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- PFI : आखिर क्यों उठ...
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पिछले कुछ दिनों से पीएफआइ लगातार चर्चा में है
सुरेंद्र किशोर।
पिछले कुछ दिनों से पीएफआइ लगातार चर्चा में है, क्योंकि एक के बाद एक घटनाओं में उसका नाम आ रहा है। बीते दिनों गोवा के मुख्यमंत्री ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। ऐसी ही मांग कुछ और राज्य सरकारें कर चुकी हैं। पीएफआइ के बारे में केरल पुलिस ने दिसंबर, 2012 में केरल हाई कोर्ट में कहा था कि स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट यानी सिमी का ही नया रूप पापुलर फ्रंट आफ इंडिया यानी पीएफआइ है। इसके बाद 2018 में केरल पुलिस ने पीएफआइ पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत जताई थी, किंतु केरल की वामपंथी सरकार ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि हम प्रतिबंधों में यकीन नहीं करते और इस संगठन से राजनीतिक तौर पर लड़ेंगे। यह बात और है कि अब तक यह पता नहीं चल सका कि केरल सरकार उससे कैसे लड़ रही है?
पीएफआइ तब देश भर में चर्चा में आया था, जब 2010 में उसके लोगों ने केरल के एक प्रोफेसर टीजे जोसेफ पर ईशनिंदा का आरोप लगाकर उनकी हथेली काट दी थी। केरल पीएफआइ का गढ़ है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उसने देश के अन्य राज्यों में जड़ें जमा ली हैं। उसके क्रियाकलाप वैसे ही हैं, जैसे सिमी के थे। वह करीब 20 राज्यों में सक्रिय है। केरल से लेकर असम तक की घटनाएं यही बताती हैं कि पीएफआइ के कई सहयोगी संगठन भी उसके मकसद को पूरा करने में दिन रात लगे हुए हैं। इनमें उसकी छात्र शाखा कैंपस फ्रंट आफ इंडिया प्रमुख है। कर्नाटक में हिजाब विवाद के भड़काने के पीछे कैंपस फ्रंट आफ इंडिया का नाम बार-बार आ रहा है। यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे संगठन को इस देश के अधिकतर कथित सेक्युलर दलों का सहयोग मिल रहा है। दिल्ली के कुख्यात शाहीन बाग धरने के पीछे पीएफआइ का ही हाथ था और यह किसी से छिपा नहीं कि कांग्रेस सहित कई दलों के नेता शाहीन बाग में धरने पर बैठे लोगों को समर्थन देने गए थे। प्रवर्तन निदेशालय के अनुसार शाहीन बाग धरने के दौरान पीएफआइ के खातों में 120 करोड़ रुपये जमा हुए और फिर वहां से प्रदर्शनकारियों के खातों में ट्रांसफर किए गए। केरल में गठित पीएफआइ का मुख्यालय अब शाहीन बाग, दिल्ली में ही है। शाहीन बाग धरना नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ था, जबकि इस कानून का भारत के किसी नागरिक से कोई लेना-देना नहीं। पीएफआइ को समझने के लिए सिमी को समझना जरूरी है। सीबीआइ के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह ने 2008 में कहा था कि 1977 में अलीगढ़ में स्थापना के समय छात्रों का तथाकथित संगठन सिमी प्रारंभ में जमात ए इस्लामी हिंद का करीबी संगठन था, लेकिन जब 1986 में सिमी ने इस्लाम के जरिये भारत की मुक्ति का नारा दिया तो जमात ने उससे अपने संबंध तोड़ लिए। सिमी के संविधान में भारत को मजहबी आधार पर बांटने की बात दर्ज थी।
