सम्पादकीय

plasma therapy controversy : रेमडेसिवीर और प्लाज्मा थेरेपी सही नहीं थी तो फिर इतने दिनों तक थोपी क्यों गई?

Gulabi
26 May 2021 6:44 AM GMT
plasma therapy controversy : रेमडेसिवीर और प्लाज्मा थेरेपी सही नहीं थी तो फिर इतने दिनों तक थोपी क्यों गई?
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कोरोना (Corona) को लेकर प्रेसक्राइब्ड (Prescribed) दवा और फिर बाद में लिए गए यू टर्न (U turn) को लेकर समीक्षा तेज हो गई है

पंकज कुमार: कोरोना (Corona) को लेकर प्रेसक्राइब्ड (Prescribed) दवा और फिर बाद में लिए गए यू टर्न (U turn) को लेकर समीक्षा तेज हो गई है. डॉक्टर फ्रेटरनिटी (Doctor Fraternity) से भी अब एम्स प्रोटोकॉल (AIIMS Protocol) के उपर सवाल उठने शुरू हो गए हैं. एफएमसी पुणे के प्रोफेसर और हड्डी रोग विशेषज्ञ रिटायर्ड मेजर जेनरल वी के सिन्हा ने एम्स प्रोटोकॉल के उपर तीखे प्रहार किए हैं. डॉ वी के सिन्हा ( DR. VK Sinha) ने नेशनल हेराल्ड (National Herald) में छपी खुली चिट्ठी के मार्फत पूछा है कि टाइमलाइन और ठोस वैज्ञानिक आधार के बगैर रेमडेसिवीर (Remdesivir), आइवरमेक्टिन (Ivermectin), स्टेरॉयड (Steroid) और प्लाज्मा थेरेपी (Plasma Therapy) के इस्तेमाल की सलाह कैसे दी गई और फिर अचानक यू टर्न क्यों लिया गया.


एम्स प्रोटोकॉल में आइवरमेक्टिन से लेकर रेमडेसिवीर, प्लाज्मा थेरेपी और स्टेरॉयड के इस्तेमाल और उसके टाइमलाइन और वैज्ञानिक आधार पर मेजर जेनरल डॉ वी के सिन्हा ने सवाल उठाए हैं. मेजर जेनरल सिन्हा के मुताबिक आइवरमेक्टिन को एम्स प्रोटोकॉल में प्रेसक्राइब 7 अप्रैल को किया गया, जबकि इसी दिन दुनियां के कई रिसर्च पेपर में आइवरमेक्टिन को गैरजरूरी करार दिया जा चुका था. इतना ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मार्च महीने में ही आइवरमेक्टिन को उपयुक्त दवा की श्रेणी से हटा दिया था.

एम्स प्रोटोकॉल पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?
एम्स प्रोटोकॉल में आइवरमेक्टिन दवा को प्रेसक्राइब करने के एक सप्ताह के दरमियान सरकार और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने इसे अनुपयुक्त करार दिया था. लेकिन देश की दवा दुकानों से अचानक बढ़ चुकी डिमांड की वजह से आइवरमेक्टिन अचानक गायब हो चुकी थी. रेमडेसिवीर दूसरी दवा है जिसको विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नवंबर 2020 में कोविड ड्रग की लिस्ट से हटा दिया था, लेकिन एम्स प्रोटोकॉल में इस दवा का रिकमेंडेशन हॉस्पिटल में एडमिट पेशेंट के लिए किया गया था.

रेमडेसिवीर की मांग और ब्लैक मार्केटिंग दूसरी लहर में चरम पर थी, लेकिन एम्स डायरेक्टर ने इसे अनुपयुक्त बताने में तीन सप्ताह लगा दिया. जबकि एक पल्मोनोलॉजिस्ट के रूप में इसके गुण और लाभ का असली सच उन्हें पता न हो इस पर सवाल उठना लाजमी है.

चिट्ठी में स्टेरॉयड के टाइमलाइन से लेकर इसके बेजा इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए गए हैं और ब्लैक फंगस रूपी गंभीर परिणाम का हवाला दिया गया है. इसकी वजह मेडिकल प्रैक्टिशनर समेत कई अस्पतालों में स्टेरॉयड का बेजा इस्तेमाल है जिसका परिणाम देश भुगत रहा है. प्लाज्मा थेरेपी और टोसिलिजुमैब को लेकर भी सवाल हैं जो प्रोटोकॉल में था लेकिन बाद में हटा दिया गया.

क्या है एम्स प्रोटोकॉल को लेकर एक्सपर्ट्स की राय
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और नामचीन यूरोलॉजिस्ट डॉ अजय कुमार कहते हैं कि देश में कोरोना जैसी महामारी से लड़ने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों से प्रोफेशनल की टीम नहीं बनाई जा सकी और इसकी वजह से कोरोना ट्रीटमेंट को लेकर हमेशा कन्फ्यूजन रहा. डॉ अजय के मुताबिक टीम में एपिडेमियोलॉजिस्ट समेत फॉर्माकोलॉजिस्ट और अन्य प्रोफेशनल नदारद दिखे. इसलिए दूसरी लहर में असमंजस की स्थितियां बरकरार रहीं.

दरअसल डॉ अजय कुमार कोरोना महामारी में इस्तेमाल की जा रही प्लाज्मा थेरेपी, रेमडेसिवीर और टोसिलिजुमैब के खिलाफ शुरूआत से ही मुखर रहे हैं और इसे कोरोना के इलाज के लिए अनुपयुक्त बताते रहे हैं. वहीं चाइल्ड रोग विशेषज्ञ डॉ अरूण शाह कहते हैं कि एम्स प्रोटोकॉल पर विवाद खड़ा करना बाल के खाल निकालने जैसा है खास तौर पर तब जब हमें पता है कि इस बीमारी से लड़ने के लिए हमें कई नए अनुभवों से गुजरना पड़ा है.

