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- मतांतरण का सुनियोजित...
भूपेंद्र सिंह| सर्वसाधारण ही नहीं, अपितु शिक्षित वर्ग भी बहुधा मत, संप्रदाय, मजहब, रिलीजन आदि को धर्म का पर्याय मानने की भूल कर बैठता है। वस्तुत: धर्म और मजहब-रिलीजन में जमीन-आसमान का अंतर है। एक में विस्तार है तो दूसरे में सीमाबद्धता। मजहब या रिलीजन एक ग्रंथ, एक पंथ, एक प्रतीक, एक पैगंबर को मानने के लिए बाध्य करता है। इसके अलावा वह अन्य किसी मत या सत्य को स्वीकार नहीं करता। जो-जो उससे असहमत या भिन्न मत रखते हैं, उनके प्रति उसमें निषेध-अस्वीकार से आगे कई बार घृणा या वैमनस्यता भी पाई जाती है। भिन्न प्रतीकों-चिन्हों को ही वे अपनी अंतिम और एकमात्र पहचान बना लेते हैं। जबकि धर्म एकत्व तलाशने, चेतना-संवेदना को विस्तार देने तथा आंतरिक उन्नयन का लक्ष्य लेकर चलता है। वह समरूपता का पोषक नहीं, बल्कि विविधता, वैशिष्ट्य एवं चैतन्यता का संरक्षक है। वह किसी विशेष मत या सत्ता को येन-केन-प्रकारेण प्रतिस्थापित करने का बाह्य-आक्रामक अभियान नहीं, अपितु सत्य का अनुसंधान है। वह करणीय-अकरणीय, कर्तव्य-अकर्तव्य के सम्यक बोध या उत्तरदायित्व का दूसरा नाम है।