सम्पादकीय

राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वालों की साख खत्म होती जा रही है

Gulabi
27 Jan 2021 8:29 AM GMT
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वालों की साख खत्म होती जा रही है
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राष्ट्र की परिकल्पना केवल इसके भौगोलिक और राजनीतिक इकाई होने से ही पूर्ण नहीं होती।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। राष्ट्र की परिकल्पना केवल इसके भौगोलिक और राजनीतिक इकाई होने से ही पूर्ण नहीं होती। इसकी परिपूर्णता उसके राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों द्वारा भी संपन्न होती है। दुनिया के सभी देशों और समाजों-भारत, चीन, मिस्र, यूनान आदि प्राचीन सभ्यताओं से लेकर अमेरिका जैसे नए देशों के भी अपने राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीक हैं। ये प्रतीक न केवल राष्ट्र के स्वाभिमान और अस्मिता के आधार होते हैं, बल्कि राष्ट्रीय एकता में भी सहायक होते हैं। इसलिए इन प्रतीकों के सम्मान या रक्षा के लिए विशेष संवेदनशीलता दिखती है। इसमें बुद्धिजीवियों की विशेष भूमिका होती है, क्योंकि किसी भी देश-समाज को दिशा देने का कार्य बौद्धिक वर्ग ही करता है। दुर्भाग्य से भारत के पश्चिमी मानसिकता से ग्रस्त बौद्धिक वर्ग की दृष्टि भारत के राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति नकारात्मक ही रहती है। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखें तो यह बात साफ नजर आएगी-बात चाहे गणतंत्र दिवस मनाने से जुड़े विवाद की हो या औरंगाबाद के नामकरण की। राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति वामपंथी, लिबरल और सेक्युलर बुद्धिजीवियों की रणनीति तीन तरह की होती है। उपेक्षा करो, खिल्ली उड़ाओ और विरोध करो। किसान आंदोलन में शामिल हो गए तथाकथित उदारवादी-वामपंथी बुद्धिजीवियों के उकसावे पर गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली निकालना इस पर्व का अपमान ही है।

गणतंत्र दिवस न मनाने की बेतुकी सलाह ने तोड़ा दम

पिछले दिनों बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोकसभा सदस्य शशि थरूर ने एक शिगूफा छोड़ा कि गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि ब्रिटिश प्रधानमंत्री का भारत दौरा रद होने के कारण इस बार गणतंत्र दिवस समारोह को ही रद कर दिया जाए, फिर तो जाने-माने वकील एवं एनसीपी नेता माजिद मेमन के साथ-साथ शिवसेना प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी आदि भी थरूर के समर्थन में कूद पड़े। गणतंत्र दिवस समारोह को रद करने की उनकी मांग अभूतपूर्व थी, क्योंकि आज के माहौल में इस राष्ट्रीय पर्व को मनाए जाने की और भी ज्यादा आवश्यकता थी। एक ओर देशवासियों में मनोबल का संचार करने के लिए तो दूसरी ओर चीन-पाकिस्तान जैसे नापाक देशों को संदेश देने के लिए कि कोरोना संकट में भी भारत डटकर खड़ा है। यह अच्छा हुआ कि गणतंत्र दिवस न मनाने की बेतुकी सलाह ने दम तोड़ दिया।
कोरोना संकट के दौरान इटली, अमेरिका, रूस ने राष्ट्रीय दिवस समारोह रद नहीं किए थे

गौरतलब है कि पिछले साल जून-जुलाई में जब कोरोना संकट अपने चरम पर था, तब भी इटली, अमेरिका या रूस जैसे सर्वाधिक पीड़ित देशों ने उन महीनों में होने वाले अपने राष्ट्रीय दिवस समारोह रद नहीं किए थे। यहीं यह भी याद करें कि एक और राष्ट्रीय प्रतीक राष्ट्रध्वज के बारे में पिछले साल अक्टूबर में पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की वापसी नहीं होने तक वह राष्ट्रध्वज नहीं पकड़ेंगी। राष्ट्रीय प्रतीक तिरंगे के प्रति इस अपमानजनक रुख पर देश का छद्म उदारवादी बुद्धिजीवी एक बार फिर मौन साध गया था। अगर ऐसे वक्तव्य भाजपा या आरएसएस के लोगों ने दिए होते तो अब तक लुटियन दिल्ली और उसकी मीडिया में भूचाल आ गया होता और मोदी सरकार पर संवैधानिक मर्यादा के उल्लंघन एवं संविधान की हत्या का आरोप लग चुका होता।
समाज अत्याचारी या औपनिवेशिक शासक द्वारा दिए नाम को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त नहीं करता

