सम्पादकीय

चरणबद्ध बदलते चुनावी मुद्दे

Subhi
24 Feb 2022 3:50 AM GMT
चरणबद्ध बदलते चुनावी मुद्दे
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देश के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के सात चरणों में हो रहे विधानसभा के चुनावों में जिस प्रकार हर चरण में मुद्दे बदल रहे हैं उन्हें देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है

आदित्य नारायण चोपड़ा: देश के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के सात चरणों में हो रहे विधानसभा के चुनावों में जिस प्रकार हर चरण में मुद्दे बदल रहे हैं उन्हें देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इन चुनावों के परिणामों से राष्ट्रीय राजनीति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। वैसे स्वतन्त्र भारत की यह बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया भी है क्योंकि इस राज्य की सामाजिक संरचना से उत्पन्न होने वाले राजनीतिक समीकरणों का प्रभाव समस्त 'उत्तर-पश्चिम' भारत की राजनीति पर पड़ता है। यदि हम गौर से देखें तो इस राज्य की राजनीति में धरातलीय परिवर्तन 1967 के चुनावों के बाद से तब आना शुरू हुआ जब स्व. चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से विद्रोह करके अन्य विपक्षी दलों जनसंघ व संसोपा और यहां तक कि कम्युनिस्टों के साथ भी मिल कर 'संयुक्त विधायक दल' की सरकार बनाई और 'ग्रामीण शक्ति' का नया राजनीतिक विमर्श खड़ा किया। हालांकि 1971 में स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इसे 'गरीबी हटाओ' के जन आह्लाद से वृहद स्वरूप में बदल डाला मगर राज्य की राजनीति में गांव, मजदूर व किसान से जुड़े विषय स्थायी रूप से पैर जमाते गये जिनका बाद में रूपान्तरण जातिगत व साम्प्रदायिक कलेवरों में होता चला गया। इस रूपान्तरण में 1989 में लागू मंडल आयोग की सिफारिशों व अयोध्या में श्री राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन ने प्रमुख भूमिका निभाई। मगर इसके बावजूद गांव, गरीब व किसान की केन्द्रीय शक्ति अपना स्थायी भाव बनाये रही। इसमें बाद में एक इजाफा आतंकवाद का जरूर हुआ विशेष कर इस्लामी जेहादी आतंकवाद ने राज्य की जनता को अपनी राजनीतिक वरीयता तय करने के लिए प्रेरित किया। अतः आज जब हम चुनावी राजनीतिक माहौल में आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट होकर लड़ाई लड़ने का शोर सुनते हैं उसकी प्रतिध्वनि कहीं न कहीं सामाजिक संरचना के विविध कोणों को भी प्रभावित करती है। हालांकि आतंकवाद से किसी धर्म का कोई मतलब नहीं होता है मगर इसकी प्रतिक्रिया भी हमें समाज में ही देखने को मिलती है। अतः उत्तर प्रदेश के पहले दो चरणों में पश्चिमी क्षेत्र में हुए मतदान के दौरान जिस तरह किसानों व महंगाई तथा बेरोजगारी का मुद्दा मुखर रहा उसकी प्रखरता तीसरे चरण के दौर में 'हिजाब' का मुद्दा गरमाने से कम हो गई और चौथे चरण के आज हुए मतदान में आरा पशुओं या छुट्टा मवेशियों का मुद्दा सतह पर आ गया। मगर इसके साथ ही राज्य की भाजपा नीत योगी सरकार द्वारा गरीबों को दी गई विभिन्न सुविधाओं व सहायता के मामले भी मतदाताओं विशेष कर गांवों के गरीबों के लिए मुद्दा बनने लगे। मगर इन सब मुद्दों के उठने के बावजूद हर चरण में राज्य में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर योगी सरकार की सफलता केन्द्रीय विषय बना रहा। यह लिखने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि भाजपा ने राज्य में कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में योगी सरकार की सफलता का मुद्दा उठा कर जो राजनीतिक विमर्श