- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- राष्ट्रीय और...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। राष्ट्र की परिकल्पना केवल इसके भौगोलिक और राजनीतिक इकाई होने से ही पूर्ण नहीं होती। इसकी परिपूर्णता उसके राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों द्वारा भी संपन्न होती है। दुनिया के सभी देशों और समाजों-भारत, चीन, मिस्र, यूनान आदि प्राचीन सभ्यताओं से लेकर अमेरिका जैसे नए देशों के भी अपने राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीक हैं। ये प्रतीक न केवल राष्ट्र के स्वाभिमान और अस्मिता के आधार होते हैं, बल्कि राष्ट्रीय एकता में भी सहायक होते हैं। इसलिए इन प्रतीकों के सम्मान या रक्षा के लिए विशेष संवेदनशीलता दिखती है। इसमें बुद्धिजीवियों की विशेष भूमिका होती है, क्योंकि किसी भी देश-समाज को दिशा देने का कार्य बौद्धिक वर्ग ही करता है। दुर्भाग्य से भारत के पश्चिमी मानसिकता से ग्रस्त बौद्धिक वर्ग की दृष्टि भारत के राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति नकारात्मक ही रहती है। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखें तो यह बात साफ नजर आएगी-बात चाहे गणतंत्र दिवस मनाने से जुड़े विवाद की हो या औरंगाबाद के नामकरण की। राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति वामपंथी, लिबरल और सेक्युलर बुद्धिजीवियों की रणनीति तीन तरह की होती है। उपेक्षा करो, खिल्ली उड़ाओ और विरोध करो। किसान आंदोलन में शामिल हो गए तथाकथित उदारवादी-वामपंथी बुद्धिजीवियों के उकसावे पर गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली निकालना इस पर्व का अपमान ही है।