सम्पादकीय

निरंतर निराश करते जनप्रतिनिधि, देश में पिछड़ रहे सिद्धांत, मानवीय मूल्य और जनहित जैसे अहम मुद्दे

Tara Tandi
27 Aug 2021 3:11 AM GMT
निरंतर निराश करते जनप्रतिनिधि, देश में पिछड़ रहे सिद्धांत, मानवीय मूल्य और जनहित जैसे अहम मुद्दे
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संसद के मानसून सत्र में फिर से दिखा कि भारत के प्रजातंत्र में सिद्धांत मानवीय मूल्य और जनहित के मुद्दे पिछड़ रहे हैं

शशांक पांडेय संसद के मानसून सत्र में फिर से दिखा कि भारत के प्रजातंत्र में सिद्धांत मानवीय मूल्य और जनहित के मुद्दे पिछड़ रहे हैं। संसद और सांसद ही देशवासियों की नियति का निर्धारण करते हैं। ऐसा आचरण करने वाले जनप्रतिनिधि भला कैसे भारत का निर्माण करेंगे?

जगमोहन सिंह राजपूत। संसद के मानसून सत्र के दौरान 11 अगस्त को उच्च सदन यानी राज्यसभा ने संसदीय कार्यप्रणाली के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए, जो किसी भी शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत समाज की पंचायत में पूरी तरह अमान्य और अस्वीकार्य माने जाएंगे। संसद और विधानसभाओं में अनेक अवसरों पर अस्वीकार्य व्यवहार होते रहे हैं, लेकिन राज्यसभा में जो हुआ, वह हर नागरिक को विचलित कर गया। संवेदनहीनता और बुद्धि तत्व के ह्रास का यह अत्यंत दुखद प्रकरण बना रहेगा। इससे भी अधिक पीड़ादायी यह रहा कि विपक्ष के एक भी सांसद ने उस अशालीन और अमर्यादित व्यवहार वाले कृत्य की आलोचना नहीं की। संसद और सांसद ही देशवासियों की नियति का निर्धारण करते हैं। ऐसा आचरण करने वाले जनप्रतिनिधि भला कैसे भारत का निर्माण करेंगे?

प्रत्येक सजग और सतर्क भारतवासी 'धियो यो न: प्रचोदयात' के स्नेत को जानता है। इसमें अपने आराध्य से अनुरोध है कि 'हमारी बुद्धि को आलोकित करें।' भारतीय संस्कृति में व्यक्ति अपने तथा औरों के लिए केवल सद्बुद्धि मांगता है। सभी के सुख और स्वास्थ्य की कामना करता है। सद्बुद्धि किसे नहीं चाहिए? वैसे भी शिक्षा, ज्ञान, बुद्धि और विवेक की उपस्थिति और परिमाण ही मनुष्य के जीवन की गुणवत्ता और दिशा तय करते हैं। गांधी जी का भारत कभी इसी ज्ञान परंपरा के आधार पर विश्व गुरु रहा। वह आज इस बौद्धिक पराभव की स्थिति में पहुंच गया है कि उसके वरिष्ठतम 'पंच परमेश्वर' सामान्य शिष्ट व्यवहार तक भूल चुके हैं। ऐसे में नागरिक अपनी निराशा और हताशा कैसे व्यक्त करें?

काश, हमारे सांसद इसे समझ सकते कि किसी भी सभ्यता और समाज में पारस्परिक सम्मान, विश्वास, संवाद और सहयोग वे मूल तत्व हैं, जो उसकी प्रगति और विकास को सामूहिकता और संपूर्णता प्रदान करते हैं। इससे उद्यमशीलता में सहयोग तथा साथ-साथ मिलकर कार्य करने की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है। प्रजातंत्र में इस भावना का प्रवाह उच्चतम स्तर से होना चाहिए। भारत की संसद के प्रत्येक कार्यकलाप और गतिविधि में देशहित, जनहित, मानवहित स्पष्ट दिखाई देने की अपेक्षा हर वह व्यक्ति करता है, जिसकी इस महापंचायत के गठन में भागीदारी होती है। स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वालों ने अपनी आने वाली पीढ़ियों से यही अपेक्षा की थी। उन्होंने संसद के रूप में एक सम्मानित संस्था की संकल्पना की थी। उनका सपना था कि प्रत्येक सांसद का आचरण ही नहीं, उनके सभी कार्यकलाप पारदर्शिता, सेवा और अपरिग्रह से परिपूर्ण हों।

