सम्पादकीय

किसी भी बिजनेस में ज्यादा महत्व लोगों को दिया जाना चाहिए, आलीशान इमारतें और खम्भे उसके बाद आते हैं

Gulabi Jagat
22 March 2022 8:41 AM GMT
किसी भी बिजनेस में ज्यादा महत्व लोगों को दिया जाना चाहिए, आलीशान इमारतें और खम्भे उसके बाद आते हैं
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दिवंगत परमल सिंह भदौरिया अपने गांव सिनहुड़ा से सटी नदी में मछलियों का शिकार करने बंदूक लेकर जाते थे

एन. रघुरामन का कॉलम:

दिवंगत परमल सिंह भदौरिया अपने गांव सिनहुड़ा से सटी नदी में मछलियों का शिकार करने बंदूक लेकर जाते थे। सिनहड़ा ग्वालियर से 100 किमी दूर स्थित गांव है और 1960-70 के दशक में डकैतों की गतिविधियों का केंद्र था। जब बंदूक चलने की आवाज डकैतों तक पहुंचती तो उनके सरगना साथियों से कहते- 'लल्ला शिकार खेलने आया होगा, तू फिकर ना कर।' वे गोली की आवाज और उसकी वजह पहचान सकते थे।
ऐसा इसलिए क्योंकि परिवार से कहासुनी के बाद वे 'मैं तो बागी हो गया' कहकर जंगलों में डाकू जैसा जीवन बिताने चले जाते थे। बागी का मतलब विरोध करने वाला। फिल्म 'पान सिंह तोमर' में भी मुख्य चरित्र यही कहकर बंदूक उठा लेता है। डाकू लोग भदौरिया से ये भी कहते थे कि पकड़ा शिकार भोजन के लिए उनसे साझा करें, और वे ऐसा ही करते।
उन वर्षों में चम्बल की जीवनशैली में से एक यह भी हुआ करता था और 'बैंडिट क्वीन' और 'रिवॉल्वर रानी' जैसी अनेक बॉलीवुड फिल्मों में कुछ डाकुओं को इस तरह से प्रदर्शित किया गया है। रविवार को जौरा, सबलगढ़ और उसके आसपास के इलाकों की यात्रा करने के दौरान मुझे यह सब याद हो आया। 1970 के दशक में इन इलाकों में 300 से अधिक खूंखार डकैतों ने जयप्रकाश नारायण के समक्ष आत्मसमर्पण किया था।
इनमें से कुछ तो बहुत ही खतरनाक थे, जैसे माधव सिंह, मोहर सिंह, स्वरूप, लोकमन दीक्षित। बीते दशकों में ये इलाका धीरे-धीरे विकसित हुआ है। अगर आप चम्बल से गुजरें तो ऐसे अनेक होर्डिंग्स पाएंगे, जो बच्चों को अंग्रेज़ी, विज्ञान और अन्य विषयों की पढ़ाई के लिए आमंत्रित करते हैं। आप वहां के बच्चों में भविष्य की आकांक्षाएं देख सकते हैं। वे पढ़ाई करके जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं।
मैंने सबलगढ़ में 'किडीज होम' नामक स्कूल में पाया कि वहां के कम से कम आधा दर्जन बच्चों ने एमबीबीएस में दाखिला पा लिया था। इतने ही बच्चे आईआईटी सहित दूसरे संस्थानों के लिए चयनित हो चुके थे। मैं साफ देख सकता था कि गुस्से से 'बागी' बन जाने के बजाय अब बच्चे ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग कर रहे हैं और जीवन में मुकाम बनाना चाहते हैं।
ऐसे स्कूल बीते दो दशकों से सोच बदलने का काम कर रहे हैं, जिसके लिए उनकी सराहना होनी चाहिए। दूसरे व्यवसायों में भी इतनी ही प्रभावी प्रगति देखी गई है। होटल इंडस्ट्री इनमें से एक है। ग्वालियर-मुरैना मार्ग पर स्थित इंदिरालोक पैलेस ऐसे होटलों में से है, जो अपनी भव्यता के कारण यात्रियों को खींचता है। यह आलीशान भवन तीन तरफ से नयनाभिराम है।
इसके कई कमरे एक बड़े-से हरे-भरे भूखंड की ओर खुलते हैं, जिन्हें देख राहत मिलती है। इसका पोर्च, गार्डन और मेहमानों के आराम करने की जगह बताते हैं कि होटल-मालिक ने 'वॉव' फैक्टर पाने के लिए काफी पैसा खर्च किया है। पर अफसोस कि होटल की सेवाएं उसके लुक से उलट थीं। अनशेव्ड लोग, वेटरों की भद्दी पोशाकें, भोजन परोसने वालों के बढ़े नाखून, मास्क नहीं पहनना आदि ऐसी बातें थीं, जो किसी को भी निराश कर सकती थीं।
यहां तक पहुंचाने वाले 120 किमी लंबे मार्ग पर एक भी ऐसा होर्डिंग नहीं था, जिसमें वर्तनी की भूलें न हों। ये इसलिए हास्यास्पद लगता है, क्योंकि यहां के लोगों को अब भी यही लगता है कि बड़ी इमारतें या होर्डिंग से क्षेत्र में विकास आ जाएगा। निसंदेह हमें भवनों की जरूरत है, लेकिन लोगों के बिना वे केवल अच्छे-से पेंट हुई दीवारें भर हैं, वहीं होर्डिंग केवल देखने की चीज हैं। बिजनेस लोगों से विकसित होता है। इस तरह के भवन आर्थिक गतिविधियों के विकास में मदद भर करते हैं।
फंडा यह है कि किसी भी बिजनेस में ज्यादा महत्व लोगों को दिया जाना चाहिए, आलीशान इमारतें और खम्भे उसके बाद आते हैं।
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