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- जिंदगी हारते लोग
Written by जनसत्ता: तो उससे केवल उस व्यक्ति के मनोबल की कमजोरी जाहिर नहीं होती। वह एक समाज या समुदाय की बहुस्तरीय नाकामी का उदाहरण होता है। मुंबई का फिल्म और टीवी उद्योग पिछले कई सालों से इस समस्या से दो-चार है कि सिनेमा में हंसता-खेलता और सार्वजनिक जीवन में लोगों का पसंदीदा बन गया कलाकार किसी दिन अचानक खुदकुशी कर लेता है।
कलाकार भी आखिर इंसान होते हैं और उनकी जिंदगी के तनाव और दबाव भी कई बार इस कदर जटिल हो सकते हैं, जिसमें आखिरकार वे हार जाएं। पर सवाल है कि साधारण लोगों की दुनिया के मुकाबले संगठित रूप से काम करने वाले फिल्म या टीवी धारावाहिकों के उद्योग ने इतने सालों के सफर के बावजूद ऐसा तंत्र विकसित क्यों नहीं किया है, जिसमें बेहद मुश्किल हालात का सामना करता कोई कलाकार अपने लिए जिंदगी की उम्मीद देख पाए?
यह मसला एक बार फिर चिंता का केंद्र इसलिए बना है कि पिछले हफ्ते टीवी धारावाहिकों की एक अभिनेत्री काम की जगह पर ही फंदे से लटकी मिली। सिर्फ इक्कीस साल की उम्र में उसकी इस तरह मौत किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को परेशान करने वाली है। इतनी कम आयु में ही उसने धारावाहिक और मनोरंजन जगत में अच्छी पहचान बना ली थी। अभी उसके सामने लंबी जिंदगी, मौके और खुला आसमान था, जहां वह भविष्य की ऊंची उड़ान भर सकती थी।
मगर आखिर क्या ऐसा हुआ, जिसका हल उसे अपनी जान देने में ही नजर आया! सामान्य नजरिए से देखें तो यही कहा जा सकता है कि आत्महत्या की दूसरी घटनाओं में जिस तरह व्यक्ति हार कर ऐसा कदम उठाता है, वैसी ही कोई परिस्थिति पैदा हुई होगी। पर वे कौन-सी और कैसी असामान्य परिस्थितियां सामने आर्इं कि अभिनेत्री ने उनसे बचने या टकराने के बजाय जिंदगी की हार का रास्ता चुना?
पिछले कुछ सालों में सुशांत सिंह राजपूत, वैशाली ठक्कर, आसिफ बसरा और कुशल पंजाबी से लेकर परीक्षा मेहता जैसे अनेक कलाकारों ने कम समय में ही बालीवुड या टेलीविजन में अभिनय की दुनिया में अपनी अच्छी पहचान बनाई थी, लेकिन अचानक उनके आत्महत्या कर लेने की खबरें आर्इं। निश्चित रूप से खुदकुशी सबसे तकलीफदेह हालात के सामने हार जाने का नतीजा होती है और ऐसा फैसला करने वालों के भीतर वंचना का अहसास, उससे उपजे तनाव, दबाव और दुख का अंदाजा लगा पाना दूसरों के लिए मुमकिन नहीं है।
मगर किसी भी स्थिति में जीवन खो देने के बजाय हालात से लड़ना और उसका हल निकालना ही बेहतर रास्ता होता है। ऐसी घटनाएं सामने आने के बाद बिना किसी ठोस आधार के कई बार कुछ विवाद खड़े हो जाते हैं। पर मुख्य सवाल यही रह जाता है कि आमतौर पर सभी सुविधाओं से लैस, अपने आसपास कई स्तर पर समर्थ लोगों की दुनिया में सार्वजनिक रूप से अक्सर मजबूत दिखने के बावजूद कोई व्यक्ति भीतर से इतना कमजोर क्यों हो जाता है कि जिंदगी के उतार-चढ़ाव या झटकों को बर्दाश्त नहीं कर पाता? जाहिर है, सामाजिक प्रशिक्षण के अलावा सामुदायिक स्तर पर एक ऐसे ठोस तंत्र की जरूरत है, जहां अपने सबसे मुश्किल और जटिल हालात में पड़ा कोई व्यक्ति बिना किसी संकोच या बाधा के अपने लिए संवेदनात्मक जगह महसूस कर सके और एक बार फिर से जीना शुरू कर सके।