आखिर वे उन्हीं गांधी जी का नाम लेते हैं, जिन्होंने यह कहा था कि 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।' गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व किया। उससे आधिकारिक रूप से अलग भी हुए। वे उसे राजनीति से अलग करना चाहते थे। क्या उन्हें अनुमान था कि सत्ता पाने के पश्चात नेताओं में 'बल, बुद्धि, विद्या' का ह्रास होता जाएगा। धन की ललक, वैभव की चमक और अधिकारों से जनित अहंकार तथा आधिपत्य-भाव उनको अपने कर्तव्य, नैतिकता और उत्तरदायित्व बोध से इतनी दूर ले जाएगा कि मतदाता को विश्वास नहीं होगा कि उनका चयन इतना स्तरहीन क्यों था। महात्मा गांधी की भारतीय लोकतंत्र को लेकर अपनी एक संकल्पना थी। उनका कहना था कि 'जन्मजात लोकतंत्रवादी वह होता है, जो जन्म से ही अनुशासन का पालन करने वाला हो। लोकतंत्र स्वाभाविक रूप में उसी को प्राप्त होता है, जो अपने को मानवी तथा दैवीय सभी नियमों का स्वेच्छापूर्वक पालन करने का अभ्यस्त बना ले। जो लोकतंत्र के इच्छुक हैं उन्हें चाहिए कि पहले वे लोकतंत्र की इस कसौटी पर अपने को परख लें। इसके अलावा लोकतंत्रवादी को नि:स्वार्थ भी होना चाहिए। उसे अपनी या अपने दल की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि एकमात्र लोकतंत्र की ही दृष्टि से सब कुछ सोचना चाहिए। तभी वह सविनय अवज्ञा का अधिकारी हो सकता है।' जो लोकतंत्र में विश्वास रखता हो, जिसने सविनय अवज्ञा का अधिकार प्राप्त कर लिया हो, वही राज्य और सरकार का विरोध करने का अधिकार प्राप्त कर सकता है। गांधी जी यह भी सिखा गए थे कि 'अगर वे चाहें तो अपनी सरकार को हटा सकते हैं, मगर उसके खिलाफ आंदोलन करके उसके कार्य में बाधा न डालें। हमारी सरकार जबरदस्त जल सेना और थल सेना रखने वाली कोई विदेशी सरकार तो नहीं है, उसका बल तो जनता है।'

दुख की बात है कि इस बार भारत की संसद को शर्मसार करने में अग्रणी वे रहे जिन्होंने गांधी जी के इस दर्शन, विचार, जीवन, मूल्य, सिद्धांत यानी उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी ली थी। जनता को भी कभी इन पर विश्वास था कि वे गांधी जी की विरासत को पूर्ण मनोयोग से आगे बढ़ाते रहेंगे, लेकिन अब यह भरोसा टूट गया है। यह प्रकरण बताता है कि भारत के प्रजातंत्र में सिद्धांतों, मानवीय मूल्यों और जनहित की ओर से चयनित कुछ प्रतिनिधियों का ध्यान हट चुका है। वे परिवार, सत्तासुख और धन-वैभव की ओर तेजी से अग्रसर होने लगे हैं। इसके लिए वे अपनी ही नहीं, पूरे प्रजातंत्र और संसद की साख दांव पर लगाने लगे हैं। मेज पर चढ़ना और घोषित करना कि इसके आगे और दुस्साहस करेंगे, यही दिखा रहा है कि उनका कितना अधोपतन हो चुका है। बहरहाल संचार तकनीकी के इस युग में अब एक ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि जनहित के हर प्रश्न पर जनता का त्वरित मत भी लिया जा सके। इसके परिणाम जनता के समक्ष पूरी पारदर्शिता से प्रस्तुत कर दिए जाएं। इससे जनता की भागीदारी बढ़ेगी। वह और सतर्क रहेगी। उसे अपने चयनित प्रतिनिधियों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने में सहायता मिलेगी। संभव है इससे सांसदों का बुद्धि तत्व और जनहित बोध जागृत हो सके।

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