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- पौधों का डाक्टर
हेमंत कुमार पारीक: इस भीषण गर्मी के कारण क्या हैं? पहली नजर में लगता है कि पेड़ों की बेहिसाब कटाई। इस वक्त किसी राहगीर को पेड़ की छाया नसीब हो जाए, तो कितना सुकून मिलता है! वह पेड़ को तहेदिल से धन्यवाद कहता होगा। मगर वहां से रुख्सत होने के बाद भूल जाता है कि पेड़ सभी के आश्रयदाता हैं, चाहे थलचर हों, जलचर या नभचर। नभचरों का तो मात्र यही एक ठिकाना होता है।
इतना ही नहीं, पेड़ वह शै है, जो मिट्टी और पानी को पकड़ कर रखती है। हालांकि अब नदियां नहीं हैं, वरना तो नदी के कूल-किनारों को क्षरण से बचाने का काम भी पेड़ों की जड़ें करती हैं। बचपन में पढ़ी एक कविता याद आती है- यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे, मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे…। कदंब तो नहीं, बल्कि कल्पना में आम, इमली और बरगद के पेड़ उतर आते हैं। कभी कलकल बहती नदी 'पासा' के किनारे हुआ करते थे। अब सिर्फ यादें बाकी हैं। गर्मी की तपती दोपहर में उसके नीचे ग्रामीण बैलगाड़ियां ढील कर छाया में जलपान और विश्राम किया करते थे। कस्बे की महिलाएं और युवतियां सावन में झूले बांध कर सावन का आनंद लेती थीं। अब ये सब चीजें महज कल्पना भर हैं।
पिछली दफा देखा, तो दंग रह गया। नदी सूख गई है और उन तीन वृक्षों का अता-पता नहीं है। किनारे फट कर फैल गए हैं और उन बड़े दरख्तों के साए में पलने वाले छोटे-छोटे पेड़ों की जड़ें शाखाओं की तरह मिट्टी छोड़ कर बाहर आ गई हैं। बैलगाड़ियों के जमाने लद गए। मोटर साइकिलों पर सवार नौजवान सीधे-सीधे एक किनारे से दूसरे तक आराम से आ-जा सकते हैं। कहने को कस्बा है, मगर सारे लक्षण शहर के हैं। गांव का नौजवान बदल गया है। एक क्षण भी मोबाइल से अलग नहीं रहता।
कितना बदलाव आ गया है! दस-बीस वर्षों में मानो पूरी सदी बदल गई। एक पल भी रुकने का मन नहीं किया। वरना तो कभी मेरे पुश्तैनी मकान के सामने नीम के तीन पेड़ों को देखते ही स्मृतियों का सैलाब उमड़ पड़ता था। शायद मेरी लंबी अनुपस्थिति में उन्हें काट दिया गया। लोगों ने बताया था कि सड़क के चौड़ीकरण के मद्देनजर सरकारी महकमे ने उन्हें काट डाला। नीम के वे पेड़ ठंड, गर्मी और बारिश में न जाने कितनों को आश्रय प्रदान करते थे।
यह केवल उन तीन पेड़ों की कहानी नहीं है। बीच में एक जंगल भी हुआ करता था। आज उस जंगल की हालत देख कर मन विचलित हो जाता है। पिछले चार-पांच दशक पहले भरापूरा था। कभी वहां शेर की दहाड़ सुनाई देती थी। जंगली जानवरों की भरमार थी। अब केवल बंदर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। सड़क किनारे कतारबद्ध बैठे दिखते हैं। उस जंगल में खाने के नाम पर कोई वनस्पति बची ही नहीं है। इसलिए सड़क तक चले आते हैं और वहां से गुजरने वाले यात्रियों की दुआ और दया पर निर्भर हैं।
कभी-कभी बड़े अजीबो-गरीब वाकये देखने को मिलते हैं। हमेशा की तरह सुबह-सुबह बाजार की तरफ निकला था। सामने से साठ-सत्तर बरस का एक बुजुर्ग साइकिल से चला आ रहा था। साइकिल के सामने की ओर हैंडिल पर एक तख्ती लटकी दिख रही थी। लिखा था- पौधों का डाक्टर! देख कर हैरानी हुई। कई तरह के डाक्टर सुनने में आते हैं, मगर पौधों के डाक्टर को पहली बार देख रहा था, पहली बार सुन रहा था।
हंैडिल पर एक थैले में कुछ औजार रखे थे और पीछे कैरियर पर एक दूसरे थैले में कई तरह के फूलों की पौध रखी थी। मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा उसे देखता रह गया। शायद पहली और आखिरी बार देख रहा था। समझ पाया कि जरूर वे बुजुर्गवार बीमार पौधों की देखभाल करते होंगे, उनमें लगे रोग का निदान करते होंगे। उन्हें माकूल खाद-पानी, दवा वगैरह उपलब्ध कराते होंगे।
पहले घरों के आंगन में छोटी-सी बगिया लगाई जाती थी और एक या दो फलदार वृक्ष हुआ करते थे, जो आगंतुक की आंखों को ठंडक प्रदान करते थे। मगर अब घरों के दायरे सिकुड़ गए हैं। पूरी जमीन के एक-एक इंच में मकान की संरचना होती है। नीचे जमीन न बची, तो आजकल छत का उपयोग होने लगा। पालीथिलीन के बड़ी-बड़ी थैलियों में सब्जी-भाजी उगाई जाने लगी। वह जमीन तो बची ही नहीं, जहां प्राकृतिक तौर पर बागवानी की जा सके और अब तो यह संस्कार गांवों तक पहुंच गए हैं। पर हां, कहीं-कहीं बेला, गुलाब, नीम, आम और जामुन के पेड़ देखने को मिल जाते हैं। पर कब तक? लेकिन नदी, खेत और पेड़ों के बिना गांव की परिभाषा अधूरी है। फिलवक्त वीरान और बंजर होते जंगलों को पेड़ों के डाक्टरों की सख्त जरूरत है।