन के प्रति भी प्रतिबद्ध होती है और होनी भी चाहिए। बाजारों में ऐसे कई लोगों को देखा जा सकता है जो साइकिल पर थैलियों के बंडल रख कर अलग-अलग दुकानदारों तक जाते हैं और उनकी जरूरत का सामान उन्हें देकर अपने परिवार के पोषण का बंदोबस्त करते हैं। ऐसे में प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध लाखों लोगों को विचलित कर सकता है। अभी तो स्थिति यह है कि कुछ जानी-मानी कंपनियों ने भी सरकार से इस फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है क्योंकि उनके पास अपने उत्पाद की पैकेजिंग आदि के लिए उचित विकल्प भी नहीं हैं।
पिछले करीब दो-तीन दशकों में प्लास्टिक लोगों की आदतों और जीवनशैली में इस तरह शामिल हो गया है कि इसके बिना सहज जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। आज कपड़े का थैला साथ लेकर चलना बीते जमाने की बात लगती है। लोग उम्मीद करते हैं कि दुकानदार ही उन्हें थैला (केरी बेग) देगा। अब चूंकि प्लास्टिक की थैली अपेक्षाकृत सस्ती होती है, तो दुकानदार थैली में सौदा दे देता है। कागज की थैलियां आमतौर पर मजबूत नहीं होतीं और कपड़े के थैले की लागत इतनी होती है कि वह सामान्य ग्राहक को बिदका सकती है। ऐसे में दुकानदार और ग्राहक दोनों ही प्लास्टिक की थैली के मोह से मुक्त नहीं हो पाते।
फिर संभावना यह भी है कि प्लास्टिक के विकल्प के तौर पर जिन साधनों को अपनाया जाए, वे पर्यावरण के लिए प्लास्टिक के उपयोग से भी अधिक खतरनाक हों। मान लीजिए कि आम आदमी कागज के थैले के उपयोग को अपनी आदत बना लेता है। हम सब जानते हैं कि कागज का उपयोग जितना बढ़ेगा, उतना ही पेड़ों के अस्तित्व पर संकट बढ़ता जाएगा। ऐसे में कागज के उपयोग को अत्यधिक प्रोत्साहित करने को भी बहुत अच्छा विकल्प नहीं माना जा सकता।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि यदि लोगों पर अतिरिक्त दबाव डाल कर उन्हें प्लास्टिक का उपयोग छोड़ने पर विवश किया गया तो संभव है कि वे प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसे विकल्पों को अपना लें, जिनके उत्पादन में अधिक हानिकारक रसायनों का उपयोग होता हो और जो पर्यावरण के लिये लगभग उतने ही हानिकारक हों। ऐसे में बेहतर तो होगा कि लोगों को प्लास्टिक के नुकसान के प्रति जागरूक किया जाए और उन्हें पर्यावरण अनुकूल विकल्प अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। लेकिन कई बार लोगों को उनके हित की बात समझाने के लिए भी दबाव का सहारा लेना पड़ता है।
सन 1907 में जब न्यूयार्क के लियो बैकेलैंड नामक वैज्ञानिक ने सिंथेटिक प्लास्टिक बनाया था और उसे बैकेलाइट नाम दिया था, तब किसी ने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि देखते ही देखते प्लास्टिक दुनियाभर में पर्यावरण के लिये एक बड़ा खतरा बन जाएगा। पालिथीन का आविष्कार तो सन 1933 में संयोगवश हुआ। लेकिन अपने हल्केपन और तंतुओं की मजबूती के कारण यह देखते ही देखते लोकप्रिय हो गया। सन 1965 में स्वीडन की एक कंपनी ने पालिथीन के थैले का पेटेंट तक ले लिया। धीरे-धीरे पालिथीन जीवन के अन्य क्षेत्रों पर भी हावी होता चला गया और कपड़े के थैलों, कागज की थैलियों को प्लास्टिक थैलियों ने प्रचलन से लगभग बाहर ही कर दिया। देखते ही देखते प्लास्टिक उद्योग दुनिया का एक प्रमुख उद्योग हो गया। विकासशील देशों में तो आबादी के एक बड़े हिस्से की आजीविका इसके उत्पादन और बेचान से जुड़ी है।
लेकिन प्लास्टिक के उपयोग के अपने खतरे भी हैं। दुनिया ने पहले अपनी सुविधाओं को देखते हुए प्लास्टिक को बहुत मन से अपनाया और इससे पैदा होने वाली चुनौतियों की तरफ ध्यान नहीं दिया। नतीजा यह रहा कि देखते ही देखते जगह-जगह प्लास्टिक के कचरे के ढेर लगने लगे। मुसीबत यह है कि प्लास्टिक का पूरी तरह निस्तारण होने तक पीढ़ियां गुजर जाती हैं। प्लास्टिक कचरे को जलाना तो पर्यावरण के लिए और भी नुकसानदायक है क्योंकि प्लास्टिक को जलाने से बहुत-सी जहरीली गैसें निकलती हैं जो वातवरण को दम घोंटू बना देती हैं। दुनिया तरक्की के तमाम दावों के बावजूद अब तक प्लास्टिक कचरे के निस्तारण का सटीक उपाय नहीं तलाश सकी है। परिणाम यह है कि दुनिया में प्लास्टिक कचरे के इतने ढेर लगे हैं कि यदि सारा कचरा एक साथ रख दिया जाए तो माउंट एवरेस्ट से तीन गुना विशाल पहाड़ बन सकता है।
प्लास्टिक कचरे का ढेर लगाने का नतीजा हम देश की सड़कों पर आसानी से देख सकते हैं। आए दिन अखबारों में इस आशय की खबरें छपती हैं कि किसी गाय के पेट से डाक्टरों ने बड़ी मात्रा में जमा थैलियां निकालीं। पेट में पड़े प्लास्टिक के कारण हर साल हजारों पशु संक्रमित होते हैं और दम तोड़ देते हैं। शायद यही कारण है कि दुनिया अब प्लास्टिक का, विशेषकर एकबार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक सामान का उपयोग कम से कम करने के प्रति जागरूक हो रही है। महत्वपूर्ण यह है कि इस दिशा में विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों ने अधिक जागरूकता का प्रदर्शन किया है।
सबसे पहले बांग्लादेश ने सन 2002 में प्लास्टिक की हल्की थैलियों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया था। केन्या ने सन 2017 में एकबारगी उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया। जिंबाब्वे ने पोलीस्टिरीन नामक प्लास्टिक के डिब्बों पर 2017 में प्रतिबंध लगाया और इस नियम का उल्लंघन करने वालों पर आर्थिक दंड भी आरोपित किया। ब्रिटेन ने प्लास्टिक की थैलियां काम में लेने पर कर लगा दिया। अमेरिका ने संघीय स्तर पर भले ही सिंगल यूज प्लास्टिक के खिलाफ कोई नीति नहीं बनाई, लेकिन वहां के कुछ राज्यों ने अपने स्तर पर प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में पहल की है।
प्लास्टिक का बढ़ता हुआ उपयोग मानवता के हित में बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। प्लास्टिक के उपयोग पर नियंत्रण करना मुश्किल हो सकता है, लेकिन असंभव तो मनुष्य के लिए कुछ भी नहीं होता, बशर्ते वह एक बार दृढ़ निश्चय कर ले। अगर सरकार के प्रयासों के साथ नागरिकों के स्तर पर पर्याप्त सहयोग मिले तो प्लास्टिक से मुक्ति संभव कैसे नहीं होगी?