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यह महज संयोग नहीं है कि जैसे ही अफगानिस्तान में तालिबान ने अपने झंडे गाड़े, पाकिस्तान में भी उपद्रव सिर उठाने लगा।
यह महज संयोग नहीं है कि जैसे ही अफगानिस्तान में तालिबान ने अपने झंडे गाड़े, पाकिस्तान में भी उपद्रव सिर उठाने लगा। तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान से जुड़े एक व्यक्ति ने लाहौर जेल के बाहर लगी महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा को ध्वस्त कर दिया। हालांकि दूसरा एक व्यक्ति उसे रोकने की कोशिश करता रहा, मगर वह नहीं रुका। यह प्रतिमा दो साल पहले ही रणजीत सिंह की एक सौ अस्सीवीं पुण्यतिथि पर लगाई गई थी। तब भी इसका विरोध किया गया था।
उसके बाद इससे पहले दो बार उसे तोड़ने की कोशिशें हो चुकी थीं। पुलिस ने उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया है और पाकिस्तान प्रशासन ने आश्वासन दिया है कि उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। इसके पहले भी पाकिस्तान में कुछ मंदिरों, गुरुद्वारों पर हमले किए जा चुके हैं। कुछ समय पहले ही कुछ उपद्रवियों ने एक मंदिर पर हमला करके उसे क्षतिग्रस्त कर दिया। उस घटना पर पाकिस्तान सरकार ने सख्त रुख अख्तियार किया और उदारता दिखाते हुए मंदिर की मरम्मत के आदेश दे दिए थे। इससे यह तो लगता है कि पाकिस्तान सरकार वहां रह रहे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर गंभीर है, वह उनकी आस्था पर किसी तरह की चोट बर्दाश्त नहीं करना चाहती
मगर समस्या यह है कि पाकिस्तान में जिस तरह भारत-विरोधी मानसिकता घर करती गई है और कट्टरपंथी ताकतें लोगों में भारत के विरुद्ध विचार भरने में सफल होती गई हैं, उसे रोकने में पाकिस्तान सरकार कहां तक सफल हो पाएगी। महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा तोड़ने के पीछे वही मानसिकता काम कर रही थी। दूसरे धर्मों के प्रतीकों, उनकी आस्था और विश्वास से जुड़े चिह्नों, उनके इतिहास के तथ्यों को मिटाने वाले कोई सभ्य लोग नहीं होते।
बामियान में बुद्ध की मूर्ति तोड़ने के पीछे तालिबान की मानसिकता भी यही थी कि वे अपने अलावा किसी और धर्म के प्रतीक, मूर्ति या निशान को बर्दाश्त नहीं कर सकते। तालिबान के फिर सत्ता में लौट आने पर अगर पाकिस्तान में कुछ लोग प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं, तो उसका स्पष्ट मतलब है कि वे खुद को अब ताकतवर समझने लगे हैं। उग्रवाद ही जिनका धर्म है, वे भला दूसरों की आस्था और विश्वास की क्या परवाह करेंगे। जिस व्यक्ति ने रणजीत सिंह की मूर्ति तोड़ी, उसकी प्रेरणा निस्संदेह तालिबान ही हैं। ऐसे लोगों को इतिहास से कोई मतलब नहीं होता, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि महाराजा रणजीत सिंह केवल भारतीय शासक नहीं थे, पाकिस्तान से भी उनका गहरा संबंध था।
पाकिस्तान सरकार की कमजोरी या फिर लाचारी यह है कि वह कट्टरपंथी ताकतों पर अंकुश नहीं लगा पाती। ये ताकतें हमेशा उस पर हावी रही हैं, दबाव डाल कर फैसले कराती या बदलवाती रही हैं। मंदिर, गुरुद्वारा या किसी मूर्ति को क्षतिग्रस्त करने पर वहां की पुलिस बेशक सक्रिय होकर उपद्रवियों को गिरफ्तार करती देखी जाती है, मगर वह उन्हें कोई कड़ा सबक नहीं सिखा पाती।
यही कट्टरपंथी ताकतें अपने यहां उग्रवादियों को प्रशिक्षित करती और भारतीय सीमा में प्रवेश दिला कर अस्थिरता पैदा करने के प्रयास करती देखी जाती हैं। उनकी ये हरकतें पाकिस्तान सरकार को भी मुफीद बैठती हैं। इस तरह उसे लगता है कि वह भारत से बदला ले रहा है। पाकिस्तान सरकार इस तरह की दोहरी नीतियों से उपद्रवियों पर काबू नहीं पा सकती। भारत और दुनिया को दिखाने के लिए भले वह कुछ उदारवादी चेहरा दिखाए, पर हकीकत यही है कि वहां के कट्टरपंथी उसके काबू में नहीं हैं। तालिबान के आने के बाद वे और बेकाबू हो सकते हैं।
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