खड़ा किया उसकी छाया ने सभी पार्टियों द्वारा खड़े किये गये विमर्शों को अपने साये में ले लिया। यह विमर्श स्वयं प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पहली चुनाव रैली में जनता के बीच खड़ा किया था। हालांकि कांग्रेस की नेता श्रीमती प्रियंका गांधी ने महिलाओं की सुरक्षा का आह्वान 'लड़की हूं-लड़ सकती हूं' जैसा नारा देकर बहुत पहले ही नया विमर्श देने का कार्य किया था परन्तु समूची कानून-व्यवस्था को सुधारने के विमर्श से प्रियंका गांधी के विमर्श को हल्का करने का काम किया। जिसकी वजह से प्रथम चरण के मतदान से ही महिलाओं का रुझान भाजपा की तरफ बनता दिखाई दिया। मगर अगले तीन चरण अब राज्य के पूर्वी इलाकों में होने हैं जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों का बाहुल्य है और इन क्षेत्रों में योगी सरकार द्वारा कोरोना काल में गरीबों को दिया जाने वाला महीने में दो बार मुफ्त राशन अपना असर दिखा रहा है। संपादकीय :पुतिन की चाल से भूचालजुगलबंदी प्रोग्राम से रिश्तों में मजबूतीहर्षा की हत्या से उठे सवाल?आनलाइन शिक्षा : ​सम्भावनाएं और चुनौतियांक्या यूक्रेन का युद्ध टलेगाटुकड़ों में विपक्षी एकताजाहिर है कि भारत में गरीबी का भी अपना जातिगत गणित होता है जिसका सम्बन्ध सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन से सीधा होता है। अतः यह संयोग नहीं है कि पूरे प्रदेश में यादवों को छोड़ कर शेष अन्य सभी पिछड़े वर्ग के लोग योगी सरकार के कामों से सन्तुष्ट नजर आते हैं परन्तु यह मानना गलत होगा कि योगी सरकार की इस जन कल्याणकारी नीति से उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति के पैर उखड़ गये हैं। राज्य की एक जमाने में सत्ताधारी पार्टी रही बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी की पकड़ आज भी अनुसूचित जातियों विशेष कर रैदासियों में मजबूत मानी जाती है। मगर राज्य की केवल इक्का-दुक्का सीट को छोड़ कर किसी भी विधानसभा क्षेत्र में अनुसूचित मतदाताओं की संख्या इतनी नहीं है कि वे अपने बूते पर अपना प्रत्याशी जिता सकें। अतः राज्य के चुनावी समीकरण हर मतदान चरण में जिस तरह नये मुद्दों के साथ बदल रहे हैं उनसे मतदाताओं के रुख का सतही अन्दाजा हो सकता है। बेशक राज्य में चुनाव लड़ने वाली हर प्रमुख पार्टी ने (बसपा को छोड़ कर) अपना चुनाव घोषणापत्र या संकल्प पत्र जारी किया है और इनमें मुफ्त सौगातों की झड़ी भी लगाई है मगर आम मतदाता इन सबसे बेपरवाह नजर आता है और मौजूदा मुद्दों को देख कर ही मतदान करता दिखाई पड़ता है साथ ही वह योगी सरकार का पिछले पांच साल का रिकार्ड भी खंगाल रहा है। किसी भी राजनीतिक विज्ञानी के लिए यह लोकतन्त्र के परिपक्व होने की निशानी ही है जिससे सत्ताधारी दल की महंगाई व बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर विपक्षी दल जवाब तलबी भी कर रहे हैं। मगर यह भी सत्य है कि राज्य की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित करने वाले कोरोना काल में केवल प्रियंका गांधी व कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के अलावा भाजपा के कार्यकर्ता ही लोगों के बीच नजर आये थे जिसकी वजह से योगी सरकार ने गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों के 'अन्त्योदय' लाल कार्ड तक बनाये और गरीबों को महीने में दो बार राशन मय खाद्य तेल, नमक व दाल के साथ गेहूं, चना व चावल वितरित किया। असल में लोकतन्त्र में सरकार वही जनता की सरकार होती है जो मुसीबत के समय गरीब के साथ नजर आये। लोक कल्याण राज्य का यही मतलब होता है।


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