डॉ अरूण शाह कहते हैं कि कोरोना बीमारी के प्रकाश में आने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन की विश्वसनियता कई वजहों से सवालों के घेरे में थी जिसमें एसिम्टोमैटिक पेशेंट को डब्लू एच ओ द्वारा स्प्रेडर नहीं करार देना और कोरोना वायरस के एरोसॉल इफैक्ट को सिरे से खारिज करना शामिल है.

दरअसल महामारी के शुरूआती समय में डब्लू एच ओ पर चीन के प्रभाव में काम करने और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दवा के उपर उसके स्टैंड को लेकर काफी कंट्रोवर्सी हुई थी. ऐसे में महामारी में ज़मीन पर काम कर रहे कई चिकित्सक एफडीए द्वारा अप्रूव्ड दवा रेमडेसिवीर पर भरोसा करने लगे थे जो एंटीवाइरल ड्रग के तौर पर बाजार में सामने आया था.

रेमडेसिवीर को लेकर दो बातें आम थी कि ये वायरस के रेप्लीकेशन को रोकता है और मरीज के हॉस्पिटल स्टे को कम करता है. इसलिए शुरूआती दौर में इसका इस्तेमाल किया जाने लगा जिसका उद्देश्य पेशेंट को गंभीर खतरे तक पहुंचने से पहले ठीक किया जा सके. रेमडेसिवीर की विश्वसनियता इसलिए भी बढ़ चुकी थी क्योंकि इसका प्रचार बड़े पैमाने पर कई मेडिकल जर्नल के जरिए किया गया जिसे मेडिकल साइंस में बाइबल की तरह माना जाता है.

दूसरा एफडीए द्वारा अप्रूवल मिलने के बाद भारत में इसे कोरोना के नई दवा के रूप में रामबाण की तरह देखा जाने लगा था. पटना में कार्यरत वायरोलॉजिस्ट डॉ प्रभात रंजन कहते हैं कि डॉक्टर की पहली प्राथमिकता पेशेंट के जान बचाने की होती है और ट्रायड और टेस्टेड प्रोटोकॉल के अभाव में वह बतौर क्लिनीशियन अपने अनुभव के आधार पर भी कई बार ईलाज करता है.

प्लाज्मा थेरेपी और स्टेरॉयड को लेकर क्या है कंट्रोवर्सी
प्लाज्मा थेरेपी को लेकर कई नामचीन डॉक्टर ने चिंता ज़ाहिर की थी और इससे ज्यादा खतरनाक म्यूटेटेड वायरस पैदा होने की संभावना जताई थी. इस बारे में पूर्व आईसीएमआर डायरेक्टर डॉ गंगाखेड़कर समेत डॉ गगनदीप कंग और यूरोलॉजिस्ट डॉ अजय कुमार ने भी अलग-अलग प्लैटफॉर्म से आवाज उठाई थी. लेकिन दूसरी लहर में काम करने वाले कई डॉक्टर मानते हैं कि कई लोगों की जानें प्लाज्मा थेरेपी की वजह से बचाई जा सकी हैं.

प्लाज्मा थेरेपी भी फेल
एक डॉक्टर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि जब सारे प्रयास विफल हो रहे थे तो प्लाज्मा थेरेपी पर भरोसा जता उसका इस्तेमाल किया जा रहा था जिससे पेशेंट की जान बचाई जा सके. प्लाज्मा थेरेपी के लिए किए गए रिसर्च प्लैसिड ट्रायल में प्लाज्मा थेरेपी का असर वैसा ही देखा गया जैसा कि दवा और वैक्सीन के ट्रायल में प्लैसिबो के केस में होता है. प्लैसिबो को भले ही पता होता है कि दवा दी गई है, लेकिन दरअसल उन्हें दवा या वैक्सीन के ट्रायल से गुजारा नहीं जाता है.

ज़ाहिर है प्लाज्मा थेरेपी पर रिसर्च के बाद इसे प्रभावशाली या कारगर नहीं समझा गया इसलिए इसे प्रोटोकॉल से हटाना ही बाद में बेहतर समझा गया. स्टेरॉयड दवा का इस्तेमाल भी इटली में मरने के बाद ऑटोप्सी में सामने आए रिसर्च के बाद किया जाने लगा. रिसर्च में पाया गया कि कोविड से मरने वाले रोगी के लंग्स में ब्लड की क्लॉटिंग हुई है. ऑटोप्सी के बाद साफ हो सका कि मौत वायरस से नहीं बल्कि साइटोकाइनिन स्टार्म से हो रही है. इसलिए इम्यूनिटी को कम करने के लिए स्टेरॉयड और इम्यूनो सप्रेसेंट का इस्तेमाल शुरू हुआ वहीं ब्लड क्लॉटिंग रोकने के लिए ऐंटीकॉगुलेंट दवा का इस्तेमाल शुरू हुआ.

यूपी और गोवा आइवरमेक्टिन को देता है तरजीह
डॉ अरुण शाह कहते हैं कि मेडिकल साइंस एक डायनेमिक प्रॉसेस है जो समय के अनुसार बदलता रहता है. कोरोना नई बीमारी है इसलिए ट्रीटमेंट के तौर तरीकों में परिवर्तन समय के मुताबिक स्वाभाविक है. वैसे कई और एक्सपर्ट्स की राय कि है देश के कई राज्यों में कोरोना ट्रीटमेंट के प्रोटोकॉल्स अलग हैं. एक तरफ यूपी और गोवा आइवरमेक्टिन को कोरोना के खिलाफ जरूरी दवा मानते हैं, वहीं अन्य राज्यों में स्थितियां भिन्न हैं
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