सम्पादकीय

philosophy of life : दुख ही जीवन को सक्रिय रखता है और मनुष्य को रोबोट से अलग बनाता है

Gulabi
5 Dec 2021 2:22 PM GMT
philosophy of life : दुख ही जीवन को सक्रिय रखता है और मनुष्य को रोबोट से अलग बनाता है
x
दुख ही जीवन को सक्रिय रखता है
शंभूनाथ शुक्ल।
पिछले दिनों एक खबर आई कि एक रोबोट ने अपने मालिक से कहा कि वह उसे मार देना चाहता है. यह चौंका देने वाली खबर थी. अगर मशीन आदमी के नियंत्रण से कभी बाहर हो गई या उसके रिमोट का पासवर्ड हमें भूल गया तब क्या होगा. क्योंकि मशीन में उतना ही दिमाग होगा जितना भरा गया होगा, लेकिन उसमें ह्रदय नहीं होगा. करुणा नहीं होगी. इसलिए मनुष्य को मशीन के हाथों में न जाने दो उसे मनुष्य बनाओ. मनुष्य के लिए सामाजिकता बहुत जरूरी है, और यह सामाजिकता आती है करुणा से. दूसरे का दुःख हम समझेंगे, तब वह हमसे घुलेगा और हम परस्पर सुख-दुःख बतियाएंगे. ध्यान रखना चाहिए कि दुनिया में हर व्यक्ति व्यथित है, दुखी है और उसके अन्दर पीड़ा है. जब कोई आदमी अपनी पीड़ा को लेकर अन्दर ही अन्दर घुलता है, तो वह एकांगी एवं एकपक्षीय होता चला जाता है. लेकिन यदि हम उससे मिलकर घुलते-मिलते हैं, तो वह अपनी पीड़ा व्यक्त करता है.
सबसे बड़ा दुःख संतान का वियोग
यह एक सामान्य सत्य है कि अपने दुःख से कहीं अधिक पीड़ादायक होता है, संतान का दुःख. अपना दुःख तो किसी तरह सह लिया जाता है, लेकिन संतान का दुःख असहनीय होता है. संतान सब को अपनी जान से अधिक प्यारी होती है इसलिए जब कभी उस पर संकट आता है, हमारा ह्रदय विह्वल हो उठता है. यह प्रकृति में हर प्राणी का सहज स्वभाव है. सिर्फ मनुष्य ही नहीं अन्यान्य प्राणियों को भी हम संतान की रक्षा करते हुए जिस तरह देखते हैं, उससे लगता है कि अगर इनकी संतान को छेड़ने की कोशिश की तो ये हम पर टूट पड़ेंगे. चाहे वह हमारे पालतू पशु हों या जंगल हिंसक कहे जाने वाले जानवर. अपने बच्चों को पालने के लिए उस पशु की मां किसी पर भी टूट सकती है. अब मनुष्य एक सभी और निरंतर प्रगतिशील प्राणी है, इसलिए उसने अपना परिवार बसाया है. उस परिवार में पति-पत्नी एक इकाई हैं और उनके बच्चे उनका परिवार. इसलिए मां-बाप दोनों मिलकर परिवार को पालते हैं. और उनकी सारी कोमल भावनाएं अपने परिवार को समर्पित होती हैं. यहां पिता भी बच्चे की मां की तरह ही उसे पालता है, और निरंतर उसका विकास चाहता है. लेकिन विधाता जिस किसी को भी संतान का असहनीय दुःख देता है, वह बेचैन हो उठता है.
दुःख को साझा करो तो पीड़ा दूर होगी
एक दिन सुबह जब मैंने दिल्ली जाने के लिए ओला टैक्सी बुलाई तो पाया कि उसे साठ पार के एक सरदार जी चला रहे हैं. मैं जैसे ही टैक्सी के करीब पहुंचा उन्होंने जोश से 'गुड मॉर्निंग' कहा और अदब के साथ दरवाज़ा खोला. सफ़र में बातचीत होने लगी. उन्होंने 1984 से आज तक के हालात पर चर्चा की. बातचीत से पता चला कि वे सेना में सूबेदार के पद से रिटायर हुए हैं और उन्हें 32 हज़ार रूपये महीने पेंशन मिलती है. चूँकि मैं पंजाबी बोल लेता हूँ इसलिए पंजाबी में हमारा संवाद होने लगा. खुशमिजाज़ सरदार जी ने मेरा गंतव्य आते ही मुझे "हैव अ नाइस डे सर" बोला. मैंने उन्हें थैंक्स कहते हुए हाथ मिलाया. वे बोले- सर नंबर दे दीजिये, कभी आपकी जरूरत पड़ सकती है और आपको मेरी भी.
परस्पर अन्योन्याश्रित संबंधों की उनकी समझ लाज़वाब थी. नंबरों का आदान-प्रदान करने के बीच मैंने उनके परिवार के बारे में पूछा. उन बुजुर्ग सरदार जी की आंखें और गला भर आया. कुछ देर रुक कर बोले- सर दो लड़कों में से बड़े वाले को रब ने उठा लिया, अब उसकी नूं (बहू) है और 12 साल का उसका बेटा. फिर ऊपर को हाथ कर बोले- रब्बा, ऐसा दुःख किसी को न दीजो! उनकी आवाज़ से मेरा भी गला भर आया और उमड़ आए आंसुओं को पोछते हुए मैंने अपना लैपटॉप बैग उठाया और जल्दी से उठकर गाड़ी के बाहर आ गया, यह कहते हुए कि बच्चों का दुःख असहनीय होता है सरदार जी. अधेड़ अवस्था में ऐसा दुःख कितनी पीड़ा देता है, इसकी कल्पना मुश्किल है. जिस उम्र में आदमी आराम की चाह रखता है, उस उम्र में फिर से काम पर जुट जाना उसी दुःख को झेल लेने का ज़ज्बा है. जो दुःख के साथ-साथ आदमी में आता है.