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2001 में सिमी पर प्रतिबंध लगाया। वह प्रतिबंध के खिलाफ अदालत गया। तब सिमी के वकील सलमान खुर्शीद थे। उस समय वह उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। यह अकारण नहीं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जन समर्थन अब शून्य से थोड़ा ही अधिक रह गया है। 2004 में संप्रग सरकार आने के बाद जब केंद्रीय एजेंसियों ने सिमी के कारनामों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अवगत कराया तो उन्होंने भी उस पर प्रतिबंध जारी रखा। अप्रैल, 2008 को दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार में सिमी नेता सफदर नागौरी का यह बयान छपा था कि हमारा लक्ष्य जिहाद के जरिये भारत में इस्लामिक शासन कायम करना है। इसी फरवरी में अहमदाबाद बम धमाकों के मामले में उसे फांसी की सजा सुनाई गई है। सफदर नागौरी की तरह सिमी के अहमदाबाद के एक पदाधिकारी साजिद मंसूरी ने कहा था कि जब भी हम सत्ता में आएंगे तो इस देश के सभी मंदिरों की जगह मस्जिद बनाएंगे। इसके बावजूद अगस्त 2008 को मुलायम सिंह यादव का यह बयान आया कि सिमी पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए था। ऐसे बयान देने वाले और भी नेता थे। ये नेता ऐसे बयान तब दे रहे थे, जब मनमोहन सरकार के वकील सुप्रीम कोर्ट में यह कह रहे थे कि सिमी के लोग जिहाद का प्रचार करने के साथ कश्मीर में आतंकियों की मदद कर रहे हैं। 2008 में ही यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में भाजपा के एक प्रतिनिधिमंडल ने चुनाव आयोग से मिलकर मांग की थी कि सिमी समर्थक दलों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। 2012 में बंगाल के डीजीपी ने कहा था कि सिमी के जरिये आइएसआइ ने माओवादियों से तालमेल बना रखा है।
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि प्रतिबंधित सिमी के ही लोगों ने 2002 में इंडियन मुजाहिदीन और 2006 में पीएफआइ बनाया। पीएफआइ का राजनीतिक संगठन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी आफ इंडिया यानी एसडीपीआइ है। पीएफआइ के महिला संगठन नेशनल वूमेंस फ्रंट के जलसे में शामिल होने के लिए हामिद अंसारी कोझिकोड गए थे। तब वह उपराष्ट्रपति थे। इसे लेकर लेकर विवाद भी उठा था। ऐसे अतिवादी इस्लामिक संगठनों से निपटने के लिए केंद्र और अधिकतर राज्य सरकारों की एजेंसियां पर्याप्त हैं, लेकिन इन संगठनों को सुरक्षा एजेंसियों की चिंता नहीं रहती, क्योंकि पकड़े जाने पर उनके सदस्य खुशी-खुशी जेल जाने को तैयार रहते हैं। चिंता इस बात की है कि वोट बैंक और धन के लोभ में कई राजनीतिक-गैर राजनीतिक संगठन और कुछ अन्य लोग सब कुछ जानते हुए भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ऐसे विध्वंसक संगठनों का समर्थन करते रहते हैं। ऐसा करके वे देश को भारी खतरे में डाल रहे हैं। कर्नाटक विधानसभा के गत चुनाव में कांग्रेस ने एसडीपीआइ के साथ चुनावी तालमेल किया था। 2020 में एसडीपीआइ के कई प्रत्याशी बिहार में भी विधानसभा चुनाव लड़े थे।
आने वाले दिनों में जब सरकार सीएए के नियम तय करेगी तब इसकी आशंका है कि पीएफआइ और उसके सहयोगी संगठन फिर से सक्रिय हो सकते हैं। वे समान नागरिक संहिता के खिलाफ भी माहौल बनाने का काम कर सकते हैं। देश के कोने-कोने में पीएफआइ के विवादास्पद क्रियाकलाप बढ़ते जा रहे हैं। उनके क्रियाकलापों से आप कल्पना कर सकते हैं कि कुछ अतिवादी लोग इस देश को कहां ले जाना चाहते हैं?
Rani Sahu
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