राष्ट्रीय प्रतीकों के अलावा देश के सांस्कृतिक प्रतीक भी होते हैं। जैसे- महापुरुष, स्मारक, चिह्न, स्थल इत्यादि। व्यक्ति के स्तर पर ये सांस्कृतिक प्रतीक ऐसे स्त्री-पुरुष होते हैं जिनसे जुड़कर गर्व होता है, क्योंकि वे एक आदर्श और उसकी अस्मिता के प्रतीक होते हैं। आजकल महाराष्ट्र में औरंगाबाद शहर का नाम बदलकर संभाजी नगर रखे जाने पर भी एक विवाद उठ खड़ा हुआ है, जिसका राजनेताओं के अलावा तथाकथित बुद्धिजीवियों ने भी विरोध शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र में सर्वमान्य शिवाजी के लोकप्रिय पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज की औरंगजेब द्वारा निर्मम हत्या इसी क्षेत्र में कर दी गई थी। औरंगजेब के नाम पर इस शहर का नया नामकरण औरंगाबाद हुआ। कुछ लोगों का यह तर्क बेतुका है कि नाम बदल जाने से शहर का भाग्य नहीं बदल जाएगा। यही तर्क उस समय तो नहीं दिया गया था, जब कांग्रेस सरकार ने 2006 में पांडिचेरी (औपनिवेशिक नामकरण) को बदलकर पुदुचेरी अथवा कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने 1991 में त्रिवेंद्रम का नाम तिरुवनंतपुरम कर दिया था। कोई भी स्वाभिमानी समाज अत्याचारी या औपनिवेशिक शासक द्वारा दिए नाम को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकता, लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवियों के विरोध का मानदंड तो दोहरा होता है। उनके मन में सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रतीकों की खिल्ली उड़ाने का भाव होता है।
जय श्रीराम के नारे के प्रति अमर्त्स सेन और ममता बनर्जी का रुख
कष्टकारी यह है कि तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं छद्म उदारवादियों में इस तरह का भाव और दृष्टिकोण हिंदू प्रतीकों के प्रति अधिक रहता है। इसका एक उदाहरण है हाल में एक अंग्रेजी अखबार में गाय पर लिखा गया बेहद अपमानजनक संपादकीय। यद्यपि यह सही है कि कुछ समय पहले चंद असामाजिक तत्वों ने गाय के नाम पर उत्पात मचाया था, लेकिन इससे सौ करोड़ हिंदुओं की आस्था की धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीक गाय के बारे में ऊटपटांग लिख देने का अधिकार नहीं मिल जाता। ऐसी सैकड़ों घटनाएं मिलेंगी। चाहे अयोध्या में रामजन्मभूमि विवाद हो या बंगाल में जय श्रीराम के नारे के प्रति अमर्त्स सेन और ममता बनर्जी का रुख हो या फिर केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत में की जाने वाली प्रार्थना संबंधी मुद्दा हो अथवा दर्शनशास्त्र के प्रश्नपत्र में भगवद्गीता को शामिल करने पर उठा विवाद हो। सबमें वही पैटर्न नजर आएगा। यही नहीं, अपनी मनमानी न चलने पर ये लोग सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग एवं सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं पर भी आरोप लगाने और उनकी मर्यादा पर हमला करने से नहीं चूकते।

देश में बने कोरोना टीके पर घटिया राजनीति

ध्यान दें कि कृषि कानूनों की समीक्षा पर कमेटी बनाए जाने पर किस तरह सुप्रीम कोर्ट को खरी-खोटी सुनाई गई। अब तो जीवनदायी के रूप में विकसित आत्मनिर्भर भारत के प्रतीक देश में बने कोरोना टीके पर भी घटिया राजनीति शुरू हो गई है। राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले बौद्धिकता के अलंबरदार यह जान लें कि आमजन ही नहीं, पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के बीच भी उनकी साख खत्म होती जा रही है।


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