दर्द भी दवा बनता है
एक शेर में बताया गया है कि दुःख का हद से गुजर जाना भी एक दवा है. अब उन सरदार जी के ऊपर ऐसी विपत्ति आन पड़ी कि उनकी यह असहनीय पीड़ा उन्हें पुनः काम के अनुरूप बना गई. उन्हें अच्छी-खासी रक़म पेंशन के तौर पर मिलती है. अगर उनके ऊपर संतान का यह दुःख नहीं आता तो शायद वे इस रक़म से अपना बुढापा चैन से काट लेते. क्योंकि सेना में रहने के कारण उनका इलाज़ फ्री होता है. पर अब विधवा बहू और उसके दो बच्चों को पालने की जिम्मेदारी भी उन पर आ पड़ी है, इसलिए उन्होंने कुछ दिनों तक तो अपने बेटे के जाने का शोक मनाया, फिर अपने पोते के भविष्य को लेकर चिंतित हो गए. घर में जो भी रक़म थी, उसे इकठ्ठा किया, पत्नी के जेवर बेचे और मारुती की एक ओमनी कार ले आए तथा उसे ओला में लगा दिया. सरदार जी के मुताबिक अब उनकी पेंशन और टैक्सी की आमदनी से पोता भी अच्छे स्कूल में पढ़ रहा है और घर फिर से सामान्य गति से चलने लगा. यह उनकी संतति की पीड़ा और उस पीड़ा से उपजे हल का एक सुखद पक्ष है कि वे फिर से एक्टिव हो गए. किन्तु अपने बेटे का गम जब भी उन्हें याद आता है, वे फूट पड़ते हैं. पर क्या किया जाए, यह मनुष्य की नियति है. संतान का दुःख उन्हें सालेगा, लेकिन विकल्प भी उन्होंने निकाला. यही है अति दुःख का दवा बन जाना.
दुःख ही मनुष्य को एक्टिव रखता है
इसीलिए मनुष्य भले आरामपसंद हो, मगर दुःख भी उसे सक्रिय भी बनाता है. प्रकृति का हर प्राणी अपनी परिस्थितियों के अनुरूप जीवन जीने का बहाना तलाश ही लेता है. हमारे आसपास के लोगों के जीवन में कितना दुःख है, हम नहीं जानते और न दुखी प्राणी कभी अपना दुःख को बताता है, वह तो ऐसे ही किन्हीं क्षणों में उसका दुःख फूट पड़ता है. शायद मैं सरदार जी से उनके परिवार के बाबत न पूछता तो वे कतई न बताते. या यह भी संभव है कि उनके साथ मेरी आत्मीयता उनके दुःख को उनकी वाणी में ले आई हो. इसलिए भले ही दुःख को गाया न जाए, उसके ज़रिये किसी और की सहानुभूति बटोरने की कोशिश न की जाए पर कभी-कभी दुःख का साझा उस दुखी प्राणी के ह्रदय को हल्का करता है.
परस्पर संवाद से सामाजिकता
सरदार जी का दुःख मैं समझता हूं क्योंकि मेरे अन्दर भी वैसी ही पीड़ा है. मैंने उसे उन्हें बताया तो नहीं किन्तु वे भी समझ गए कि मैं भी कुछ ऐसी ही पीड़ा से गुजर रहा हूं. एक दुखी व्यक्ति का ह्रदय कितना आंदोलित है, उसे दूसरा दुखी प्राणी समझता है. इसलिए हर आदमी के प्रति करुणा का भाव रखना, हमें उसके दुःख को बाहर लाने में सहायक होता है. मैं उनसे न बतियाता और एक सामान्य सवारी की तरह चुपचाप बैठा रहता तथा अपने गंतव्य पर उतर जाता तो हमारे और उनके रिश्ते उसी तरह से मशीनी बने रहते. और शायद तब वो न तो मेरा नम्बर मांगते एवं न ही अपना नम्बर मुझसे साझा करते. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे मशीन नहीं बनाया जा सकता. इसलिए मनुष्य से मनुष्य के बीच का संवाद कायम रहना चाहिए.
यह संवाद हमारी सामाजिकता को बनाए रखेगा तथा हम कभी अकेलापन नहीं महसूस करेंगे और न ही दूसरे को एकांगी बन जाने की तरफ धकेलेंगे. विज्ञान में संवाद नहीं है, कला में भी नहीं लेकिन कोई भी कला और कोई भी विज्ञान बिना समाज के अधूरा है. एकाग्रचित्त रहना आवश्यक है, उतना ही घुलना-मिलना भी. शोध एकाग्रता से होता है मगर ध्यान रखना चाहिए कि सामाजिकता संवाद से आती है. मनुष्य को अकेले छोड़ देने का मतलब है, उसे या तो अराजक बना देना अथवा कुंठित बना देना.
Next Story